Pragyopnishad – 5th Mandal
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 26 June 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: प्रज्ञोपनिषद् ~ मण्डल-5
Broadcasting: आ॰ अमन जी
आ॰ डा॰ अर्चना राठौर जी (ग्रेटर नोएडा, उ॰ प्र॰)
प्रथम अध्याय – कर्म व्यवस्था प्रकरण (भारद्वाज – याज्ञवल्क्य संवाद)
संसार ‘कर्मफल’ की सुनिश्चित विधि-व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। मनुष्य के व्यक्तित्व परीक्षण के लिए दो देवदूत आते हैं – १. संकट व २. वैभव। ‘संकट’ हमारे धैर्य, पुरूषार्थ व साहस को जांचता है। ‘वैभव’ उदारता, नम्रता व संयम खोजता है। दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर महामानव बना जाता है।
पात्रतानुसार (as per eligibility) अनुदान मिलते हैं। Great says first deserve then desire. बड़प्पन के साथ बड़े बड़े अधिकार जुड़े होते हैं। तो उनके संग बड़ी ज़िम्मेदारियां भी। जिम्मेदारी ना निभाने पर दण्ड का भागी बनना होता है।
‘चित्रगुप्त’ मनुष्य का अपना अचेतन मन ही है। जिसकी अत्यंत संवेदनशील कोशाओं के उपर उनके भले बुरे कर्म टेपरिकॉर्डर के फीते अथवा फोटोग्राफी के प्लेट की तरह अंकित रहते हैं। चेतना की इन सुक्ष्म परतों में ऐसी व्यवस्था फिट है कि वह कुविचारों, कुकर्मों का प्रतिफल स्वसंचालित पद्धति से अपने आप ही प्रस्तुत करती रहती है।
महात्मा यीशु कहते हैं – As you sow so you reap. कुरान शरीफ में लिखा है – अपने किए का हिसाब सबको देना होता है।
जिन्हें मानव गरिमा का बोध होता है वह अंधानुकरण (भेड़ चाल) नहीं प्रत्युत् आत्मा और परमात्मा का परामर्श (विवेक) मानते हैं।
आसुरी और दैवी शक्तियों के संघर्ष में हमें किसका पक्षधर बनना है, इसका निर्णय स्वयं करना पड़ता है।
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। भाग्य का दूसरा नाम ‘कर्म’ भी है। कर्म के अनुरूप फल मिलते हैं। गहणाकर्मणोगति।
द्वितीय अध्याय ~ आत्मपरिष्कार लोकसाधना प्रकरण (महामनिषी कश्यप – ऋषि याज्ञवल्क्य संवाद)
“इच्छा – विचारणा – क्रिया” की श्रृंखला – मनुष्य जीवन में ‘इच्छा-आकांक्षा’ सर्वोपरि है। इसके चक्र के दायरे के इर्द-गिर्द ‘चिंतन’ चलता है और उसी स्तर के ‘क्रिया’ हेतु विवश करता है। ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ में इसी सूत्र का प्रतिपादन है।
मनुष्य शरीर धारण करना बड़ी बात नहीं प्रत्युत् मानव गरिमा के अनुरूप अंतःकरण धारण करने वाले सही अर्थों में मनुष्य कहलाते हैं।
मनुष्य का विकास और उत्थान ‘आत्मशोधन’ से जुड़ा हुआ है। आत्मपरिष्कार के 4 उपाय हैं – आत्मसमीक्षा, आत्म-सुधार, आत्मनिर्माण व आत्मविकास।
तृतीय अध्याय ~ व्यवहारिक तपोयोग प्रकरण (मुनि जरत्कारु – ऋषि याज्ञवल्क्य संवाद)
“तपसो ब्रह्म विजिज्ञासस्व तपो ब्रह्मोति”। उस अविनाशी ब्रह्म को “तप व योग” साधना द्वारा ही जाना जा सकता है। भृगु जी ने क्रमशः अन्नमय जगत, प्राणमय जगत, मनोमय जगत, विज्ञानमय जगत में ब्रह्म के साक्षात्कार करने के उपरांत आनन्दमय विभूति – आनन्द ही ब्रह्म है को जाना।
श्रीमद्भागवत गीता – “तपो मे हृदयं – साक्षादात्माहि तपसो हि वै।” अर्थात् – तप ही मेरा प्रत्यक्ष हृदय है और मैं भी तप का हृदय हूं। दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं।
वासना, तृष्णा व अहंता को ‘भवसागर’ कहा गया है। लोभ, मोह और गर्व – ‘भवबंधन’ हैं। भवबंधन से मुक्ति व कुसंस्कारों को गलाने के लिए तपोजनित प्रखरता/ उष्णता की आवश्यकता होती है। तपस्वी को अपने आप से लड़ना पड़ता है और अभ्यस्त आदतों और गतिविधियों को उलटना पड़ता है। ‘तितीक्षा’ अभ्यास है और ‘तप’ उद्देश्य पूर्ण व्रत-धारण।
‘तप’ के बाद आत्मोत्कर्ष के लिए दूसरे महत्वपूर्ण साधन ‘योग’ की आवश्यकता होती है। योगश्चित्त वृत्ति निरोधः। अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। वृत्तियों के निरोध से चित्त एकाग्र ही नहीं होता प्रत्युत् पूर्णतया आत्मस्थ हो जाता है और आत्मा परमात्मा के साथ योग मिलन हो जाता है। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने का तात्पर्य है – क्षुद्रता को महानता के साथ, कामना को भावना के साथ, स्वार्थ को परमार्थ के साथ बांध देना, बदल देना और तदनुसार बना लेना। ‘समर्पण’ इसी उच्चस्तरीय भूमिका का नाम है। विलय – विसर्जन, समन्वय समापण शरणागति उसी के दूसरे पर्याय हैं। इस आरंभ की पूर्णाहुति जीव और ब्रह्म के साथ पूर्ण एकता स्थापित होने से होती है। इसी स्थिति को ‘अद्वैत’ कहते हैं।
“तप व योग” परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की सफलता संभव नहीं।
चतुर्थ अध्याय ~ आत्मबोध प्रकरण (अंगिरा – याज्ञवल्क्य संवाद)
अध्यात्म दर्शन का सूत्र – “जिन ढूंढा तिन पाइयाँ” – अक्षरशः सत्य है। जो ढुंढता है वही पाता है। ज्ञान, कामचलाउ जानकारी मात्र नहीं है। उथले से काम नहीं चलता वरन् गहरे जाना पड़ता है। @ जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अध्यात्म में ‘ज्ञान’ का विशेष अर्थ है। “न हि ज्ञानेन सदृश पवित्रमह विद्यते”। अर्थात् ज्ञान से बढ़ कर पवित्र इस संसार में कुछ भी नहीं है। अध्यात्म में ‘ज्ञान’, सत्य को कहा गया है। सत्य, शाश्वत है।
ब्रह्मविद्या की तात्विक धारणाओं को क्रियान्वित करने के दो उपाय – ‘ज्ञानयोग’ व ‘कर्मयोग’ स्वयं में पूर्ण हैं। इतने पर भी ‘ज्ञान’ को प्रथम व ‘कर्म’ को द्वितीय कहा गया है। तीसरी धारा ‘भक्तियोग’ की है, जो इन दोनों के समन्वय से आविर्भूत होती है। अध्यात्म क्षेत्र का तीर्थ राज त्रिवेणी संगम इन तीनों के सम्मिलन से बनता है।
गायत्री त्रिपदा (ज्ञान, कर्म व भक्ति) हैं। अतः तीनों के समन्वित क्रम से साधना को पूर्णता मिलती हैं। साधनाओं में सर्वश्रेष्ठ है व्यक्तित्व की साधना। उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार के धारक ‘आत्मसाधक’ कहे जाते हैं।
आ॰ शैली अग्रवाल जी (पंचकूला, हरियाणा)
पंचम अध्याय ~ धर्म धारणा प्रकरण (ऋषि कौण्डिन्य – याज्ञवल्क्य संवाद)
‘धर्म’ का लक्ष्य मनुष्य को प्रत्येक युग में पूर्णता के चरम बिन्दु तक पहुंचाना है। धर्म शब्द का अत्यंत संक्षिप्त व सारगर्भित अर्थ है – अभ्युदय एवं निःश्रेयस अर्थात् छल प्रपंचरहित लौकिक व पारलौकिक उन्नति।
जो व्यक्ति को संयमी, कर्तव्यनिष्ठ व परमार्थ परायण बनाए – वही सत्परामर्श – ‘धर्म’ है। जो मानव को मानव एवं समष्टिगत प्राणि-सत्ता से सदैव प्रेम करना सिखाये, वही शिक्षा ‘धर्म’ है।जो मानवोचित जीवन जीना सिखाये वही सच्चा ‘धर्म’ है।धर्म मानव जीवन का प्राण है। धर्मों रक्षति रक्षितः। सार्वभौम धर्म की व्याख्या धर्म के सार तत्व 10 लक्षणों (5 युग्मों) से की जा सकती है :
१. सत्य एवं विवेक
२. संयम एवं कर्तव्य
३. मर्यादा पालन एवं अनुशासन निर्वाह
४. सौजन्य एवं पराक्रम
५. सहकार एवं परमार्थ
हम ईश्वर को सर्वव्यापी व न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे @ धारणे इति धर्मः।
षष्ठम अध्याय ~ सर्वधर्म समभाव प्रकरण (ऋषि कौण्डिन्य – ऋषि याज्ञवल्क्य संवाद)
जिस प्रकार शरीर और प्राण दोनों मिलकर पूर्ण पुरुष बनते हैं। उसी प्रकार ‘धर्म’ दो घटकों से मिलकर बना है – १. बाह्य रुप (प्रतीकात्मक उपासना कर्मकाण्ड) एवं २. अन्तरंग रूप (भावना प्रधान – “भवानी शंकरौ वन्द्ये श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।”)
आत्मीयता/ प्रेम की की चरम बिन्दु (निःस्वार्थ प्रेम) अध्यात्मिकता का प्राण है। आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।
‘धर्म’ के केवल बाह्य रूप में उलझ कर अन्तरंग रूप को गौण करना ही ‘विग्रह’ का कारण है।
वस्तुतः निष्काम भाव से किया गया कर्म ही ‘धर्म’ है। उच्चस्तरीय स्वार्थ ही परमार्थ है। सहिष्णुता, विनम्रता, मैत्री, दया, करूणा, उदारता, प्रेम, विवेक, संयम, सेवा आदि सद्गुणों में सच्ची ‘धर्मनिष्ठा’ का परिचय मिलता है। मानवीय गरिमा के अनुरूप श्रेष्ठ आचरण करने वाले ही सच्चे ‘धर्मात्मा’ कहलाते हैं। “वसुधैव कुटुंबकम्” की भावना का परिपोषित करने वाली भावना सार्वभौम धर्म का प्राण है।
सप्तम अध्याय ~ उपासना – साधना – अराधना प्रकरण (गालव मुनि – ऋषि याज्ञवल्क्य संवाद)
‘ज्ञान’ को ‘कर्म’ में परिणत करने में ही उसकी सार्थकता है और इससे संसार स्वर्ग बन सकता है। ‘ज्ञानवान’ के दो लक्षण – १. आत्मवत्सर्वभूतेषु की भावना व २. विश्वबन्धुत्व की अनुभूति।
गायत्री त्रिपदा कही जाती हैं। मनुष्य के 3 आवरण हैं – स्थूल, सुक्ष्म व कारण। तीन योग्य लक्ष्य – ‘सत्-चित्त-आनन्द’। तीन दर्शनीय तथ्य – सत्यं, शिवं, सुन्दरम्। गायत्री (त्रिपदा) की तीन धाराएं – निष्ठा, प्रज्ञा व श्रद्धा। फलस्वरूप तीन उपलब्धि – तृप्ति, तुष्टि व शांति। ‘अध्यात्म’ को समग्र जीवन में जीने के लिए 3 पुरूषार्थ करने होते हैं:
१. ब्रह्म उपासना
२. जीवन साधना
३. लोक अराधना
यह तीनों कोई क्रिया काण्ड नहीं प्रत्युत् चिन्तन, चरित्र व व्यवहार में होने वाले उच्चस्तरीय परिवर्तन हैं।
तप @ गलाई – दुष्प्रवृत्ति (पशुता पूर्ण व्यवहार) उन्मूलन एवं योग @ ढलाई – सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन अर्थात् मानव गरिमा के अनुरूप “उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार” का धारक बनाते हैं। “उपासना, साधना व अराधना” – तीन पुरूषार्थ की रिद्धि सिद्धि आत्मवत्सर्वभूतेषु व वसुधैव कुटुंबकम् की अनुभूति के रूप में होती है।
जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)
आ॰ अर्चना दीदी व आ॰ शैली दीदी को साभार – धन्यवाद। विषय वस्तु को शानदार सुबोध तरीके से रखने का सराहनीय कार्य किया गया है।
प्रज्ञोपनिषद् ~ पंचम मण्डल, पूर्णता @ अद्वैत हेतु महत्वपूर्ण है। मानव जीवन को धारण करने के दो परम उद्देश्य @ परम पुरुषार्थ – १. स्वयं को देवता बनाना एवं २. धरती को स्वर्ग बनाना।
मनुष्य के पतनोन्मुखी बनने का कारण – इन्द्रियों का बहिर्मुखी होना है। इन्हें अंतर्मुखी बनाने से प्राण का उर्ध्वगमन होता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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