Pragyopnishad 6th Mandal
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 21 Aug 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
SUBJECT: प्रज्ञोपनिषद् (मण्डल-6)
Broadcasting: आ॰ अमन जी
आ॰ किरण चावला जी (USA) एवं आ॰ मीना शर्मा जी (नई दिल्ली)
1. देवात्म हिमालय प्रकरण
भगवती भगीरथी – गंगा का अवतरण पर्व – ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष दशमी तिथि।
मुनि उत्तुंग – हिमालय के उत्तराखण्ड को ऋषि भूमि, तपोभूमि, सिद्धभूमि, पूण्यभूमि व स्वर्गोपम क्यों माना गया?
देवर्षि नारद – सृष्टि निर्माण क्रम में जब पृथ्वी बनी तो सर्वप्रथम हिमालय का उत्तराखण्ड भाग विनिर्मित हुआ। यह सृजे गये देवताओं की निवास स्थली, तपश्चर्या क्षेत्र बनी अतः देवलोक कही गई।
देवताओं के उपरांत मनुष्यों का सृजन। उनकी प्रथम संरचना ऋषि-मुनियों के रूप में – ऋषि वैज्ञानिक थे और शान्त दान्त मुनि निर्धारक प्रचारक। ‘योग’ से – आत्म विज्ञान और ‘तप’ से – पदार्थ विज्ञान के सूत्र हस्तगत हुए। जिन्हें आत्मकल्याण व लोककल्याण में प्रयुक्त किया गया।
मानव शरीर एक समग्र प्रयोगशाला। उसमें इस सृष्टि के सभी रहस्यों को समझने और समस्त वैभवों को उपलब्ध करने के विस्मयकारी उपकरण लगे हैं।
देवता विभूतियों के भण्डार हैं, वे सत्पात्रों को तलाशते और निहाल करते हैं। पात्रता का संवर्धन ही ‘देवाराधन’ है।
योग साधना – मानसिक पुरूषार्थ से रिद्धि व तपश्चर्या – शारीरिक पुरूषार्थ से सिद्धि हस्तगत होते हैं जिनका समन्वित क्रम साधना को समग्रता प्रदान करता है।
2. ऋषि प्रकरण
शास्त्रकारों की लेखन साधना – योगाभ्यास व तप साधना का एक प्रकार।
सत् साहित्य सृजन – आत्मकल्याण व लोककल्याण का समन्वित पुण्य कर्म।
सद्ज्ञान – मनुष्य का सच्चा वैभव।
शिक्षक एक आदर्श – गुण, कर्म व स्वभाव @ व्यक्तित्व निर्माण की अन्तः प्रेरणा मात्र स्वयं सिद्ध ऋषि तपस्वी ही दे सकते हैं।
सनातन ऋषि धर्म – स्वयं के व्यक्तित्व को गौरवशाली बनाने के उपरांत संचित विभूति के आधार पर अपने उदार पुरूषार्थ को जन जन के आंतरिक परिष्कार में लगाना।
3. हिमाद्रि हृदय प्रकरण
ऋषिवर कणाद् – आत्मवेत्ता, उत्तराखण्ड को ही साधना के लिए उपयुक्त क्यों समझते हैं?
देवर्षि नारद – उत्तराखण्ड, हिमालय का हृदय – व्यापक ब्रह्म चेतना के पृथ्वी पर अवतरित होने वाले अनुदानों का केन्द्र स्थान है। यहां सुक्ष्म शरीर प्रधान देवमानव ही निवास करते हैं।
यहां अन्यत्र की तुलना में अध्यात्म का प्रभाव अधिक है। अगम्य होने की वजह से मनन चिंतन व निदिध्यासन हेतु एकांत स्वतः उपलब्ध है।
इस शीत प्रधान क्षेत्र में जीवनी शक्ति की बहुलता, गंगा नदी, दिव्य वनौषधि।
तपस्वी ही योगी बनते हैं। विलास और विकार की गंदगी जब तक बुहारी नहीं जाती, तब तक आत्मा और परमात्मा का योग सधता नहीं है। अतः आत्मसाधकों को प्रथम चरण – तपस्वी बनने का और दूसरा चरण – योगाभ्यास का उठाना होता है।
4. अदृश्य लोक प्रकरण
परोक्ष की क्षमता महत्ता प्रत्यक्ष की तुलना में कहीं अधिक है।
“यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे।”
अध्यात्म विज्ञानी – श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा के त्रिविध क्षेत्रों का अवगाहन करते हैं और देवमानव स्तर के विभूतिवान बनते हैं।
कुछ आत्मायें – भावी कार्य निर्धारण की प्रतीक्षा में विश्राम करती हैं। कुछ जीवन-मुक्त आत्मायें – नियन्ता के विशिष्ट परिकर में विशिष्ट प्रयोजनों के लिए सुरक्षित रहतीं हैं। देवता वर्ग की आत्माएं – सृष्टि के संचालन में अदृश्य रूप से संलग्न रहतीं हैं।
इस भूलोक से सटा एक विपरीत प्रकृति का प्रतिविश्व भी है। उसमें प्रति पदार्थ भरा है। दोनों के समन्वय से सृष्टि संतुलन बना है।
ऋषियों ने शब्द-ब्रह्म, नाद-ब्रह्म की उपासना से अनेकानेक विभूतियां अर्जित की। उसी सामर्थ्य के सहारे आत्मकल्याण व विश्वकल्याण का पथ प्रशस्त किया।
5. यज्ञ विज्ञान वनस्पति विज्ञान प्रकरण
मानव शरीर वनस्पतियों की ही उत्पत्ति है। उसे मांस पिण्ड भी कहा गया है और मांस – आहार का ही रूपांतरण है। आहार को जीवन का प्रमुख साधन कहा गया है।
चरक, सुश्रुत, वागभट्ट, चक्रदत्त, शार्गंधर आदि तत्त्वज्ञानियों ने लंबे समय तक गहरी खोजें की और उन वनौषधियों को खोज निकाला जो शारीरिक मानसिक संतुलन बनाए, toxins को बाहर निकालतीं हैं, पोषक तत्वों की अभिवृद्धि करती हैं।
अग्निहोत्र का उपयोग शारीरिक मानसिक रोग के निवारण व दोनों ही क्षेत्र के अभिवर्धन निमित्त होता है। यज्ञ इसी का ऊंचा स्तर है – सत्प्रवृत्ति संवर्धनाय दुष्प्रवृत्ति उन्मूलनाय आत्मकल्याणाय लोककल्याणाय वातावरण परिष्कराये …।
6. आत्मशोधन प्रकरण
जो भी मिलता है, वह मनुष्य के पुरूषार्थ का प्रतिफल होता है। पुरूषार्थों में प्रमुख आत्मशोधन है।
समग्र संयम (१. इन्द्रिय संयम, २. अर्थ संयम, ३. समय संयम एवं ४. विचार संयम) को साधने वाले सच्चे साधक कहे जा सकते हैं।
ईश्वर दर्शन – का एक ही वास्तविक स्वरूप है, इस संसार को ईश्वर से ओतप्रोत देखना (आत्मवत्सर्वभूतेषु @ ईशावास्यं इदं सर्वं) और विश्व उद्यान को सुविकसित बनाने के लिए पुरूषार्थ कर उसकी निकटता का आनन्द लेना (तेन त्यक्तेन भुंजीथाः)।
‘भक्ति‘ – सेवा साधना।
‘स्वर्ग‘ – उदात्त दृष्टिकोण।
‘त्रिविध भवबन्धन‘ – लोभ, मोह व अहंकार।
‘मुक्ति‘ – त्रिविध भव बंधनों से छुटकारा।
‘साधना‘ – जीवन में सुसंस्कारिता का समावेश।
‘सच्चा भक्त‘ – आत्मशोधन व परमार्थ में निरत व्यक्ति।
7. ऋषि परंपरा पुनर्जीवन प्रकरण
परिस्थिति के अनुरूप निर्धारण एवं परिवर्तन करते रहना बुद्धिमत्ता का चिन्ह है। @ हम परंपराओं की जगह विवेक को महत्व देंगे।
हिमालय क्षेत्र की निस्तेजता का कारण ऋषि परंपरा का अवसान और उसके स्थान पर विडंबना का ठाट बाट के साथ विराजमान हो जाना है।
महान संकल्प करने वाले और महान पुरूषार्थ में जुट पड़ने वाले महान कहलाते हैं। सप्त ऋषियों ने सप्त क्षेत्रों के सप्त संकल्प:-
१. पतंजलि परंपरा – योग विज्ञान को समयानुकूल बनाना।
२. याज्ञवल्क्य यज्ञ विद्या का पुनरूत्थान
३. चरक परंपरा का अभ्युदय
४. आरण्यक परंपरा का पुनर्गठन
५. ज्योतिर्विज्ञान
६. शब्द शक्ति – मंत्र विज्ञान
६. आस्था संकट निवारण
व आदर्श व्यक्तित्व समूह ने गायत्री तीर्थ स्थापित करने का निश्चय किया।
हम सुधरेंगे – युग सुधरेगा। हम बदलेंगे – युग बदलेगा।
जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)
आ॰ किरण चावला दीदी व आ॰ मीना शर्मा दीदी को कक्षा के नये प्रारूप व धारा प्रवाह शिक्षण हेतु आभार।
पदार्थ के विपरीत स्वभाव के ante matter प्रति पदार्थ होते हैं। पदार्थ जगत – प्रत्यक्ष तो प्रतिपदार्थ (प्रतिविश्व) – परोक्ष। दोनों का समन्वय – सृष्टि संतुलन हेतु आवश्यक।
अदृश्य जगत से सत्पात्रों को मदद मिलती है। पात्रता संवर्धन हेतु पुरूषार्थों में ‘आत्मशोधन’ प्रमुख हैं। जिसमें समग्र संयम (इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम व विचार संयम) साधना क्रम में सर्वप्रथम ‘विचार संयम’ से शुरूआत की जाये। ‘इच्छा/ आकांक्षा – विचारणा – क्रिया’ के क्रम से विचार क्रम की महत्ता को समझा जा सकता है।
भगीरथ तप के उपरांत ही ज्ञान-गंगा का अवतरण संभव बन पड़ता है।
हर एक व्यक्तित्व – सप्त क्षेत्रों में रूचि के अनुरूप अपने क्षेत्र का चुनाव कर संकल्पित हो ऋषि परंपरा पुनर्जीवन में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर सकते हैं।
‘यज्ञ‘ अग्निहोत्र तक ही सीमित नहीं प्रत्युत् विस्तृत है। इसके उद्देश्य – “सत्प्रवृत्ति संवर्धनाय दुष्प्रवृत्ति उन्मूलनाय आत्मकल्याणाय लोककल्याणाय वातावरण परिष्कराये” से इसकी महत्ता, सर्वोपयोगिता सार्वभौमिकता को समझा जा सकता है। श्रेष्ठ कर्म – यज्ञ हैं। ज्ञान यज्ञ की ज्योति जलाने – हम घर घर में जायेंगे।
वह पथ क्या पथिक कुशलता क्या, यदि राह पर बिखरे शूल ना हों। नाविक की धैर्य कुशलता क्या, यदि धारायें प्रतिकूल ना हों। अध्यात्म – पुर्वाग्रह व परंपरा से परे सार्वभौम विवेक दृष्टिकोण की बात करता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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