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Pragyopnishad – VI-III – Himadri Hriday Prakaran

Pragyopnishad – VI-III – Himadri Hriday Prakaran

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 17 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् -VI-III – हिमाद्रि हृदय प्रकरण

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

उपनिषद्‘ विशुद्ध रूप से ब्रह्म विद्या/ आत्म विद्या है। उप सामीप्येन नि-नितरां, प्राम्नुवन्ति परं ब्रह्मा यया विद्यया सा उपनिषद अर्थात् जिस विद्या के द्वारा परब्रह्म का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जाता है उसे ‘उपनिषद्’ कहते हैं।
आत्म-साक्षात्कार/ परमात्म-साक्षात्कार को हम वैज्ञानिक ढंग से निरपेक्ष सत्य, अथाह शांति व अखंडानंद के रूप में समझ सकते हैं।
युग ऋषि परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम जी युग व्यास की भूमिका में प्रज्ञोपनिषद् की रचना कर व्यास परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखा है। ‘प्रज्ञोपनिषद्’ में आज के सारे समस्याओं/ चुनौतियों के समाधान सन्निहित हैं।

ऋषियों की टोली में एटोमिक साइंस के रिसर्चर ऋषि कणाद् जी के प्रश्न व अगुआई कर देवर्षि नारद जी के उत्तर संवाद:-

हिमालय के हृदय ‘उत्तराखंड’ में अन्यत्र की अपेक्षा ‘अध्यात्म’ का प्रभाव अधिक है। शीतप्रधान क्षेत्रों में जीवनी शक्ति अधिक पाई जाती है, निवासी अपेक्षाकृत स्वस्थ व सुन्दर, स्वभाव मृदुल एवं दीर्घायु होते हैं। यहां अध्यात्मिक विभुतियां प्राप्त करने में अपेक्षाकृत सफलता जल्दी मिलती है। लोकसेवा साधना के लिए ‘जनसंपर्क’ आवश्यक तो आत्मसाधना के लिए ‘एकांत’।

हिमालय‘ क्षेत्र में उगने वाली वनस्पतियां रोगों का नाश करने वाली बलवर्धक होती हैं। यहां के नदी निर्झरों में बहने वाला जल मलों के शोधन एवं बल वर्धन में सहायक सिद्ध होता है।

गंगावतरण का वैज्ञानिक विवेचन. संसार में विद्यमान जलों में मरीचि-जल (किरणों के रूप में विद्यमान जल) पूर्ण निर्दोष माना गया है – यही तेज जल के रूप में परिणत होता है। गंगा का विष्णु (सूर्य) चरणों (किरणों) से निकल कर ब्रह्म (ब्रह्माण्ड) कमण्डलु (धुरी या नाभि) @ उत्तरी ध्रुव में जाना कहां गया है। वहां से गंगा अन्तरिक्ष में गिरती हैं अन्तरिक्ष शिवजटा है, क्योंकि शिव जी को व्योमकेश भी कहते हैं। वहां से गंगा हिमालय पर घनीभूत बर्फ बन कर गिरती हैं। तदन्तर जल रूप में गोमुख से बहती दिखती हैं।

निरर्थक भीड़ अकारण विक्षेप करती हैं।

योगाभ्यास‘ में व्यक्ति की चेतना को समष्टिगत ब्रह्म चेतना से जोड़ा जाता है। आकर्षण के लिए जिस चुम्बकत्व व धारण के लिए जिस ‘पात्रता’ की आवश्यकता होती है – उसे तपश्चर्या से प्राप्त किया जाता है।
तप‘ का तात्पर्य है – आत्मशोधन @ तितीक्षा की अग्नि में स्वयं को तपाकर निर्मल व प्रखर बना लेना @ चेतना के उपर चढ़ी हुई पशु प्रवृत्ति को पुरूषार्थ पूर्वक उखाड़ फेंकना @ पंचकोश अनावरण।

कष्ट सहिष्णु जीवनचर्या से मनोबल और शौर्य पराक्रम बढ़ता है। संयमी, पराक्रमी व अनौचित्य से लड़ने वाले शूरवीरों को ‘तपस्वी’ कहते हैं। तप ही संसार का सबसे बड़ा बल है।

तपस्वी ही योगी बनते हैं। विलास और विकार की गंदगी जब तक बुहारी नहीं जाती तब तक आत्मा व परमात्मा का योग नहीं सधता। अध्यात्म साधकों का प्रथम चरण – तपस्वी बनने का और दूसरा चरण – योगाभ्यास करने का उठाना होता है। इस प्रकार दोनों कदम समन्वित रूप से उठाते हुए पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करना संभव होता है।

आ॰ बाबूजी व टीम के द्वारा हिमालय यात्रा के संस्मरण फोटोग्राफ्स के माध्यम से दिखाये गये व अनुभवों को समक्ष रखा गया है।
Difficult terrain, extreme cold climate, high altitude regions साधक की ‘पात्रता’ की जांच @ परीक्षा ले लेती हैं।
एकांत, ऋषियों के सुक्ष्म शरीर में उपस्थिति – डीप मेडीटेशन में सहायक। तन्मात्रा साधना से प्रतिकूल परिस्थितियों में अनुकूलता को बाबूजी ने स्व जीवन चरित्र से चरितार्थ कर सर्वसमक्ष रखा है।
शिवलिंग पर्वत दर्शन, दादागुरु निवास साधना स्थल – सुमेरु पर्वत दिव्य दर्शन

प्रश्नोत्तरी सेशन

साधक‘ ब्रह्ममुहूर्त में जगें, ऊषापान व स्वाध्याय (उपनिषद् अध्ययन, चिंतन-मनन)। एक साधना कक्ष की व्यवस्था सभी को रखनी चाहिए – आत्मसाधना हेतु एकांत आवश्यक। उपनिषद् अध्ययन से ऐसी मनोभूमि create होती है की हर एक कार्य ‘योगस्थः कुरू कर्मणि’ – आत्मभौतिकी सधता है।

आत्म-परमात्म साक्षात्कार को शब्दों के परिसीमन में बांधा नहीं जा सकता। ‘उपासना, साधना व अराधना’, ‘ज्ञान, कर्म व भक्ति’ @ त्रिपदा गायत्री की साधना से निःसंदेह पूर्णता की प्राप्ति होती है – कीजिए और पाइए।

ईश्वरीय कार्य कारण व सुक्ष्म जगत में पूर्व में ही घटित हो जाते हैं। स्थूल जगत में माध्यम बनने का सौभाग्य प्राप्त कर लें अन्यथा ईश्वर अपना कार्य कंकर पत्थरों से भी करवा लेते हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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