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Sanskriti Sanjeevani Srimad Bhagavad Geeta

Sanskriti Sanjeevani Srimad Bhagavad Geeta

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 14 Aug 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT:  संस्कृति संजीवनी श्रीमद्भागवत गीता

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ अमन कुमार (गुरूग्राम, हरियाणा)

गीता‘ (700 श्लोक) – समस्त धर्मशास्त्रों का निचोड़ है। इसे ज्ञान और विज्ञान का अथाह समुद्र कहा जा सकता है, इसमें सब कुछ है। यह अमृतोपम संजीवनी है जिसमें समस्त समस्याओं के समाधान निहित है। लोग अपनी आवश्यकता और रूचि के अनुसार इसमें सबकुछ ढूंढ सकते हैं और सबकुछ पा सकते हैं।

धृतराष्ट्र उवाच – धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१-१॥ धृतराष्ट्र जी ने कहा- हे संजय! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित मेरे और ऐसे ही  पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?
धर्मक्षेत्र – इस संसार को धर्म-क्षेत्र कहा गया है क्योंकि उसका धर्म ही सार है। धर्म के आधार पर ही संसार की सुख समृद्धि संभव होती है।
कुरुक्षेत्र अर्थात् कर्म-क्षेत्र – कर्तव्यनिष्ठा, पुरूषार्थ, श्रम शीलता एवं उद्योग-परायणता से ही यहां किसी को सफलताओं और विभूतियों के रसास्वादन का अवसर मिलता है।
इसी प्रकार मानव जीवन भी धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र है।

पदार्थ जगत पर आत्मसत्ता का नियंत्रण हो और आत्मसत्ता, परमात्म सत्ता के नियंत्रण/ अनुशासन में हो।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।४-१७।। अर्थात् ‘कर्म’ का तत्त्व भी जानना चाहिए और ‘अकर्म’ का तत्त्व भी जानना चाहिये तथा ‘विकर्म’ का तत्त्व भी जानना चाहिये ; क्योंकि कर्म गति गहन है।
 
अवसाद-ग्रस्त अर्जुन कहते हैं – गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्राते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ।।१-३०।। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ ।।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ४-३८ ॥ अर्थात् इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र (अन्य) कुछ भी नहीं है । कितने ही काल पश्चात् योग द्वारा सम्यक् सिद्ध हुआ मनुष्य उस ज्ञान को अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है । 

मनुष्य का जीवन ‘धर्मक्षेत्र‘ है क्योंकि वह धर्म के लिए है। मनुष्य का जीवन ‘कुरूक्षेत्र‘ भी है, क्योंकि वह कर्म के लिए है। समुद्र मंथन की तरह यहां ‘संघर्ष‘ ही सार है।
यह जीवन का संसार ‘सत’ और ‘तम’ के सम्मिश्रण से बना है। इन दोनों के मिलन से ‘रज’ बनता है।
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत। रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।।१४-१०।। अर्थात् हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! रज व तम को दबाकर सतोगुण, सत व तम को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत व रज को दबाकर तमोगुण बढ़ता है।

अनासक्त कर्मयोग – सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।२-३८।। अर्थात् जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके फिर युद्ध में लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।२-४८।। अर्थात्  हे धनञ्जय ! तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।२-५०।। अर्थात् समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है? इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है।।

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।६-३५।। हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है – यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्ती नन्दन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।

अचिन्तय चिंतन व  तदनुरूप अयोग्य आचरण ही सारे कलह क्लेश कषाय कल्मश का मूल है। यह ‘इच्छा/आकांक्षा – विचारणा – क्रिया‘ के तात्विक विवेचन से स्पष्ट होता है।
चिंतन को परिष्कृत करने हेतु – योगश्चित्त वृत्ति निरोधः।
तप व‌ योग‘ की समन्वित प्रक्रिया –  शरीर (काया) को ‘तप’ की उष्मा से तपाया जाए व शरीरगत चेतना (व्यष्टि) को समष्टिगत चेतना से ‘योग’ किया जाए।  जिसे ‘उपासना, साधना व अराधना’ से आत्मसात किया जा सकता है। हम ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार‘ के धनी बनें।

पंचकोशी क्रियायोग @ अष्टांग योग, स्वाध्याय, सत्संग, ईश्वर प्राणिधान आदि गीता के सार को दैनंदिन जीवन में धारण, संवर्धन और प्रसारण मे सहयोग करते हैं उसे आ॰ भैया ने बोधगम्यता से सुबोध बनाया है।

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

आत्मविस्मृति‘ स्वयं के यथार्थ स्वरूप के प्रति भुलक्कड़ी है। सर्वप्रथम स्वयं को  जानने – समझने हेतु स्वाध्याय – सत्संग व इसे digest & apply करने के लिए ‘तप व योग‘ की समन्वित प्रक्रिया अपनाई जाए तो आत्मविस्मृति के बादल (40 चोर – 10 शूल + 6 विकार + 6 उर्मि + 6 भाव + 6 भ्रम + 5 कोश + 1 द्वैत ) छंटते चले जाते हैं।

ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन कर्तव्यपरायणता (मनुष्य में देवत्व का जागरण व धरती पर स्वर्ग का अवतरण @ अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित) – अनासक्त कर्मयोग है। ज्ञान व भक्ति-युक्त ‘कर्म’ – आत्मा को परमात्मा से एकाकार करने वाला ‘योग’ बन सकता है।

मनोमय कोश के परिष्कृत होने तक सांसारिक गतिविधियां मानसिक उद्वेग @ उद्विगनता का कारण बनती हैं।

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसमें श्रद्धा – निष्ठा @ विश्वास का होना नितांत आवश्यक है।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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