Shvetashvatara Upanishad – 1
PANCHKOSH SADHNA – Navratri Sadhna Special Online Global Class – 07 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: श्वेताश्वतरोपनिषद्-1
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ नितिन आहूजा जी
टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)
ब्रह्मवादी कहते हैं – जगत का कारण, ब्रह्म कौन है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं । किसके द्वारा जीवित हैं? कहाँ स्थित हैं? हे ब्रह्मविद! किसके अधीन रहकर सुख-दुःख में व्यवस्था का अनुवर्तन करते हैं? ॥१॥
काल, स्वभाव, नियति, आकस्मिक घटना, भूत और पुरुष कारण हैं, इस पर विचार करना चाहिए। इनका संयोग भी कारण नही हो सकता, ये सभी आत्मा के अधीन हैं और आत्मा भी सुख-दुःख के हेतु के अधीन है॥२॥
पंचकोश आवरण में आसक्त व्यक्तित्व सुख-दुख आदि का अनुभव करता है। तन्मात्रा से आसक्ति राग – द्वेष आदि का कारण बनती हैं।
उन्होंने ध्यान-योग का अनुवर्तन कर अपने गुणों से ढकी हुई देवात्मशक्ति का साक्षात्कार किया। जो अकेले ही उन काल से लेकर आत्मा तक सम्पूर्ण कारणों पर शासन करता है॥३॥
आनंदमयकोश की बिन्दु साधना।
वह एक नेमि वाला, तीन घेरों वाला, सोलह सिरों वाला, पचास अरों वाला, बीस प्रति-अरों वाला, छः अष्टकों वाला, विश्वरूप एक ही पाश से युक्त, मार्ग के तीन भेदवाला, दो निमित्त का एक ही मोहरूपी कारण॥४॥
मूल प्रकृति – 1, त्रिगुणात्मक प्रकृति – 3, सृष्टि निर्माण क्रम में आवश्यक्तानुसार क्रमशः तत्त्व विनिर्मित होते चले गये (आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है) – 16, षट् चक्र अष्टधा प्रकृति (कमल) – 8, प्राणन अपानन की क्रिया – 2 निमित्त।
पाँच स्रोतों से आने वाले जल से युक्त जो पाँच योनियों से उत्पन्न, उग्र और वक्र है, पाँच प्राण जिसकी तरंगें हैं, पाँच प्रकार के ज्ञान के आदिकारण, पाँच भँवरों से युक्त जो पाँच प्रकार के दुःखरूप ओघवेग वाली हैं और पाँच पर्वों से युक्त उस पचास भेदरूप को हम जानते हैं॥५॥
5 प्राण व सह उपप्राण से उत्पन्न भँवर …।
जीवात्मा स्वयं को और प्रेरित करने वाले को अलग-अलग मानकर इस सर्व-आजीवक, सर्व-आश्रय और महान् ब्रह्म चक्र में घूमता रहता है, फिर उस अभिन्न-रूप से स्वीकृत होकर, अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है॥६॥
साक्षी चैतन्य भाव।
यह वेद वर्णित परम् ब्रह्म ही उन तीनों लोकों की सुप्रतिष्ठा है और अविनाशी है। ब्रह्मवेत्ता इस अन्तः स्थित को जानकर, उसमे ही तत्पर हो, ब्रह्म में लीन हो जाते हैं, योनि से मुक्त हो जाते हैं॥७॥
अद्वैत @ जीवन-मुक्त।
क्षर-अक्षर से संयुक्त और व्यक्त-अव्यक्तरूप इस विश्व का ईश्वर ही भरण-पोषण करता है। भोक्तृभाव के कारण बँधा हुआ वह अनीश आत्मा उस परम् देव को जानकर समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है॥८॥
योगस्थः कुरू कर्माणि ….। @ अनासक्त प्रेम @ निष्काम कर्मयोग।
अज्ञ और सर्वज्ञ, असमर्थ और सर्वसमर्थ ये दोनों ही अजन्मा हैं और एक भोक्ता के भोग-अर्थों से युक्त अजन्मा प्रकृति है। विश्वरूप वह आत्मा तो अनन्त और अकर्ता ही है। जब इन तीनों को ही ब्रह्मरूप अनुभव कर लेता है॥९॥
प्रकृति क्षर है और अमृत एवं अक्षर वह हर है। क्षर और आत्मा दोनों का शासक वह एक ही देव है। उसके चिन्तन, मनोयोग, और तत्व-भावना से अन्त में विश्वरूप माया की निवृत्ति हो जाती है॥१०॥
ईश्वर अंश जीव अविनाशी … @ न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥2.20।।
उस परम् देव का ज्ञान होने पर समस्त बन्धनों का नाश हो जाता है क्लेशों के क्षीण हो जाने से जन्म-मृत्यु का अभाव हो जाता है। उसका ध्यान करने से शरीर को भेदकर, विश्व-ऐश्वर्यरूप तृतीय अवस्था करके, आप्तकाम हो, कैवल्य को प्राप्त हो जाता है॥११॥
आत्मस्थित यह ही जानने योग्य है, इससे बढ़कर जानने योग्य और कुछ नहीं है। भोक्ता, भोग्य और प्रेरक को समस्तरूप से जानना चाहिए। यही त्रिविध रूप से कहा हुआ वह ब्रह्म है॥१२॥
आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः। आत्मा वाऽरे ध्यातव्यः। आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः। आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः।
जिस प्रकार योनिगत अग्नि का न मूर्तरूप दिखाई देता है और न लिंग का ही नाश होता है और फिर चेष्टा करने पर ईंधनरूप से योनि में ग्रहण किया जा सकता है। उसी प्रकार वे दोनों शरीर में प्रणव के द्वारा॥१३॥
अपनी देह को अरणि बनाकर और प्रणव को उत्तर अरणि करके, ध्यानरूप मंथन के अभ्यास से उस छिपे हुए परम् देव का दर्शन करे॥१४॥
कर्म को ज्ञान/विवेक/प्रज्ञा का अनुगामी बनावें। चेतना के परिष्कृत होने से कर्म – साइड इफेक्ट्स (आसक्ति) नहीं देते। Theory/ concept स्पष्ट होने से practical प्रभावी व हानिरहित होते हैं।
जिस प्रकार तिलों में तैल, दही में घी, स्रोतों में जल और अरणियों में अग्नि है। उसी प्रकार जो सत्य और तप के द्वारा इसे देखता है वह आत्मा में ही आत्मा को प्राप्त करता है॥१५॥
ईश्वर विराट का विवेचन ब्रह्मज्ञान नहीं प्रत्युत् उनमें समर्पण विलय विसर्जन अर्थात् तदनुरूप हो जाना ब्रह्मज्ञान है @ अद्वैत।
दूध में घी की भाँति सर्वत्र व्याप्त आत्मा, और आत्मविद्या एवं तप का मूल ही वह उपनिषद् में कहा गया परम् ब्रह्म है॥१६॥
आत्मानुभूति योग …।
“तप + योग” – जिसे पंचाग्नि विद्या (पंचकोश साधना) के 19 क्रियायोग के श्रद्धा-पूर्ण, सहज, सजग (विवेकपूर्ण) व नियमित अभ्यास से सभी वर्णाश्रम (faculty) के व्यक्तित्व जीवन लक्ष्य आत्म-परमात्म साक्षात्कार कर सकते हैं।
जिज्ञासा समाधान
आत्म-परमात्म साक्षात्कार क्रम में हमने गायत्री पंचकोश साधना के 19 क्रियायोग में हर एक कोश को उज्जवल बनाने हेतु पांच-पांच वर्ष अर्थात् कुल 25 वर्ष दिये। और आज भी इसे सर्वग्राह्य बनाने हेतु सतत प्रयत्नशील हैं।
हम जब आत्मीयता/प्रेम का परिसीमन (limitations) करते हैं अर्थात् उसे situations, personality etc. में आवृत्त कर personalized कर देते हैं तो वह मोह ग्रस्त/आसक्ति युक्त होकर राग-द्वेषात्मक हो जाता है जो सुख-दुखादि का कारण बनती है। आत्मीयता का परीसीमन ना करें प्रत्युत् अहैतुक प्रेम (unconditional love) को प्राथमिकता दें। यह संभव बन पड़ता है प्रज्ञा रूपी नेत्रों से @ ज्ञानेन मुक्ति।
आत्म-परमात्म साक्षात्कार क्रम पंचकोश साधना परिप्रेक्ष्य में:-
अन्नमयकोश की आत्मा – प्राणमयकोश।
प्राणमयकोश की आत्मा – मनोमयकोश।
मनोमयकोश की आत्मा – विज्ञानमयकोश।
विज्ञानमयकोश की आत्मा – आनंदमयकोश।
आनंदमयकोश की आत्मा – आत्मा।
आत्मा की आत्मा – परमात्मा।
सृष्टि की उत्पत्ति का मूल – आनंद (ब्रह्म की स्फुरणा – एकोऽहम बहुस्याम) है। हमारा आनंद किसी बैसाखी के सहारे है अथवा अखंड है हमें इसका आत्मावलोकन करते रहना है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
No Comments