Pranayama
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 11 Dec 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: प्राणायाम (प्राणमयकोश)
Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी
योगाचार्य श्री सुरेन्द्र पटेल जी (पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार)
‘आत्मा‘ (चेतना) के 5 आवरण – पंचकोश, चेतनात्मक हैं । अतः ये दिखती नहीं किंतु इनका प्रभाव हमारे व्यक्तित्व (गुण, कर्म, स्वभाव) में परिलक्षित होता है । पंचकोश जितने अंशों में जाग्रत होता है उतने ही अंशों में हम ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार’ के धनी होते हैं। @ प्राणशक्ति से मनुष्य का ऐश्वर्य, पुरूषार्थ, तेज़, ओज एवं यश निश्चय ही बढ़ते हैं ।
5 मुख्य महाप्राण (ओजस्) – १. प्राण, २.अपान, ३. उदान, ४. समान व ५. व्यान एवं 5 सहयोगी लघु प्राण (रेतस) – १. नाग, २. कूर्म, ३. कृकल, ४. देवदत्त व ५. धनंजय – इन 10 से उत्तम प्राणमयकोश बना है । दोनों प्राण एक दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं ।
1. ‘प्राण वायु व नाग‘ का निवास स्थान हृदय (अनाहत) व सहयोगी ‘नाग’ । सामान्यतया प्राण के द्वारा शब्द एवं मस्तिष्क का पोषण होता है । नाग के द्वारा डकार आती है ।
2. ‘अपान व कूर्म‘ मूलाधार के निकटवर्ती’ । कार्य – मल-मूत्र विसर्जन आदि । काम वासना का आधार इस पर निर्भर करता है । कूर्म लघुप्राण सुषुप्त हो तो गर्भाधान संभव नहीं होता ।
3. ‘समान व कृकल‘ निवास स्थान – नाभि (मणिपुर) । कार्य – पाचन, परिपाक व उष्णता का संचार । कृकल से छींक आतीं हैं ।
4. ‘उदान व देवदत्त‘ का निवास स्थान – कण्ठ (विशुद्धि) – श्री समृद्धि का प्रतीक । कार्य – विविध वस्तुएं बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करना । देवदत्त से जंभाई आती हैं । देवदत्त आध्यात्मिकता व सम्पदाओं का स्वामी है ।
5. ‘व्यान व धनंजय‘ का निवास स्थान संपूर्ण शरीर (कारण – आकाश तत्त्व प्रधान) । मुख्य कार्य – रक्त संचार । मुख्यालय – मस्तिष्क । व्यान को कृष्ण व धनंजय को अर्जुन कहते हैं । व्यान के प्रबुद्ध होने से ऋतंभरा प्रज्ञा मिलती है । धनंजय प्राण जीवित अवस्था में शरीर का पोषण व मरणोपरांत देह को सड़ा-गला कर शीघ्र नष्ट करने का प्रबंध करता है ।
उपरोक्त मान्यताएं सर्वांगपूर्ण नहीं हैं । प्राणों के निवास स्थान अर्थात् प्राण वायु भ्रमर । भ्रमर () सदा उपर से चौड़ – चौड़े भाग ‘स्तर’ व नीचे से ढलवां/ नुकीले – भाग ‘बिन्दु’ कहते हैं । प्राण वायु के ऊर्ध्व भाग (स्तर) – महाप्राण व अधोभाग (बिन्दु) – लघुप्राण कहा जाता है ।
‘प्राणमयकोश’ को उज्जवल बनाने हेतु 3 क्रियायोग – प्राणायाम, बंध व मुद्रा ।
Demonstration:-
1. नाड़ी शोधन प्राणायाम
2. सूर्यभेदन प्राणायाम
3. प्राणाकर्षण प्राणायाम
‘प्राण‘ द्वारा वह श्रद्धा, निष्ठा, दृढ़ता, एकाग्रता व भावना प्राप्त होती है, जो भव बन्धनों को काटकर आत्मा को परमात्मा में मिलाती है। मुक्ति – परम पुरुषार्थ ।
जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)
‘प्राणायाम‘ के चुनाव में निज सहजता का ध्यान रखें एवं क्रिया के दौरान विचारों (भाव) के प्रति सजग रहें । ‘क्रिया’ जब आत्मभाव जागरण (योग) में सहायक बनते हैं तो ‘क्रियायोग’ बन जाते हैं ।
स्वयं की त्रिगुणात्मक प्रकृति (प्रवृत्ति) – ‘वात, पित्त व कफ’ को ध्यान में रखते हुए प्राणायाम का चुनाव करें । उद्देश्य – त्रिगुणात्मक संतुलन (साम्यावस्था) अर्थात् त्रिगुणातीत अवस्था (आत्मस्थित) रहना है ।
‘प्राण‘ शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रतीक है । विद्या, चतुराई, अनुभव, दूरदर्शिता, साहस, लगन, शौर्य, जीवनी शक्ति, ओज, पुष्टि, पराक्रम, पुरूषार्थ, महानता आदि आंतरिक शक्तियों को आध्यात्मिक भाषा में ‘प्राणशक्ति’ कहते हैं ।
आनंद (सत्यम् शिवम् सुन्दरं) कण कण में घुला है । अतः इसे व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति विशेष में ना बांधा जाए प्रत्युत् हर हाल मस्त रहने की कला – साधो सहज समाधि भली (आनंदमयकोश जागरण) – सीखी जा सकती है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।
Writer: Vishnu Anand
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