Pragyakunj, Sasaram, BR-821113, India
panchkosh.yoga[At]gmail.com

प्राणमय कोश की साधना – 3

प्राणमय कोश की साधना – 3

प्राणाकर्षण  की सुगम क्रियाएँ – 1

 

प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर साधना के लिए किसी शांतिदायक स्थान पर आसन बिछाकर बैठिये, दोनों हाथो को घुटनो पर रखिये, मेरुदंड सीधा रहे, नेत्र बंद कर लीजिये।

फेफड़ों में भरी हुई हवा बाहर निकाल दीजिये, अब धीरे धीरे नासिका द्वारा साँस लेना आरम्भ कीजिये। जीतनी अधिक मात्रा में भर सके फेफड़ों में हवा भर लीजिये। अब कुछ देर उसे भीतर ही रोके रहिये। इसके पश्चात् साँस को बाहर धीरे धीरे नासिका द्वारा निकालना आरम्भ कीजिये। हवा को जितना अधिक खाली कर सकें कीजिये। अब कुछ देर साँस को बाहर ही रोक दीजिये अर्थात बिना सांस के ही रहिये। इसके बाद पूर्ववत् वायु को खींचना आरम्भ कीजिये ।।यह एक प्राणायाम हुआ ।

साँस निकलने को रेचक, खींचने को पूरक, और रोके रहने को कुम्भक कहते हैं। कुम्भक के दो भेद हैं । सांस को भीतर रोके रहना अंतः कुम्भक और खाली करके बिना साँस रहना बाह्य कुम्भक कहलाता है। रेचक और पूरक में समय बराबर लग्न चाहिए पर कुम्भक में उसका आधा समय ही पर्याप्त है ।

पूरक करते समय भावना करनी चाहिए कि मैं जन शून्य लोक में अकेला बैठा हूँ और मेरे चारो ओर विद्युत् जैसी चैतन्य जीवनी शक्ति का समुद्र लहरे ले रहा है। साँस द्वारा वायु के साथ साथ प्राण शक्ति को मैं अपने अंदर खिंच रहा हूँ।

अंतः कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिए कि उस चैतन्य प्राण शक्ति मैं अपने भीतर भरे हूँ। समस्त नस नाड़ियो में, अंग प्रत्यंग में वह शक्ति स्थिर हो रही है। उसे सोखकर देह का रोम रोम चैतन्य, प्रफुल्लित, सतेज एवं परिपुष्ट हो रहा है।

रेचक करते समय भावना करनी चाहिये कि शरीर में संचित मल, रक्त में मिले विष, मन में धंसे हुए विकार साँस छोड़ने पर वायु के साथ साथ बाहर निकाले जा रहे हैं ।

बाह्य कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिए कि अंदर के दोष साँस के द्वारा बाहर निकलकर भीतर का दरवाजा बंद कर दिया गया है, ताकि वे विकार वापस न लौटने पाएं।

इन भावनाओ के साथ प्राणकर्षण प्राणायाम करना चाहिए। आरम्भ में पञ्च प्राणायाम करे फिर क्रमशः सुविधानुसार बढ़ाते जाएँ।

Pranayama

Pranayama

प्राणाकर्षण की अन्य सुगम क्रियाएँ

कहीं एकांत में जाओ। समतल भूमि पर नरम बिछौना बिछाकर पीठ के बल लेट जाओ, मुंह ऊपर की ओर रहे। पैर कमर छाती सर सब एक सिध में रहें । दोनों हाथ सूर्य चक्र पर (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियां और पेट मिलते हैं ) रहें। मुंह बंद रखो। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दो, मानो वह कोई निर्जीव बस्तु है और उससे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं हैं। कुछ देर शिथिलता की भावना मारने पर शरीर बिलकुल ढीला पड़ जायेगा। अब धीरे धीरे नाक से साँस खींचना आरम्भ करो और दृढ शक्ति के साथ भावना करो कि विश्वव्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं स्वच्छ प्राण साँस के साथ खिंच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तंतुओ में प्रवाहित होता हुआ सूर्य चक्र में इकठ्ठा हो रहा है। इस भावना को कल्पना लोक में इतनी दृढ़ता के साथ उतारो कि प्राण शक्ति की बिजली जैसी किरणें नासिका द्वारा देह में घूमती हुई चित्रवत दिखने लगें तथा उसमे प्राण प्रवाह बहता हुआ आये। भावना की जीतनी अधिकता होगी उतनी ही अधिक मात्रा में तुम प्राण खिंच सकोगे ।

फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो और पांच से दस सेकेण्ड तक उसे रोके रहो। आरम्भ में पांच सेकेण्ड काफी हैं, पश्चात अभ्यास बढ़ने पर दस सेकेण्ड तक रोक सकते हैं । साँस के रोकने के समय अपने अंदर प्रचुर परिमाण में प्राण भरा हुआ है, यह अनुभव करना चाहिए । अब वायु को धीरे धीरे बाहर निकालो । निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि शरीर के  सारे दोष, रोग और विष इनके द्वारा निकाल बाहर किये जा रहे हैं । दस सेकेण्ड तक बिना हवा के रहो और पूर्ववत् प्राणकर्षण प्राणायाम करना आरम्भ कर दो। स्मरण रखो कि प्राणाकर्षण का मूलतत्व साँस खींचने छोड़ने में नहीं वरन् आकर्षण की उस भावना में है, जिसके अनुसार अपने शरीर में प्राण का प्रवेश होता हुआ चित्रवत दिखाई देने लगता है।

इस प्रकार श्वास – प्रश्वास की क्रियाएँ दस मिनट से लेकर धीरे धीरे आधे घंटे तक बढ़ा लेनी चाहिये । श्वास द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य चक्र में जमा होता जा रहा है , इसकी विशेष रूप से भावना करो । मुंह द्वारा सांस छोड़ते समय आकर्षित प्राण को छोड़ने की भी कल्पना करने लगें , तो यह सारि क्रिया व्यर्थ जायेगी और कुछ लाभ न मिलेगा ।

ठीक तरह से प्राणकर्षण करने पर सूर्य चक्र जाग्रत होने लगता है । ऐसा प्रतीत होता है कि पसलियों के जोड़ और आमाशय के स्थान पर जो गड्ढा है , वह सूर्य के सामान एक छोटा सा प्रकाश बिंदु मानव नेत्रों से दिख रहा है। यह गोला आरम्भ में छोटा , थोड़े प्रकाश का और धुंधला मालुम देता है, किन्तु जैसे जैसे अभ्यास बढ़ने लगता है , वैसे वैसे साफ़, स्वच्छ, बड़ा और प्रकाशवान होता है। जिनका अभ्यास बढ़ा- चढ़ा है उन्हें आँख बंद करते ही अपना सूर्य चक्र साक्षात् सूर्य की तरह तेजपूर्ण दिखाई देने आगत है। वह प्रकाशित तत्त्व सचमुच प्राण शक्ति है। इसके शक्ति से कठिन कार्यों में अद्भुत सफलता प्राप्त होगी।

 

अभ्यास पूरा करके उठ बैठो । तुम्हे मालूम पड़ेगा कि रक्त का दौरा तेजी से हो रहा है और सारे शरीर में एक बिजली से सी दौड़ रही है। अभ्यास के उपरान्त कुछ देर शांतिमय स्थान में बैठना चाहिए । अभ्यास से उठकर एक दम किसी काम में जुट जाना, स्नान, भोजन, मैथुन करना निषिद्ध है।

 

ऊपर सर्वसाधारण के उपयोग की श्वास- प्रश्वास क्रियाओं का वर्णन हो चूका है। इसके उपयोग से गायत्री साधकों की आंतरिक दुर्बलता दूर होती है और प्राणवान होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं , प्राणमय कोश की भूमिका को पार करते हुए दस प्राणों को संशोधित करना पड़ता है।

 

Reference Books:

  1.  गायत्री महाविज्ञान – पूज्य पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
  2. गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उनकी उपलब्धियां – पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य 

 

No Comments

Add your comment