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Pragyopnishad – Part – VI – 1st Chapter – Devatm Himalaya

Pragyopnishad – Part – VI – 1st Chapter – Devatm Himalaya

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 03 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् -VI-I – देवात्म हिमालय प्रकरण

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

प्रज्ञोपनिषद्‘ को 6 खण्डों में बांटा गया है। जिनमें 4 खण्डों को प्रज्ञा पुराण के कथानक माध्यम से भी हम सभी को सुबोध बनाया गया है।
प्रथम मण्डल – अध्यात्म विज्ञान व लोक जिज्ञासा प्रकरण @ समस्याएं अनेक समाधान एक ‘अध्यात्म’,
द्वितीय मण्डल – देवमानव प्रकरण @ मनुष्य में देवत्व का अभिवर्धन, संवर्धन व विस्तरण,
तृतीय मण्डल – परिवार निर्माण प्रकरण @ ब्रह्मचर्य से वसुधैव कुटुंबकम् की यात्रा,
चतुर्थ मण्डल – देवसंस्कृति प्रकरण
पंचम मण्डल – आत्मपरिष्कार प्रकरण @ आत्मसाधना,
षष्ठम् मण्डल – देवात्म हिमालय प्रकरण।

गायत्री-जयंती‘ व ‘गंगा-दशहरा’ की तिथि एक ही है। सामान्य जन ‘लोभ, मोह व अहंकार’ त्रिविध बन्धनों से ग्रसित हैं जिसके परिष्करण/ रूपांतरण हेतु ‘तपश्चर्या’ की अनिवार्यता है। तपाने से हर वस्तु में परिपक्वता आती है और प्रखरता बढ़ती है।

प्रश्न – ‘तप’ हम कहां करें?
उत्तर – जैसे हम ‘शिक्षण’ हेतु अच्छे शिक्षण संस्थान में प्रवेश लेते हैं। वैसे हम ‘तप’ के लिए अच्छे स्थान का चुनाव करें।
मुनि उत्तंग जी करबद्ध हो देवर्षि नारद जी (नि रद – नारदः @ अर्थात् जिनके सुझाव रद्द नहीं किए जा सके/ अकाट्य हों।) से देवात्म हिमालय (देवभूमि, ऋषि भूमि, तपोभूमि, सिद्धभूमि, पुण्य भूमि) के रहस्य को अवगत कराने का अनुरोध किया।

नारद जी कहते हैैं – ‘हिमालय‘ में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां प्राचीनकाल में उच्च स्तरीय आत्माओं ने लोक-मंगल हेतु अति महत्वपूर्ण अनुभव अनुसंधान किए हैं। जिनसे मानव समाज लाभान्वित व ऋषि परंपरा धन्य हुई। उन स्थानों में अभी भी वे प्रेरणा-तरंगें ‘शब्द’ की नित्यता के कारण विद्यमान हैं, जिनमें पकड़ सकने की क्षमता/ पात्रता है वे अभी भी संपर्क साधते व विद्यमान विभुतियों से लाभान्वित होते हैं।
ब्रह्मा जी सृष्टि रचना क्रम में जब पृथ्वी बनाई तब सर्वप्रथम ‘हिमालय’ का वह हिस्सा बना जिसे हम ‘उत्तराखण्ड’ के नाम से जानते हैं। ‘सृष्टिकर्ता’ द्वारा सृजित देवताओं को वहां रहने का आदेश दिया गया। जिसे देवलोक/ स्वर्ग कहा गया। ब्रह्मा जी को सृष्टि निर्माण की क्षमता आद्यशक्ति गायत्री के उपासना से प्राप्त हुई। देवताओं को उनके कार्यों में हाथ बंटाना था। देवताओं ने ‘सृजन, पोषण व परिवर्तन’ (त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु व महेश) के त्रिविध उत्तरदायित्वों की पूर्ति हेतु आद्यशक्ति/ महाप्रज्ञा गायत्री की उपासना की और भगवती ने उन्हें ‘देवमाता, वेदमाता, विश्वमाता’ के रूप में ब्रह्मवर्चस युक्त दर्शन दिए।

देवताओं के सुक्ष्म व स्थूल शरीर दोनों सक्षम थे, वे चेतना क्षेत्र की विभुतियों के लिए ‘सुक्ष्म शरीर’ एवं भौतिक उपलब्धियों के लिए ‘स्थूल शरीर’ का उपयोग करते रहे। उसके बाद ‘मनुष्यों’ का सृजन हुआ जिसमें प्रथम संरचना पवित्र ऋषि मुनियों के रूप में हुई। ऋषि – वैज्ञानिक एवं शान्त-दान्त मुनि – निर्धारक प्रचारक।

देवता‘ अंतरिक्ष संव्याप्त दिव्य पदार्थ संपदा से अपने निर्वाह साधन आकर्षित कर लेते @ तन्मात्रा साधना, किंतु ‘ऋषि’ वर्ग की काया (शरीर) स्थूल इन्द्रिय प्रधान थी। जिस वजह से उन्हें अन्न, जल, वायु, वस्त्र, निवास, ईंधन, उपकरण आदि की आवश्यकता थी। ऋषियों को सृष्टि व्यवस्था के लिए ‘उपार्जन, अभिवर्धन व नियंत्रण’ के अनेकानेक उत्तरदायित्व संभालने थे। जिस हेतु ‘सामर्थ्य’ की आवश्यकता थी। ‘सामर्थ्य’ हेतु उन्होंने तप व योग की समन्वित प्रक्रिया अपनाई – ‘योग’ से आत्म विज्ञान और ‘तप’ से पदार्थ विज्ञान के सुत्र हस्तगत हुए। जिसके सहारे ऋद्धि सिद्धि के विपुल भण्डार विश्वकल्याण हेतु उपलब्ध हो सके।

मानव शरीर एक समग्र प्रयोगशाला है @ ‘यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’। ‘पात्रता’ का संवर्धन ही ‘देवाराधन’ है। ऋषि कल्प आत्मायें अपनी मान्यताओं, भावनाओं, आकांक्षाओं और विचारणाओं को उच्च स्तरीय बना कर ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार’ में आदर्शों का समावेश करते हैं। लोग क्या करते हैं इसे ना देखते हैं और ना प्रभावित होते हैं वरन् आदर्शों/ प्रेरणाओं को धारक व प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। इस स्तर के व्यक्तित्व को धारण करना और स्वभाव को निर्मित करना ही योग साधना एवं तपश्चर्या का उद्देश्य है। हमारा ‘मस्तिष्क’ आज्ञा चक्र व इससे उपर के क्षेत्र को हम ‘हिमालय’ से समझ सकते हैं। हमारे साधना का केन्द्र बिन्दु ‘सहस्रार’ हो।

सुनसान के सहचर‘ पुस्तक के माध्यम से गुरूदेव के हिमालय यात्रा व तपश्चर्या क्रम में देवात्म हिमालय के दिव्य-दर्शन।

प्रश्नोत्तरी सेशन

पात्रता‘ का विकास ही ‘देवाराधन’ है। देवगण ‘सत्पात्रों’ को ही विभूतियां (ऋद्धि सिद्धि) उपलब्ध कराते हैं जिससे देवत्व का अवतरण व धरा को स्वर्ग बनाया जा सके @ अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित।

योगस्थ‘ होकर साधना करें @ योगस्थ: कुरू कर्मणि। आत्म साधना का ध्रुव केंद्र हिमालय @ सहस्रार। हमारे साधना का केन्द्र ‘सहस्रार’ हो @ आत्मसत्ता का नियंत्रण पदार्थ सत्ता पर हो।

चक्रों की रिद्धि-सिद्धि में फंसना ही चक्रव्यूह के चक्कर में पड़ना है। चिपकने से गांठ/ ग्रंथि बन जाती है और आगे की प्रगति अर्थात् आत्म-प्रगति रूक जाती है। ‘सदुपयोग’ से बात बनती है ‘दुरूपयोग’ से बात बिगड़ती है। गुरूदेव कहते हैं ऋद्धि सिद्धि को झाड़ते चले अर्थात् ग्रंथि ना बनाएं।

शिखा-बंधन‘ अर्थात् उत्कृष्ट चिंतन से हम नाता जोड़ें और अब उनके उत्तरार्ध ‘शिखावंदन’ अर्थात् हमारे ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार’ में आदर्शों का समावेश हो। हम उत्कृष्ट चिंतन, प्रखर/उज्जवल चरित्र व शालीन व्यवहार के धारक बनें।

गायत्री पंचकोशी साधना‘ – समग्र अध्यात्म विज्ञान को ‘जानने – समझने, रचाने – पचाने व बसाने’ हेतु है जो सर्वथा सर्वानुकूल सर्वोपयोगी है।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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