Pragyakunj, Sasaram, BR-821113, India
panchkosh.yoga[At]gmail.com

Shvetashvatara Upanishad – 5

Shvetashvatara Upanishad – 5

PANCHKOSH SADHNA –  Navratri Sadhna Special Online Global Class – 11 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌।

SUBJECT:  श्वेताश्वतरोपनिषद्-5

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)

नवरात्रि साधना, आत्मसाधना हेतु है। हर एक पिण्ड चुंबक है और उसमें जो आकर्षण (चुंबकत्व) है वह हमें आकर्षित करते हैं। हमें अपना चुंबकत्व बढ़ाना होता है so that हमें कोई आसक्त ना कर पाए। आत्मशक्ति के अभाव में हम आसक्ति रहित अर्थात् अनासक्त/ निष्काम/ आत्मभाव में स्थित नहीं हो पाते। आत्मसाधक, आत्मशक्ति हेतु आत्मसाधना करते हैं।

(कार्य) ब्रह्म से भी उत्कृष्ट, वह अनन्त सत्ता अविनाशी है, जिसमें विद्या और अविद्या दोनों निहित हैं और जो प्राणियों की हृदय गुहा में निहित है । क्षरणशील ‘अविद्या’ है और अविनाशी (जीवात्मा) ‘विद्या’ है । जो विद्या और अविद्या दोनों पर शासन करता है, वह इन दोनों से भिन्न सत्ता है ॥1॥
वह परब्रह्म अचिन्त्य अज्ञेय अप्रमेय हैं @ नेति नेति। क्षरणशील अर्थात् परिवर्तनशील – अविद्या, अविनाशी अर्थात् अपरिवर्तनशील – चेतना।
ईशावास्य उपनिषद – विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ भावार्थ: जो तत् को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।

जो अद्वितीय परमात्मा, प्रत्येक योनि का अधिष्ठाता है, जो सम्पूर्ण योनियों को विभिन्न रूप प्रदान करता है । जिसने सबसे पहले उत्पन्न हुए कपिल मुनि को विशिष्ट ज्ञान-सम्पदा से सम्पन्न किया तथा उन्हें उत्पन्न होते हुए देखा था ॥2॥
कपिल मुनि सांख्य दर्शन (तत्त्वज्ञान) के प्रवर्तक हैं  वही विद्या-अविद्या से परे परमतत्त्व है।

यह प्रकाश स्वरूप परमात्मा सृष्टिकाल में इस जगत क्षेत्र में एक-एक जाल (कर्मफल बन्धन) को अनेक प्रकार से विभक्त करता हुआ प्रलयकाल में उसका संहार कर देता है।  प्रजापतियों की सृष्टि करके उन सब पर अपना आधिपत्य करता है ॥3॥
सृजक, पोषक व संहारक

जिस प्रकार सूर्यदेव अकेले ही ऊपर-नीचे और इधर उधर की सभी दिशाओं को प्रकाशित करते हुए  देदीप्यमान होता हैं, उसी प्रकार वह परम पुरुष भगवान् प्रकाशस्वरूप और वरेण्यं होकर अकेले ही समस्त उत्पत्तिकारक शक्तियों पर अपना आधिपत्य रखता है ॥4॥
तत्सवितुर्वरेण्यं

जो परमात्मा सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारणभूत है, जो समस्त तत्त्वों के स्वभाव को परिपक्व करता है, जो समस्त पकाये गए पदार्थों को विविध रूपों में परिणत करता है, जो सम्पूर्ण गुणों (सत्त्व, रजस् व तमस्) को उनके अनुरूप कार्यों में नियुक्त करता है, जो सम्पूर्ण जगत का अधिष्ठाता है ॥5॥
वही परब्रह्म है।

वह परमात्मा वेदों के गुह्य सारभूत उपनिषदों में निहित है, वेद के उत्पन्नकर्ता उस परमात्मा को ब्रह्मा जानते थे । जो पुरातन देवगण और ऋषिगण उसे (परमात्म तत्त्व को) जानते थे, वे निश्चित ही उसमें तन्मय होकर अमृतस्वरूप हो गए थे ॥6॥
आत्म – परमात्म बोध।

जो गुणों से युक्त, फलप्राप्ति के उद्देश्य से कर्म करने वाला और अपने किये गए कर्म के फल का उपभोग करने वाला जीवात्मा है, विभिन्न रूपों को धारण करता हुआ, तीन गुणों से युक्त होकर, तीन मार्गों से गमन वाला है । वह प्राणों का अधिपति जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार विविध योनियों में गमन करता है ॥7॥
जो अंगुष्ठ मात्र परिमाण वाला, सूर्य सदृश प्रकाशस्वरूप और संकल्प तथा अहंकार से युक्त है, जो बुद्धि और आत्मा के विशिष्ट गुणों से युक्त है, यह आरे की नोंक सदृश सूक्ष्म, परमात्मा से भिन्न‌ अस्तित्व वाला (जीवात्मा) योगियों द्वारा देखा गया है ॥8॥
जीवात्मा (व्यष्टिगत चेतना) के स्वरूप का संकेत। आत्मा व उसके पंच आवरण – पंचकोश।

एक बाल की नोंक के सौवें भाग के पुनः सौ भाग विभक्त करने पर जो कल्पित भाग होता है, जीव का स्वरूप उसी के बराबर (अतिसूक्ष्म) समझना चाहिए, परन्तु वही अनन्त रूपों में विस्तृत भी हो जाता है ॥9॥
यह उदाहरण चेतना की सूक्ष्म इकाई की सूक्ष्मता का अनुमान हेतु मात्र है।

यह जीवात्मा न तो स्त्री है, न पुरुष है और न ही नपुंसक है । यह जिस-जिस शरीर को ग्रहण करता है, उसी-उसी से सम्बद्ध हो जाता है ॥१०॥
वह चेतना आकार रहित व लिंग-रहित होते हुए भी सभी शरीर लिंग आदि में कुटस्थ है।

अन्न और जल के सेवन से जिस प्रकार शरीर परिपुष्ट होता है, उसी प्रकार संकल्प, स्पर्श, दृष्टि और मोह से जीवात्मा का जन्म और विस्तार होता है । जीवात्मा अपने किये गए कर्मों के फल के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न शारीरिक रूपों को ग्रहण करता है ॥11॥
गहणाकर्मणोगति

जीवात्मा अपने आन्तरिक गुणों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म बहुत से रूप धारण करता है । अपने क्रियात्मक गुणों तथा चेतनात्मक गुणों के अनुरूप शरीर धारण कराने वाला कोई दूसरा हेतु भी देखा गया है ॥12॥
आंतरिक गुण – ममता, अहंता, आकांक्षा आदि, क्रियात्मक गुण – संस्कार व चेतनात्मक गुण – चिंतन, मनन व संकल्प आदि । दूसरा हेतु – परमपिता परमात्मा

इस घोर संसार में उस अनादि, अनन्त, विश्वसृजेता, अनेक रूपों वाले, सम्पूर्ण विश्व को अकेले ही अपनी सत्ता से आवृत करने वाले देव को जानकर समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है ॥13॥
आत्मसाधना (पंचकोश साधना) से बोधत्व की साधना कर बन्धन मुक्त हुआ जा सकता है।

श्रद्धा भाव से प्राप्त होने वाले अशरीरी सृष्टि एवं प्रलय करने वाले, कल्याणकारी स्वरूप वाले, कलाओं की रचना करने वाले, उस देव को जो जान लेता है, वह शरीर बन्धन को त्यागकर मुक्त हो जाता है ॥14॥
भवानी-शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ । याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम् ।। २ बालकांड ।। भावार्थ: श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप पार्वती जी और शंकर जी की मैं वन्दना करता हूँ जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्त: करण में विद्यमान ईश्वर को देख नहीं सकते ।

आत्मसाधक की श्रद्धा – सजल, प्रज्ञा – प्रखर एवं निष्ठा – अटल होती है।

जिज्ञासा समाधान

चार वेद की मातु पुनीता, तुम ब्रह्माणी गौरी सीता। महामंत्र जितने जगमाहीं कोऊ गायत्री समनाहीं।

साक्षी भाव में रहने का अर्थ कर्तव्य कर्म रहित नहीं, उद्देश्य रहित नहीं प्रत्युत् फलासक्ति से परे रहना है।

अनासक्त कर्मयोग तपस्या है। ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ के बोधत्व हेतु प्रयास/ अभ्यास – तपस्या है।

आंतरिक गुणों ~ माया, मोह – ममता, आकांक्षा आदि आसक्ति के अनुसार हम स्थूल व सुक्ष्म शरीर धारण करते हैं। मोह ग्रस्त होने के कारण रिश्ते नाते बंधनकारी होते हैं।
मनोमयकोश की साधना में मन को सतेज, शांत व प्रसन्न रखने हेतु जप – ध्यान व त्राटक साधना संग ‘तन्मात्रा साधना’ को प्राथमिकता देना महत्वपूर्ण है @ तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।

सोऽहं भाव‘ में रहने से आत्म भाव जाग्रत रहता है और साधक आत्मस्थित रहते हैं। आत्मानुभूति को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता; छूते हुए संकेतों को रखा जा सकता है @ नेति नेति।

अध्यात्म रस – गुंगे के गुड़ की मिठास।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

No Comments

Add your comment