Pragyopnishad Part 6 Chapter 5 Yagya Vigyan Vanaspati Prakaran
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 31 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् (6 मण्डल) – V – यज्ञ विज्ञान वनस्पति विज्ञान प्रकरण
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी.
प्रज्ञोपनिषद् आज तक की सबसे वृहद उपनिषद् – गुरुदेव की अद्भुत अनुपम अनुदान विश्व मानवता को। षष्ठम् मण्डल में अब तक हमने पढ़ा, समझा व जाना:-
१. देवात्म हिमालय की महत्ता,
२. ऋषि प्रकरण
३. हिमाद्रि हृदय प्रकरण
४. अदृश्य लोक प्रकरण
आज हम यज्ञ विज्ञान व वनस्पति विज्ञान के विधा के सुत्र को जानें व समझें:-
नेत्रों के दृश्य के साथ जब विचारणाएँ, भावनाएँ जुड़ जाती हैं तब उसे दिव्य दर्शन कहते हैं। जिसका संक्षिप्त नाम ‘दर्शन’ है।
मनुष्य शरीर भी वनस्पतियों की ही उत्पत्ति है। उसे मांस पिण्ड कहा जाता है और मांस, आहार का ही रूपांतरण है। अतः आहार को जीवन का प्रमुख साधन कहा गया है। जैसा अन्न – वैसा मन अर्थात् शरीर और मन का स्तर आहार के अनुरूप होता है।
‘अनुशासन‘ के व्यतिरेक से हम रोगग्रस्त होते हैं। उन असंतुलन को संतुलित करने हेतु वनौषधियों का आश्रय लेना होता है। चिकित्सा का यह सरल व सही आधार है। चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, चक्रदत्त, शागर्धर आदि ऋषि/ तत्वज्ञानियों ने लंबे समय तक शोध कर वनौषधियों को ढुंढ निकाला।
तत्त्वज्ञानी २४ तत्त्वों के आदर्शों (ज्ञान – विज्ञान) को जानते, समझते व उनसे जुड़ते हैं (योग) व उन आदर्शों को अपने जीवन क्रम में उतारने का क्रम (तप) करते हैं। अध्यात्म स्वयं में समग्र है अर्थात् विद्यां च अविद्यां च। ज्ञान (गायत्री) व विज्ञान (सावित्री) – अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित।
एक बार में एक ही पदार्थ लेना अधिक हितकर होता है। कईयों को मिला देने से उस सम्मिश्रण में सभी के मौलिक गुण बदल जाते हैं, और खाद्य से जो लाभ मिलना है वो मिल नहीं पाता।
वांग्मय संख्या ४० (चिकित्सा उपचार के विविध आयाम) एवं ४१ (जीवेम् शरदः शतम) को सभी परिजनों को अपने पुस्तकालय में रखना चाहिए। इनमें औषधियों के गुण व निरोगी जीवन के सुत्र समाहित हैं जिनके आश्रय से रोग भोग को दूर भगाया जा सकता है।
स्थूल के अपेक्षा सुक्ष्म का सामर्थ्य अधिक है यह सर्वविदित है। वनस्पतियों को वायुभूत करने का एक विशेष विज्ञान है जिसे ‘अग्निहोत्र’ कहते हैं। प्राणियों के मंगलमय कार्य के लिए वनस्पतियों को समिधा रूप में हविष्य बनाया जाता है।
अग्निहोत्र (हवन) में वनस्पतियों को वायुभूत कर नासिका द्वारा श्वसन क्रिया (प्राणायाम) द्वारा मस्तिष्क तथा फेफड़ों में पहुंचाना संभव होता है। ठोस और द्रव पदार्थ का प्रभाव पचने के बाद मिलता है। पाचन क्रिया में शक्ति व्यय होता है और बहुत सारा भाग मल मुत्र के रूप में निकल जाता है, प्रभाव बहुत देर से होता है। जबकि अग्निहोत्र (हवन) प्रक्रिया द्वारा शीघ्र वनस्पतियों को वायुभूत कर मर्म स्थलों तक शीघ्र पहुंचाया जा सकता है।
मस्तिष्क के उपचार के लिए ‘प्राणायाम’ अमोघ है क्योंकि मस्तिष्क में किसी चीज का पहुंचना श्वसन क्रिया से ही संभव बन पड़ता है।
महर्षि याज्ञवल्क्य जी यज्ञ विज्ञान के शोधकर्ता वैज्ञानिक रहें। इसमें १. अग्नि विज्ञान, २. हविष्य/ समिधा के रूप में वनस्पतियों/ औषधियों को वायुभूत करने का विज्ञान व ३. मंत्र विज्ञान – तीनों समाहित हैं।
विभिन्न गन्धों का श्वसन क्रिया के माध्यम से अंदर जाने पर मानव की शारीरिक व मानसिक स्थिति पर विशेष अंतर होता है। अग्निहोत्र का उपयोग शारीरिक-मानसिक रोग निवारण व दोनों ही क्षेत्रों के अभिवर्धन हेतु होता है। ‘यज्ञ’ इसकी उच्चस्तरीय प्रक्रिया है जिसमें वातावरण परिशोधित होता है। पुरोहित व ऋषि नित्य यज्ञ के सान्निध्य में रहते हैं।
वृक्ष वनस्पतियों के अनुदान से ही मनुष्य जीवित रहता है और प्रगतिशील बनता है। प्राणवायु (आक्सीजन), फल-फूल, अनाज, आहार, वर्षा, उर्वरक, ईंधन, औषधि आदि इनके अनुदान वरदान हैं।
वृक्ष वनस्पतियों अभिवर्धन, परिपोषण व संरक्षण के विधा हेतु ऋषिगण शोधरत् रहें। वे स्थान स्थान पर अनगिनत उद्यान लगाते – लगवाते रहे। स्वर्ग का आधार नन्दन वन है। अतः ऋषिगण मनुष्यों को वनस्पतियों के साथ गुंथे रहने की प्रेरणा जनसाधारण को देते हैं।
आ॰ डॉक्टर ममता सक्सेना जी यज्ञौपैथी विज्ञान से पीएचडी हैं। पूर्व में उनकी ग्लोबल आनलाईन कक्षाएं आयोजित की जा चुकी हैं। उन्हें रेफर किया जा सकता है।
प्रश्नोत्तरी सेशन
अग्निहोत्र यज्ञ हैं। यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूं। श्रेष्ठ कर्म यज्ञ हैं। आत्मसंयम भी यज्ञ है। आत्मसमीक्षा – आत्मसुधार – आत्मनिर्माण – आत्मविकास यज्ञ हैं। मानस यज्ञ हैं। साधना, स्वाध्याय, सत्संग, सेवा यज्ञ हैं। आस्था, श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा यज्ञ हैं। समझदारी, ईमानदारी, बहादुरी व जिम्मेदारी यज्ञ हैं। यज्ञ से सृष्टि उत्पन्न हुई है। अतः सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धनाय दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलनाय आत्मकल्याणाय लोककल्याणाय वातावरण परिष्कराये – यज्ञ हैं।
पंचकोश साधना @ पंचाग्नि विद्या द्वारा पंचकुंडीय यज्ञ में पंचाग्नि प्रज्वलित कर हम १९ पंचकोशी क्रियायोगों को हविष्य/ समिधा बनाकर हम यज्ञ कर सकते हैं।
‘यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे‘ – मानव शरीर एक समग्र प्रयोगशाला है जिसके अंदर पंच प्राण – उप-प्राण, ग्रन्थि, चक्र – उपचक्रों, पंचकोशों में अनंत रिद्धि-सिद्धि भरी पड़ी हैं इन्हें जाग्रत कर सभी प्रकार के रोग-शोक को दूर भगाया जा सकता है। पंचकोशी क्रियायोग भी यज्ञीय लाभ देते हैं।
अखण्ड अग्नि अर्थात् आस्था, श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा अखंड रहे @ सोऽहम अस्मि वृत्ति अखंडा। गुरूकुलों के यज्ञ कुंड में सदैव अग्नि प्रज्वलित रहती है जिससे हमेशा अग्निहोत्र किया जा सके।
ऋषि – सुत्रों के अनुसंधानकर्ता/शोधकर्ता, मुनि – उन सुत्रों को जीवन में समावेश कैसे करें उस हेतु शोधरत् रहते हैं, यति व तपस्वी – तपरत्, योगी – आदर्शों से परमात्म से योग, आर्त – रोगग्रस्त, दीन दुखी, अर्थी – धन संचय, चिंतित व भोगी – जो जो शरण तुम्हारी आवें सो सो मनोवांछित फल पावें।
ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन ईश्वर के पसारे इस संसार में कर्तव्यपरायण बनें तो हर एक कर्म यज्ञ बन जाते हैं।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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