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Pragyopnishad: 6th Part – 4th chapter – Adrishya Loka Prakarnam

Pragyopnishad: 6th Part – 4th chapter – Adrishya Loka Prakarnam

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 24 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् (6 मण्डल) – IV – अदृश्य लोक प्रकरण

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

देवर्षि नारद ने अपने चेतना के सभी परतों का अनावरण किया। वे शरीरी (भूलोक) और अशरीरी (परलोक) में निवास कर रहे आत्माओं तक अपनी पहुंच रखते। वे परिव्राजकों में सर्वश्रेष्ठ और महाप्राज्ञ रहे। साधु शिरोमणि दिव्यज्ञानी सत्राध्यक्ष देवर्षि नारद ने ज्ञान चर्चा को बढ़ाते हुए कहा:-

स्थूल दृष्टि से मात्र वस्तु अथवा व्यक्ति विशेष के स्थूल/ बाह्य स्वरूप को देख सकते हैं, किन्तु उनकी सत्ता, महत्ता व गरिमा को देखने हेतु सुक्ष्म पर्यवेक्षण (तत्त्व दृष्टि) की आवश्यकता होती है।

दृश्य जगत (स्थूल) के पीछे एक अदृश्य जगत (सुक्ष्म व कारण) है। परोक्ष की क्षमता व महत्ता प्रत्यक्ष से कहीं अधिक है।

अविज्ञात का पता लगाने में मनुष्य के पूर्वाभास क्षमता का योगदान। भौतिक क्षेत्र में जिन चकित करने वाली क्षमताओं को अध्यात्म पुरूषार्थ के द्वारा प्राप्त किया जाता है उन्हें ‘सिद्धियां’ कहते हैं।
मनुष्य के सुक्ष्म शरीर में चन्द ग्रन्थियों और विभिन्न चक्रों के रूप में दिव्य शक्तियों के भण्डार भरे पड़े हैं।
यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे‘ – ब्रह्माण्ड की असीम अनन्त शक्तियां बीज रूप में मानव शरीर के ग्रन्थियों, चक्र – उपचक्रों, पंचकोष में भरे परे हैं।
प्रकृति के रहस्यों को जानने और अविज्ञात शक्तियों को हस्तगत करने से मनुष्य को जो वैज्ञानिक सफलताएं हस्तगत हुई हैं उन्हीं को ‘संपदा’ कहते हैं। संपदा का महत्व सभी जानते हैं। शरीर-बल, बुद्धि-बल, शस्त्र-बल व संघ-बल की अपनी महत्ता है व इनसे हम सभी परिचित हैं। इन सबसे बड़ा ‘आत्मबल’ है

ब्राह्मी चेतना का क्षेत्र असीम, अनन्त, अद्भुत एवं अगोचर हैं, उसका अवगाहन महाप्रज्ञा के द्वारा ही संभव है। अध्यात्म विज्ञानी श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा के त्रिविध क्षेत्रों का अवगाहन करते हैं और देवमानव स्तर के विभुतिवान बनते हैं।
श्रद्धा अग्नि समिधा समिधयते। अथर्ववेद में एक मंत्र आता है – “अग्ने समिध महर्षि बृहते जातवेदसे स में श्रद्धाँ मेघाँ च जातवेदः प्रयच्छतु॥” (19/64/15)
अर्थात्− “हे यज्ञाग्ने! तू महान और सब उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने वाला है। अतः मैं मेरे अंदर श्रद्धापूर्वक समिधा प्रदान करता हूँ। तू कृपाकर मुझे श्रद्धा और मेधा प्रदान कर।” प्रज्ञा – इसी प्रकार ऋग्वेद का ऋषि एक स्थान पर कहते हैं – “इमं यज्ञं मेधावन्तं कृधीः” (प्रभो! हमारे इस यज्ञ को मेधावान बना दो) तथा “जातवेदो मेधाँ अस्मासु धेहि (हे यज्ञाग्ने! तू हमारे अन्दर मेधा को धारण करा)।

त्रिपदा गायत्री के तीन चरण – ज्ञान, कर्म व भक्ति हैं। अतः उन्हें वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता कहा जाता है। जिनकी ‘उपासना, साधना व आराधना’ से मानवी गरिमा के अनुरूप ‘चिन्तन, चरित्र व व्यवहार’ बन पड़ता हैं। अध्यात्मिकी में हम इन्हें ‘प्रज्ञा, श्रद्धा व निष्ठा’ के नाम से जाना जाता है। प्रज्ञा – दूरदर्शी विवेकशीलता, श्रद्धा – आदर्शों के प्रति सघन भाव-संवेदना व निष्ठा – उत्कृष्टता की पक्षधर अविचल साहसिकता। इन्हीं के मधुर मिलन – समन्वय से अन्तरंग क्षेत्र का त्रिवेणी संगम बनता हैं। इसी परिवर्तन/ रूपांतरण को आत्मिक कायाकल्प अर्थात् नर-बानर में देवत्व का उदय अवतरण।

प्रत्यक्ष जगत – भूलोक, दृश्यमान और इन्द्रियगम्य। ऐसे ही अन्य अनेक लोक हैं जिन्हें परलोक कहते हैं। जिसमें अशरीरी आत्मायें रहती हैं। ये त्रिलोक के अंदर ही हैं, जो स्थूल दृष्टि से अग्राह्य हैं। जन्म व मरण के मध्यांतर में आत्मायें इन्हीं में से किसी में रहती हैं। स्वर्ग व नरक इन्हीं के विभाजन हैं। सप्त-लोकाः – भुः, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः व सत्यम्। सब यहीं घुले हुए हैं। बस tuning बनाने की देर है।

कुछ आत्माएं भावी कार्य निर्धारण की प्रतीक्षा में विश्राम करतीं रहती हैं। जीवनमुक्त – कुछ नियन्ता के विशिष्ट परिकर में विशिष्ट प्रयोजनों के लिए सुरक्षित रहती हैं।
देवता वर्ग की आत्माएं सृष्टि के सुसंचालन में अदृश्य रूप से संलग्न रहती हैं। सुपात्र की मदद करती हैं।
गुरुदेव कहते हैं – हम अपनी पात्रता की विकास करें। देवतागण पात्रतानुसार मदद करते हैं। सृष्टि व्यवस्था को संतुलित बनाए रखने हेतु वो सुपात्रों की तलाश में रहते हैं @ पाछे पाछे हरी फिरे।

महानता की प्राप्ति के लिए – उदात्त दृष्टिकोण, विशाल हृदय व एकाकी चल पड़ने योग्य साहस और विश्वास चाहिए। महानता पर सम्पन्नता को न्योछावर किया जा सकता है, महानता सर्वश्रेष्ठ है।

सृष्टि के आदि में ‘शब्द’ उत्पन्न हुआ। उससे ताप व प्रकाश की संहति से शक्ति के कितने स्रोत उमड़े और 5 प्राण तथा 5 तत्त्व विनिर्मित हुए। समस्त सृष्टि उन्हीं के समन्वय सहयोग से उत्पन्न हुई है।
प्रकृति का मूल ‘शब्द’ है। स्रष्टा की जब इच्छा शक्ति एक से बहुत बनने के लिए अग्रसर हुई (प्रसवन) तो सर्वप्रथम प्रकटीकरण ओंकार शब्द (ॐ) के ध्वनि प्रवाह में बैखरी रूप में परिलक्षित हुआ। यह शब्द ही नाद ब्रह्म/ शब्द ब्रह्म है। इसकी महत्ता सर्वोपरि है।

वाक् सिद्धि और मन्त्र सिद्धि एक ही बात है। इससे भौतिकी और अध्यात्मिकी दोनों ही क्षेत्रों के अनेकानेक प्रयोजन सिद्ध होते हैं। मंत्र साधना में जितनी महत्ता विधिवत् शब्दोच्चारण की है उससे भी अधिक महत्ता उच्चारण कर्ता के व्यक्तित्व की है। मन्त्र साधना में सीमित अर्थात् आवश्यकतानुसार सोच-समझकर बोलने की साधना करनी होती है। साथ ही साथ आहार संयम नितांत आवश्यक है। संयमी की वाणी रामबाण की तरह लक्ष्यभेदी होती है। यंत्रों से बड़ी शक्ति मंत्रों की मानी गई हैं।
ज्ञान केवल वाचिक ना हों वरन् क्रमशः हमारे चिंतन, चरित्र व व्यवहार में अवतरित हों। त्रिपदा गायत्री साधना @ पंचकोशी साधना @ ज्ञान, कर्म व भक्ति की उपासना, साधना व आराधना से बात बनती हैं।

प्रश्नोत्तरी सेशन

मंत्र सिद्धि की साधना – शब्दोच्चारण तक सीमित नहीं वरन् उच्चारण कर्ता के व्यक्तित्व (चरित्र, चिंतन व व्यवहार) पर निर्भर करता है। वाक् संयम में वाणी सीमित अर्थात् सोच समझ कर बोलें और आहार संयम रखें।

रूद्रो ललाटे @ अग्र मस्तिष्क – Brain के Frontal Lob में हम ध्यान कर जाग्रत विचार शक्ति को प्रखर बना सकते हैं। इस हेतु प्राणाकर्षण प्राणायाम का अभ्यास करें।
अवचेतन मन को Hypothalamus (Limbic System) आदि run करते हैं। इसे उज्जवल बनाने हेतु सूर्यभेदन प्राणायाम का अभ्यास करें। नाड़ीशोधन प्राणायाम से अन्य प्राणायामों हेतु आदर्श स्थिति बनती हैं। अनुलोम-विलोम प्राणायाम से संतुलन में मदद मिलती है।

आत्मतत्त्व मूल परमात्मतत्त्व – सत् चित् आनन्द स्वरूप – एक हैंजीवात्मा अनेक हैं और इनके गुण, कर्म व स्वभाव @ अहंकार – जीव भाव के आधार पर वर्गीकरण किया जा सकता है।

आदर्शों से प्रेम – श्रद्धावान (उपासना), प्रज्ञावान् – आदर्शों का चिंतन, चरित्र व व्यवहार में अवतरण (साधना) व निष्ठावान – application (अराधना)।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

✍️ Writer: Vishnu Anand

 

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