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Sanskriti Sanjeevani Srimad Bhagwad Geeta – 1

Sanskriti Sanjeevani Srimad Bhagwad Geeta – 1

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 13 Mar 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: संस्कृति संजीवनी श्रीमद्भागवत गीता

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ सुभाष चंद्र जी (गाजियाबाद, उ॰ प्र॰)

आज का विषय संस्कृति संजीवनी श्रीमद्भागवत गीता। ‘कृ‘ धातु का अर्थ है करना और ‘कृति‘ का रचना। जब हमारे कृति विकार युक्त होती है तो ‘विकृति’ और यही कृति जब ईशा अनुशासन में समग्र समर्पण संग हो तो ‘संस्कृति’ बन जाती है।
संस्कृति ही बाह्य आचरण में ‘सभ्यता’ कही जाती हैं।  ‘चरित्र, चिंतन व व्यवहार’ में आदर्शों का समावेश ही हमें सुसंस्कृत व सुसभ्य बनाता है।

गायत्री उपनिषद में मौद्गल्य ऋषि मैत्रेय जी को कहते हैं – ‘कर्म’ ही वह ‘धी’ तत्त्व है जिसके द्वारा सबको प्रेरणा देता हुआ है ‘सविता’ विचरण करता है।

व्यक्ति‘ के ‘सद्ज्ञान’ ही ‘सत्कर्म’ में और अंततः ‘सद्भाव’ में परिलक्षित होते हैं। तीनों भिन्न-भिन्न नहीं प्रत्युत् एक के ही रूपांतरित स्वरूप हैं।
जिसे साधना जगत में ब्राह्मी गायत्री, तरूणी सावित्री व परिपक्व सरस्वती साधना से आत्मसात किया जा सकता है।

वेदों‘ की आत्मा उपनिषद् व उपनिषदों की आत्मा ‘गीता’।
संजय रूपी ‘विवेक’ से धृतराष्ट्र रूपी अन्धा ‘अज्ञान’ पूछता है “मेरे पुत्र कौरवों (कुकर्मों, कुविचारों) और पाण्डवों (पुण्य तत्त्वों) ने युद्ध की इच्छा से एकत्रित होकर क्या किया? सो बताओ!”
गीता में लड़ाई झगड़े का वर्णन बहुत कम है वरन् समग्र अध्यात्म का वर्णन है। अर्थात् गीता का उद्देश्य मानव जीवन की आंतरिक उलझनों को सुलझाना है।

गीता‘ – सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः৷৷18.66৷৷ भावार्थ: संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।।

भगवान ने अर्जुन को जो कठोर शब्द कहे हैं वे उनके लिए हैं जो जीवन संग्राम से डरते हैं, बचना चाहते हैं। जीवन अर्थात् जीव जगत संघर्ष मय है।  संग्राम जिन्दगी है:-
संग्राम जिन्दगी है लड़ना उसे पड़ेगा। 
जो लड़ नहीं सकेगा, आगे नहीं बढ़ेगा।। 
इतिहास कुछ नहीं है, संघर्ष की कहानी, 
राणा, शिवा, भगतसिंह और झाँसी वाली रानी। 
कोई भी कायरों का इतिहास क्यों पढ़ेगा, 
जो लड़ नहीं सकेगा, आगे नहीं बढ़ेगा।।1।। 
आओ लड़े स्वयं के कलुषों से, कलमषों से, भोगों से, वासना से, रोगों के राक्षसों से। 
कुन्दन वही बनेगा जो आग में तपेगा, 
जो लड़ नहीं सकेगा, आगे नहीं बढ़ेगा।।2।। 
घेरा समाज को है, कुण्ठा कुरीतियों ने, 
व्यसनों ने, रूढ़ियों ने, निर्मम अनीतियों ने।
इन सब चुनौतियों से है कौन जो लड़ेगा, 
जो लड़ नहीं सकेगा, आगे नहीं बढ़ेगा।।3।। 
चिन्तन चरित्र में अब, विकृति बढ़ी हुई है, 
चहुँ ओर कौरवों की, सेना खड़ी हुई है। 
क्या पार्थ इन क्षणों भी, व्यामोह में फंसेंगा, 
जो लड़ नहीं सकेगा, आगे नहीं बढ़ेगा।।4।। 

धर्मक्षेत्रे – कर्मक्षेत्रे – कुरूक्षेत्रे‘ के सभी पात्र रूपक अलंकार में हैं इसके स्थूल/ बाह्य अर्थों में ना उलझ कर इसके सुक्ष्म अर्थों @ भावों अर्थात् तत्त्वज्ञान को हृदयंगम करना साधकों का उद्देश्य होना चाहिए।
आत्मसुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है। आत्मपरिष्कार = आत्मसमीक्षा + आत्मसुधार + आत्मनिर्माण + आत्मविकास। ‘आत्मा’ को रथी, ‘शरीर’ को रथ जान। ‘मन’ को लगाम, ‘बुद्धि’ को सारथी जान। ‘इन्द्रियों’ को अश्व (पशु) व उनके ‘विषय’ (तन्मात्रा) को चारागाह जान।

अर्जुन‘ रूपी चेतना जब मोह ग्रस्त होकर संघर्ष से भगता है तो परमात्मा रूपी ऋतंभरा प्रज्ञा विवेक उसे जगाने के लिए अर्थात् जागरण हेतु नपुंसक जैसे कठोर शब्दों का प्रयोग करते हैं।
इन्द्रियों से उसके विषय (तन्मात्रा) श्रेष्ठ हैं। विषयों से ‘मन’ श्रेष्ठ है। मन से बुद्धि ‘श्रेष्ठ’ है। बुद्धि से महत तत्त्व श्रेष्ठ है। अतः विषयों को मन में, मन को बुद्धि में और बुद्धि को महत तत्त्व में लीन करें।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
अर्थात् ‘आत्मा’ को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
‘कर्म’ में हमारा अधिकार है अर्थात् कर्म के चुनाव, कार्यशैली व श्रम में हमारा अधिकार है।
स्मरण रहे हम कर्म के संपादन के माध्यम मात्र हैं ना की सूत्रधार।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।

निर्वाणषट्कम्
मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥१॥
न च प्राणसंज्ञो न च पञ्चवायुः
न च सप्तधातुर्न च पञ्चकोशः।
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥२॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥३॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदो न यज्ञः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥४॥
न मे मृत्युशङ्का न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥५॥
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥

प्रश्नोत्तरी सेशन

ज्ञान‘ (theory) को जब ‘कर्म‘ (practical) में परिणत किया जाता है तब ‘अनुभव‘ (विवेक) विकसित होता है और अनुभूत ज्ञान से आगे का मार्ग प्रशस्त होता जाता है।

प्रश्नोत्तरी सेशन विद् श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

भगवान मुख से निःसृत काव्यशैली में अध्यात्मिक सुत्रों का संग्रह ‘गीता’। गायत्री = गय – प्राण + त्री – त्राण करना।

भीष्म‘ की सद्गति का कारण अंतःकरण में कृष्ण का वास होना था। किंतु उनकी बाह्य दुर्गति का कारण संकल्प/ ‘मान्यताओं’ से आबद्ध होना था।

द्वैत‘ का अर्थ है – भिन्न-भिन्न दर्शन (difference)। ‘अद्वैत‘ का अर्थ है – अभिन्न (non difference/ integral)।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand.

 

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