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Shvetashvatara Upanishad – 3

Shvetashvatara Upanishad – 3

PANCHKOSH SADHNA –  Navratri Sadhna Special Online Global Class – 09 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT:  श्वेताश्वतरोपनिषद्-3

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)

प्रथम अध्याय में ‘आत्मसाधना’ (तप + योग)। पात्रता विकास पर बल दिया गया है। द्वितीय अध्याय में मन की शुद्धि के क्रियायोग की तकनीक पर प्रकाश डाला गया है। 

तृतीय अध्याय में कुल 21 सुत्र हैं। इसमें ब्रह्म की सर्वव्यापक, सर्वनियामक, नियंता, विधाता, सार्वभौम, सर्वाश्रय, अजन्मा, निर्विकार, असीमित, अपरीमित, अप्रमेय, अव्यय आदि स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है।

जो एक मायापति अपनी प्रभूतासंपन्न शक्तियों द्वारा संपूर्ण लोकों पर शासन करता है, जो अकेला ही सृष्टि की उत्पत्ति – विकास में समर्थ है, उस परम पुरुष को जो विद्वान जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं ।।1।।

माया – संसार के परिवर्तनशील (variable) के संबंध में है। मायापति संसार की परिवर्तनशीलता में अपरिवर्तनशील हैं।

वह एक परमात्मा ही रूद्र है। वही अपनी प्रभूतासंपन्न शक्तियों द्वारा सम्पूर्ण लोकों पर शासन करता है, सभी प्राणी एक उन्हीं का आश्रय लेते हैं, अन्य किसी का नहीं। वही समस्त प्राणियों के अन्दर स्थित है, वह संपूर्ण लोकों की रचना करके उनका रक्षक होकर प्रलयकाल में उन्हें समेट लेता है ।।2।।
वह एक परमात्मा सब ओर नेत्रों वाला, बाहुओं और पैरों वाला है। वही एक मनुष्य आदि जीवों को बाहुओं से तथा पक्षी-कीट आदि को पंखों से संयुक्त करता है, वही इस द्यावा-पृथ्वी का रचयिता है ।।3।।
जो रुद्र सम्पूर्ण देवों की उत्पत्ति और उनके विकास का कारण है, जो सबका अधिपति और महान् ज्ञानी है, जिसने सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ को उत्पन्न किया, वह हमें शुभ बुद्धि से संयुक्त करे ॥4॥
एकादश रूद्र।

पर्वत पर वास करने वाले सुखप्रदाता हे रुद्रदेव ! आपका कल्याणकारी, सौम्य, पुण्य से कान्तिमान जो रूप है, आप हमें अपने उसी सुखदाई स्वरूप से देखें ॥5॥
सुखस्वरूप (स्वः)।

हे हिमालय वासी सुखदाता ! जिस बाण को आप प्राणियों की ओर फेंकने के लिए हाथ में धारण किये रहते हो, हे हिमालय रक्षक देव ! आप उसे कल्याणकारी बनाएं, इस जगत को, जीव समूह को हिंसित ना करें ॥6॥
जो उस जीव जगत से परे हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्मा से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है, जो अत्यन्त व्यापक है, किन्तु प्राणियों के शरीरों के अनुरूप उन सब प्राणियों में समाया हुआ है, सम्पूर्ण जगत को अपनी सत्ता से घेरे हुए उस महान् ईश्वर को जानकर विद्वान पुरूष अमर हो जाते हैं ॥7॥
ईशावास्यं इदं सर्वं …।

मैं इस अविद्यारूपी तमस् से दूर उस प्रकाशमय आदित्य स्वरूप परमात्मा को जानता हूँ, उसे जानकर ही विद्वान मृत्यु के चक्र को पार कर सकता है, अमरत्व की प्राप्ति के लिए इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं ॥8॥
आत्म – परमात्म बोध अनिवार्य लक्ष्य।

जिससे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं, जिससे कोई भी न तो सूक्ष्म है और न ही बड़ा । जो अकेला ही वृक्ष की भाँति निश्चल आकाश में स्थित है, उस परम पुरुष से ही यह सम्पूर्ण विश्व संव्याप्त है ॥9॥
जो उस से श्रेष्ठतम है, वह परब्रह्म परमात्मा रूप है और दुःखों से परे है, जो विद्वान इसे जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं, इस ज्ञान से रहित अन्यान्य लोग दुःख को प्राप्त होते हैं ॥10॥
सर्वश्रेष्ठ

वह कल्याणकारी भगवान् सब ओर मुख, सिर और ग्रीवा वाला है, वह समस्त प्राणियों की हृदय गुहा में निवास करता है । वह सर्वव्यापी और सब जगह पहुँचा हुआ है ॥11॥
यह परम पुरुष परमात्मा महान्, सर्व समर्थ, सर्व नियन्ता, प्रकाश स्वरुप और अविनाशी है, अपनी अत्यन्त निर्मल कांति की प्राप्ति के निमित्त अन्तःकरण को प्रेरित करने वाला है ॥12॥
अंगुष्ठ मात्र परिमाण वाला अन्तरात्मा सर्वदा मनुष्य के हृदय में सन्निविष्ट रहता है । जो विद्वान इस हृदयगुहा में स्थित मन के स्वामी का विशुद्ध मन से साक्षात्कार कर लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं ॥13॥
वह परमात्मा सहस्त्र सिर वाला, सहस्त्र नेत्रों वाला और सहस्त्र पैरों वाला है । वह भूमि को सब ओर से घेरकर दस अँगुल बाहर स्थित है अथवा नाभि से दस अंगुल उपर हृदयाकाश में स्थित है ॥14॥

निर्मल मन जो सो मोहि पावा ….। आत्मपरिष्कार (आत्मसमीक्षा + आत्मसुधार + आत्मनिर्माण + आत्मविकास) से अन्तःकरण (हृदयगुहा) स्थित उस आत्म-परमात्म साक्षात्कार किया सकता है। यह मोक्ष/ जीवन-मुक्त/ अमरत्व का मार्ग है।
अध्यात्म‘ की समग्रता (अन्तःकरण परिष्कृत + बहिरंग सुव्यवस्थित) हेतु ‘आत्मशोधन + परमार्थ’ के मार्ग पर चला जा सकता है।

जो भूतकाल में हो चुका है, जो भविष्यत् काल में होने वाला है और जो अन्नादि पदार्थों से पोषित हो रहा है, यह सम्पूर्ण परम पुरुष ही है और वही अमृतत्व का स्वामी है ॥15॥
महाकाल

वह परम पुरूष सब जगह हाथ-पैर वाला, सब जगह आँख, सिर और मुख वाला और सब जगह कानों वाला है, वही लोक में सबको व्याप्त करके स्थित है ॥16॥

वह परम पुरूष समस्त इन्द्रियों से रहित होकर भी समस्त इन्द्रियों के विषय-गुणों को जानने वाला है । सबका स्वामी-नियन्ता और सबका बृहद् आश्रय है ॥17॥
वह परम पुरुष प्रकाश के रूप में नवद्वार वाले देह रूपी नगर में अन्तर्यामी होकर स्थित है। वही इस बाह्य-स्थूल जगत् में लीला कर रहा है ॥18॥

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूर्वायोध्या । तस्यां हिरण्ययः कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृत: ।। (अथर्ववेद 10-2-31) भावार्थ: देवों की नगरी अयोध्या रूपी इस देह में अष्टचक्र और नौ द्वार (2 आँखें, 2 नासिका, 2 कान, मुख, पायु और उपस्थ) हैं।  इसी नगरी में एक देदीप्यमान हिरण्यय कोष है, जो अनन्त, अपरिमित, असीम सुख – शान्ति, आनन्द और दिव्य ज्योति से परिपूर्ण है। 
आत्मसाधक (पंचकोश साधक) इस दिव्य कोष को प्राप्त कर सकता है। 

वह परम पुरूष हाथ-पैर से रहित होकर भी वेगपूर्वक गमन करने वाला है । आँखों से रहित होकर भी देखता है और कानों से रहित होकर भी सुनता है । वह जानने वाली चीजों को जानता है । उसे जानने वाला अन्य कोई नहीं है । उसे ज्ञानी जन महान्, श्रेष्ठ आदि कहते हैं ॥19॥
वह परम पुरुष अतिसूक्ष्म अणु से भी सूक्ष्म है और अतिशय महान् से भी महान् है । आत्मारूप वह पुरुष इस जीव की हृदय गुहा में छिपा हुआ है । उस विषय भोग के संकल्पों से रहित, परमात्मा को जो विधाता की कृपा से देख लेता है, वह सभी संतापों से मुक्त हो जाता है ॥20॥
उसे हम जानते हैं, जो जरा आदि से मुक्त सदा नित्य है । वह सबसे पुरातन पुरुष सबमें आत्मा रूप समाहित है। वह सर्वत्र विद्यमान और अत्यन्त व्यापक है, उसे ब्रह्मवेत्ता जन जन्म-बन्धन से मुक्त तथा सदा नित्य रहने वाला बतलाते हैं ॥21॥

उपासना, साधना व अराधना‘ @ तीनों शरीर की साधना @ ‘गायत्री + सावित्री’ @ ‘पंचकोश साधना + कुण्डलिनी जागरण’ @ ‘अन्तःकरण परिष्कृत + बहिरंग सुव्यवस्थित’ @ ‘तप + योग’ –  से आत्म-परमात्म बोध का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

जिज्ञासा समाधान

सबसे सरल सहज उपवासपाचक उपवास है। कड़ी भूख लगने पर सुपाच्य आहार लिया जाए। दो time मुख्य भोजन लें। ऊषापान संग भोजन के आधा/ एक घंटा बाद और दूसरे भोजन के आधा घंटे पहले  तक घूंट घूंट पानी आवश्यकतानुसार पीते रहा जाए। दो मुख्य भोजन अंतराल के बीच अपने nature of duty के अनुसार आवश्यकतानुसार रसाहार/ फलाहार लिया जा सकता है। काम के साथ आराम व स्वाध्याय को भी प्राथमिकता दी जा सकती है।

मानव जीवन का लक्ष्य केवल परमात्मा को जानकर उसे मानना ही नहीं, बल्कि उसका साक्षात्कार कर उसे पाना (समर्पण, विलय – विसर्जन) है। इसका आधार प्रेम/ आत्मीयता (श्रद्धा-विश्वास) है।
संत/ कवि गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि “बिन जाने न होए प्रतीति, बिन प्रतीति न होए प्रीति तथा बिन प्रीति न होए भक्ति। अर्थात किसी को बिना जाने उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता तथा बिना विश्वास किए उसके साथ प्रेम प्यार नहीं किया जा सकता तथा बिना प्रेम प्यार के उसकी भक्ति नहीं की जा सकती है।

गुरू‘ वह हैं जो अज्ञान रूपी अन्धकार (भेदत्व) को ज्ञान रूपी प्रकाश (अद्वैत) से दूर करें। हर एक शिक्षण – प्रशिक्षण जो ब्रह्म सायुज्यता में मददगार हों वो गुरू हैं।

जीवात्मा‘ – ‘मैं’ की भावना (अहंकार – अहम् को आकार) से बनती है। जब  शुद्ध/ निर्मल मन @ व्यष्टि मन (अहं – मैं) का विलय समष्टि मन में सायुज्यता (समर्पण, विलय, विसर्जन) से संभव बन पड़ता है तब – ‘गुरू शिष्य एक’, ‘साधक सविता एक’, ‘भक्त भगवान एक’ @ एकत्व @ अद्वैत।

ऐसी जानकारी जो आत्मीयता/ निःस्वार्थ प्रेम से दूर भेदत्व की ओर ले जाएं वो बंधन है।
संत कबीरदास जी कहते हैं “पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढ़ाई आखर प्रेम के पढ़ें सो पण्डित होय।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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