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प्राणमय कोश की साधना – 1

प्राणमय कोश की साधना – 1

प्राणशक्ति का महत्व

‘प्राण’ शक्ति एवँ सामर्थ्य का प्रतीक है | मानव शरीर के बीच जो अंतर् पाया जाता है , वह बहुत साधारण है | एक मनुष्य जितना लंबा मोटा , भारी है दूसरा भी उससे थोड़ा-बहुत ही न्यूनाधिक होगा परन्तु मनुष्य की सामाजिक शक्ति के बीच जो ज़मीन आसमान का अंतर् पाया जाता है उसका कारण उसकी आतंरिक शक्ति है |

विद्या , चतुराई, अनुभव , दूरदर्शिता , साहस , लगन , शौर्य , जीवनी शक्ति ओज , पुष्टि , पराक्रम पुरुषार्थ , महानता आदि नामों से इस आंतरिक शक्ति का परिचय मिलता है | आध्यात्मिक भाषा मे इसे प्राण-शक्ति कहते हैं | प्राण नेत्रों मे होकर चमकता है , चेहरे पर बिखरता फिरता है , हाव-भाव मे उसकी तरंगे बहती हैं | प्राण की गंध मे एक ऐसी विलक्षण मोहकता होती है जो दूसरों को विभोर कर देती है | प्राणवान स्त्री -पुरुष मन को ऐसे भाते हैं कि उन्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता |

प्राण वाणी मे घुला रहता है उसे सुन कर सुनने वालों की मानसिक दीवारे हिल जाती हैं | मौत के दाँत उखाड़ने के लिए जान हथेली पर रखकर जब मनुष्य चलता है तो उसके प्राण शक्ति ही ढाल तलवार होती है | चारो ओर निराशाजनक घनघोर अन्धकार छाये होने पर भी प्राण शक्ति आशा की प्रकाश रेखा बनकर चमकती है | बालू मे तेल निकालने की ,मरुभूमि मे उपवन लगाने की , असंभव को संभव बनाने की , राइ को पर्वत करने की सामर्थ्य केवल प्राणवानों मे ही होती है | जिसमे स्वल्प प्राण है उसे जीवित मृतक कहा जाता है | शरीर से हाथी के समान स्थूल होने पर भी उसे पराधीन ,परमुखापेक्षी ही रहना पड़ता है | वह अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों पर थोपकर किसी प्रकार मन को संतोष देता है | उज्जवल भविष्य की आशा के लिए वह अपनी सामर्थ्य पर विश्वास नहीं करता | किसी सबल व्यक्ति की , नेता की , अफसर की , धनी की , सिद्ध पुरुष की , देवी-देवताओं की सहायता ही उसकी आशाओं का केंद्र होती है | ऐसे लोग सदा ही अपने दुर्भाग्य का रोना रोते हैं |

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प्राण द्वारा ही यह श्रद्धा , निष्ठा , दृढ़ता , एकाग्रता और भावना प्राप्त होती है जो भव बंधनों को काटकर आत्मा को परमात्मा से मिलाती है , ‘ मुक्ति को परम पुरुषार्थ माना गया है ‘| संसार के अन्य सुख साधनों को प्राप्त करने के लिए जितने विवेक , प्रयत्न और पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है , मुक्ति के लिए उससे कम नहीं वरण अधिक की ही आवश्यकता है |मुक्ति विजय का उपहार है , जिसे साहसी वीर ही प्राप्त करते हैं | भगवान अपनी ओर ना किसी को बंधन देते हैं ना मुक्ति | दूसरा न कोई स्वर्ग ले जा सकता है ना नर्क मे , हम स्वयं अपनी आंतरिक शक्ति के आधार पर जिस दिशा मे चलें उसी लक्ष्य पर जा पहुचते हैं |

उपनिषद का वचन है कि ” नायमात्मा बलहीनेन लभ्य ” व आत्मा बल्हीनों को प्राप्त नहीं होती | निस्तेज व्यक्ति अपने घरवालों पड़ोसियों , रिश्तेदारों , मित्रों को प्रभावित नहीं कर सकते तो भला परमात्मा पर क्या प्रभाव पड़ेगा | तेजस्वी व्यक्ति ही आत्मा-लाभ कर सकते हैं इसलिए प्राण संचय के लिए योग शास्त्र मे अत्यधिक बल दिया गया है | प्राणायाम की महिमा से सारा आध्यात्म शास्त्र भरा पड़ा है |

जैसे सर्वत्र ईश्वर की महामहिमामयी गायत्री शक्ति व्याप्त है वैसे ही निखिल विश्व मे प्राण का चैतन्य समुद्र भी भरा पड़ा है |जैसा श्रद्धा और साधना से गायत्री शक्ति को खीच कर अपने मे धारण किया जाता है वैसे ही अपने प्राणमय कोश को सतेज और चेतन करके विश्व व्यापी प्राणी से यथेष्ट मात्रा मे प्राण तत्व खीचा जा सकता है | यह भण्डार जितना अधिक होगा उतने ही हम प्राणवान बनेंगे और उसी अनुपात मे सांसारिक एवँ आध्यात्मिक संपत्तियां प्राप्त करने के अधिकारी हो जायेंगे ।

दीर्घ जीवन , उत्तम स्वस्थ्य , चैतन्यता , स्फूर्ति , उत्साह , क्रियाशीलता , कष्ट-सहिष्णुता , बुद्धि की सूक्ष्मता , सुंदरता , मनमोहकता आदि विशेषताएं प्राणशक्ति रुपी फुलझड़ी की छोटी छोटी चिंगारियां हैं |

 

Reference Books:

  1.  गायत्री महाविज्ञान – पूज्य पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
  2. गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उनकी उपलब्धियां – पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य 

 

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