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Shabd Brahm – Naad Brahm

Shabd Brahm – Naad Brahm

PANCHKOSH SADHN –  Online Global Class –  29 Aug 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT:  शब्द ब्रह्म व नाद ब्रह्म

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

गायत्री का पाँचवां मुख आनन्दमय कोश है। इस आवरण में पहुंचने पर साधक की विषयानंद @ खण्डानंद से निवृत्ति अर्थात् आत्मिक आनन्द की स्थिति होती है। आत्मिक परमार्थों की साधना में मनोयोग पूर्वक संलग्न होने के कारण सांसारिक आवश्यकताएं बहुत सीमित रह जाती हैं।
आनन्दमय कोश में पहुंचा जीव अपने दृष्टिकोण में दार्शनिकता, तात्त्विकता, वास्तविकता, सुक्ष्म दर्शिता को प्रधानता देता है।  वह सांसारिक विषयों की अपूर्णता व संसार की परिवर्तनशीलता को समझ जाता है। अतः वह सांसारिक परिस्थितियों में स्वयं को उद्वेलित नहीं करता प्रत्युत् आत्मस्थिति में दृढ़ता से स्थान बनाकर संतोष व शांति @ peace & bliss का अनुभव करता है।
गीताकार कहते हैं – स्थितप्रज्ञ मनुष्य अपनी आत्मस्थिति में रमण करता है। सुख-दुख में समान रहता है, न प्रिय से राग करता है, ना अप्रिय से द्वेष करता है। इन्द्रियों को इन्द्रिय तक ही सीमित रहने देता है, उनका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता, कछुआ जैसे अपने अंगों को समेट कर अपने भीतर कर लेता है, वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अन्तः भूमिका में ही समेट लेता है, जिसकी मानसिक स्थिति ऐसी होती है, उसे योगी, ब्रह्मभूत, जीवन-मुक्त या समाधिस्थ कहते हैं

लाभ (benifits) :-
आत्मसाक्षात्कार (self actualization)
ईश्वर दर्शन (God realisation)
अखण्ड आनंद (limitless happiness)

उपाय‌ (practice) :-
१. नाद साधना
२. बिन्दु साधना
३. कला साधना
४. तुरीय स्थिति

सरस्वती रहस्योपनिषद् – वाणी के 4 चरण हैं – 1. परा, 2. पश्यन्ती, 3. मध्यमा व 4. वैखरी। इनमें से प्रथम तीन अन्तःकरण रूपी गुफा में छिपी रहती हैं। वैखरी ही बोलने में प्रयोग की जाती है॥23॥

योग कुण्डल्युपनिषद्  –  परायामंकुरी भूय पश्यन्त्याँ द्विदलीकृता॥3-18॥ मध्यमायाँ मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता। पूर्वं यथोदिता या वाग्विलोमेनास्तगा भवेत्॥3-19॥ वाणी का उद्भव – ‘परा’ से होता है। ‘पश्यन्ती’ में विकसित होकर उसकी दो शाखाएं फूटती हैं । ‘मध्यमा’ में वह पुष्पों से लद जाती है और ‘वैखरी’ में वह फलित होती है। जिस क्रम से उसका विकास होता है उसके उलटे क्रम से वह लय भी हो जाती है।

वाक् शक्ति की अधिष्ठात्री गायत्री – गायत्री महामंत्र की ‘उपासना, साधना व अराधना’ से शब्द-ब्रह्म को पाया जा सकता है। मन्त्र साधना में ‘जप’ का प्रमुख स्थान है।  मंत्र जप का अर्थ – जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः। तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः॥ (अग्नि पुराण) अर्थात् ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने वाली निष्पाप और जीवन मुक्त बनाने वाली साधना ‘जप’ कहते हैं।
बैखरी – जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण की बैखरी वाणी कहते हैं। यह केवल जानकारी के आदान-प्रदान से प्रयुक्त होती है।
मध्यमा – भावों के प्रत्यावर्तन में मध्यमा वाणी काम आती है। इसे भाव सम्पन्न व्यक्ति ही बोलते हैं। जीभ और कान के माध्यम से नहीं वरन् हृदय से हृदय तक यह प्रवाह चलता है। भावनाशील व्यक्ति ही दूसरों की भावनायें उभार सकता है। 
यह बैखरी और मध्यमा वाणी मनुष्यों के बीच विचारों एवं भावों के बीज आदान-प्रदान का काम करती है।
परा – पिण्ड में और पश्यन्ति – ब्रह्माण्ड क्षेत्र में काम करती है। आत्म-निर्माण का-अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को उभारने का काम ‘परा’ करती है। ईश्वर से – देव शक्तियों से – समस्त विश्व से – लोक-लोकान्तरों से संबंध संपर्क बनाने में ‘पश्यन्ति’ का प्रयोग किया जाता है। अस्तु इन परा और पश्यन्ति वाणियों को दिव्य वाणी एवं देव वाणी कहा गया है।

मननात्सर्वं भवानाँ गरुणात्संसार सागरात्। मन्त्र रुपा हि तटछक्तिर्मं तनत्राण रुपिणी॥ (प्रपंच सारतंत्र) अर्थात् – मन, मनन और भावनायें समस्त जगत का त्राण करने वाली शक्ति का नाम मन्त्र है। वह मूल में एक होते हुए भी प्रयोग में अनेक हो जाती है।

मंत्र – साधना को सफल बनाने में चार तथ्यों का समावेश:-
1. शब्द शक्ति
2. मानसिक एकाग्रता
3. चारित्रिक श्रेष्ठता व
4. अटूट श्रद्धा।

जिज्ञासा समाधान

मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं वरन् उनका निर्माता, नियंत्रणकर्ता व स्वामी है।

अन्तः प्रस्फुटित ज्ञान @ आत्मप्रकाश तक पहुंच बनने के बाद बाह्य जानकारी की बैशाखियां छूट जाती हैं।

सहज योग – सिद्धान्तमय जीवन‌, कर्त्तव्य पूर्ण कार्यक्रम। सिद्धांत में आत्मीयता का समावेश ग्रन्थि नहीं बनने देते। मांत्रिकी व यांत्रिकी का अद्भुत समन्वय – अध्यात्म।

मन निरंतर विचारों का वाष्पीकरण करते रहते हैं। नकारात्मक विचार मनोमय कोश को विकृत कर देती हैं। विधेयात्मक मनन – चिंतन का विकास मनोमय कोश साधना अंतर्गत है।
भावनाओं का उद्गम स्थान हृदय है – इसकी साधना विज्ञानमय कोश अंतर्गत है।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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