Scientific Aspects of Spiritual Sex Element – 3
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 20 Dec 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
Please refer to the video uploaded on youtube. https://youtu.be/_rqgvV2HqKs
sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: अखंड आनंद की प्राप्ति
Broadcasting. आ॰ अंकुर जी
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘वांग्मय 15‘ – Chapter 4 – अध्यात्म काम विज्ञान (अखंड आनंद की प्राप्ति) है। ‘दशावतार’ प्रकरण में कल्कि अवतार निष्कलंक हैं। निष्कलंक व्यक्ति विशेष नहीं वरन् ज्ञान परक होता है। ज्ञान/प्राण की विशुद्धतम् अवस्था ‘प्रज्ञा’ हैं।
आज आस्था संकट अर्थात् अनास्था का दौड़ है। आत्म-विस्मृति/ भूलक्कड़ी अर्थात् हम सत् चित् आनन्द स्वरूप आत्मा/ ‘आत्मस्वरुप’ को भूलते हैं जिस वजह से आस्था संकट उत्पन्न होती है। आत्मा को अहंकार अर्थात् हम एक आकार/ सीमित दायरे में बांधते हैं जिसकी वजह से भुलक्कड़ी/ विक्षोभ उत्पन्न होती है।
चेतना/ प्राण/ वीर्य जन्मावस्था में ललाट में होती है। फिर ‘कंठ’ (विशुद्धि चक्र/ तत्त्व – आकाश) में आती है तो तन्मात्रा ‘शब्द’ हमें प्रभावित (सुख-दुख) करते हैं यहीं से भुलक्कड़ी का क्रम शुरू होता है। उसके नीचे ‘हृदय’ (अनाहत चक्र, तत्त्व – वायु) में तन्मात्रा ‘स्पर्श’ – ‘नाभि’ (मणिपूर चक्र, तत्त्व – अग्नि) तन्मात्रा ‘रूप’ – ‘पेड़ू’ (स्वाधिष्ठान, तत्व – जल) तन्मात्रा ‘रस’ एवं अंततः मूलाधार चक्र (तत्व – पृथ्वी) तन्मात्रा ‘गंध’ में स्थिति होती हैं। चेतना/ प्राण का सबसे condensed form (स्थूल रूप) ‘वीर्य’ है।
‘शिशु‘ (Infant) के जन्म के समय अर्थात् परमहंस अवस्था में ‘वीर्य’ – ललाट में, 6 से 12 वर्ष की उम्र में वीर्य शक्ति – भौंहों से उतरकर ‘कंठ’ में (स्त्री में आवाज मधुर व पुरुष की आवाज भारी) , 12 से 16 वर्ष की उम्र में वीर्य ‘मेरूदंड’ से होता हुआ ‘उपस्थ’ की ओर बढ़ता है। 24 वर्ष की आयु में यह वीर्य मूलाधार चक्र में से सारे शरीर में ‘अंगिरस’ अर्थात् समस्त अंगों के रस की तरह इस प्रकार व्याप्त हो जाता है जैसे दूध में घी, तिल में तेल, गन्ने में मिठास व काष्ठ तत्त्व में अग्नि तत्त्व सर्वत्र विद्यमान रहता है। 25 वर्ष तक संयमित आहार-विहार संग ब्रह्मचर्य अखंडित हो तो युवावस्था का ओज तेज देखते ही बनता है।
‘योगविद्या‘ द्वारा मूलाधार चक्र में आये स्थूल वीर्य को उर्ध्वरेता बनाकर पुनः ‘ललाट’ में ले जाते हैं। ‘शक्ति’ बीज का मस्तिष्क में पहुंच जाना और सहस्रार चक्र की अनुभूति कर लेना ही ‘ब्रह्मनिर्वाण’ है – काम बीज का रूपांतरण ज्ञान बीज में।
कुण्डलिनी जागरण साधना में वीर्य/ प्राण/ चेतना को उर्ध्वगामी बनाया जाता है। सूर्य/ नाभि/ मणिपूर चक्र को प्राणमयकोश क्रियायोग से जाग्रत कर अर्थात् अग्नि तत्त्व की ऊष्मा से ‘वीर्य’ के सुक्ष्मतर रूप ‘प्राण’ को उर्ध्वगामी बनाया जाता है। स्वामी रामतीर्थ व योगी अरविंद जी कहते हैं “जैसे दीपक का तेल बाती के माध्यम से उपर चढ़ कर प्रकाश रूप होता है वैसे ही ब्रह्मचारी के अंदर का ‘वीर्य’ सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ‘प्राण’ बनकर उपर चढ़ता हुआ ‘ज्ञान-दीप्ति’ में रूपांतरित होती है।
चेतना/आत्मा के 5 आवरण – पंचकोश जिन्हें गायत्री के 5 मुख भी कहते हैं इनमें अनंत ‘ऋद्धि-सिद्धि’ भरी पड़ी हैं। इन्हें भेद कर/ अनावरण/ परिष्कृत/ परिमार्जित अर्थात् भेद दृष्टिकोण का रूपांतरण ‘अभेद दर्शनं ज्ञानं’ में करता है।
‘गीता‘ में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं विषयानंद में आसक्त मनुष्य को इन्द्रिय व उनके विषय में रमना सुखकारी प्रतीत होता है किंतु ये दुःख के निमित्त हैं अतः बुद्धिमान मनुष्य विषयों में आसक्त नहीं होते हैं।
‘तन्मात्रा‘ सुख-दुखात्मक हैं। अतः तन्मात्रा साधना से हमें राग-द्वेष से परे ‘साक्षी’ भाव में जाने की सिद्धि मिलती हैं। 10 इन्द्रियां व इनका राजा ‘मन’ करबद्ध आत्म-प्रगति में सहायक बन जाती हैं।
‘संयम‘ मनुष्य की ‘शोभा’ ही नहीं वरन् ‘शक्ति’ भी है। Excess भोग – ओजस् (शारीरिक बल), तेजस् (मनोबल) व वर्चस् (आत्मबल) का ह्रास करता है। प्रफुल्लता, मानसिक उन्मुक्तता, साहस, निर्भयता, वाक् विनोद अपने आप में उतना आनंद समाहित रखते हैं जितना की संभोग में। ‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मुमुपाध्रत’ – ब्रह्मचर्य से मनुष्य बलवान व शक्तिवान ही नहीं बनता, वरन् मृत्यु को जीत लेता है। ‘संसार’ से भागे नहीं वरन् ‘कर्तव्यवान्’ रहते हुए कमल के पत्ते के भांति ‘निर्लिप्त’ रहें। ‘संभोग से समाधि’ का तात्पर्य सदैव रतिक्रिया में प्रवृत्त रहना नहीं वरन् ‘संभोग – सम् + भोग’ हर अवस्था (सुख-दुख, अनुकूल-प्रतिकूल, राग-द्वेष) में सम/साक्षी भाव में ईश्वरीय तत्त्व परम चेतना से सायुज्यता बनायें। मूलाधार व सहस्रार का मिलन, शक्ति व शिव का मिलन में अखंडानंद का मूल है।
प्रश्नोत्तरी सेशन
सभी अक्षर/ शब्द/ वाक्य ‘ॐ‘ के fluctuations हैं। अलग अलग व्यक्तित्व के स्वामी radio के भांति जिन आयामों में हैं अपनी frequency में receive व transmit करते हैं। अतः ऋषि चिंतन में सम/ साक्षी भाव में ‘तत्त्वदर्शी’/ ‘समदर्शी’ बनने की कला ‘शब्द – तन्मात्रा’ व ‘त्राटक’ साधना से विकसित की जा सकती है।
‘शक्ति‘/ प्राण के उर्ध्वगमन से हमारे विचार व कार्य क्रमशः विचार – आत्मीयता प्रसार व कार्य – लोकहितार्थ का माध्यम बन जाते हैं। ‘संयम’ में सर्वप्रथम शक्ति के ‘अपव्यय’ (misuse) को रोक कर ‘संचय’ फिर उसके ‘सदुपयोग’ (good use) करते हैं। यह उभयपक्षीय प्रक्रिया है। इसमें केवल रोकने से बात नहीं बनती वरन् सदुपयोग का भी क्रम साथ जोड़ना होता है।
आत्म-विस्मृति/ भुलक्कड़ी विषयों के उपयोग/ प्रयोग से नहीं वरन् उसमें आसक्त होने से होती हैं। ‘साधन’ – ‘साध्य’ से सायुज्यता में सहायक बनाने की कला विकसित करने से बात बन जाती हैं – ‘ईशावास्य इदं सर्वं’/ ‘गायत्री वा इदं सर्वं’। ‘साधन’ को ‘साध्य’ समझ लेने से आसक्ति/ चिपकाव बन जाती हैं।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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