Skandopnishad – 2
PANCHKOSH SADHNA – Navratri Sadhna Special Online Global Class – 14 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
Please refer to the video uploaded on youtube.
SUBJECT: स्कन्दोपनिषद्-2
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)
आज स्कन्दोपनिषद् के 8-15 मंत्र पर हम विचार (चिंतन मनन मंथन) करेंगे ।
ब्रह्म-लीन अर्थात् व्यष्टि मन का समष्टि मन में विलय हो जाता है। सायुज्यता/ तालबद्धता आदि शब्दों से संकेत दिया जाता है । संकीर्णतावादी स्वार्थ की जगह विस्तृत परमार्थ ले लेते हैं @ वसुधैव कुटुंबकम् । तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा ।
खुली नेत्रों से ईश्वर को देखने का क्रम – संसार गतिशील है; इसे गति रूप में देखा जा सकता है । ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्डे में हर एक पिण्ड एक ज्ञान/ अनुशासन में कार्य कर रहा है – इस ज्ञान/ अनुशासन में ईश्वर को देखा जा सकता है । सृष्टि में सृजन शक्ति (ब्रह्मा), पोषण शक्ति (विष्णु) व संहार/ विलय शक्ति (महेश) रूप में साक्षात्कार किया जा सकता है । वह एक शक्ति (ब्रह्म) अनेक शक्ति धाराओं (33 कोटि देवी देवताओं) के रूप में देखा जाता है । पात्रतानुसार जीव उन शक्तियों के धारक बनते हैं और सृष्टि क्रम का माध्यम बनते हैं ।
शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे । शिवस्य हृदयं विष्णुः विष्णोश्च हृदयं शिवः॥८॥ अर्थात् भगवान् शिव ही भगवान् विष्णुरूप हैं और भगवान् विष्णु भगवान् शिवरूप हैं। भगवान् शिव के हृदय में भगवान् विष्णु का निवास है और भगवान् विष्णु के हृदय में भगवान् शिव विराजमान हैं ॥8॥
जिस प्रकार विष्णुदेव शिवमय हैं, उसी प्रकार देव शिव विष्णुमय हैं । जब मुझे इनमें कोई अन्तर नहीं दिखता,तो मैं इस शरीर में ही कल्याणरूप हो जाता हूँ। ‘शिव’ और ‘केशव’ में भी कोई भेद नहीं है ॥9॥
सभी शक्ति धाराओं के मूल में एक ही शक्ति (ब्रह्म) है @ अद्वैत । Role के हिसाब से शक्ति का भिन्न-भिन्न नामकरण हो जाता है । एक ही व्यक्तित्व जीवन काल में विभिन्न भूमिकाओं में भिन्न-भिन्न नाम से जाना जाता है such as पुत्र/पुत्री, भाई/बहन, छात्र/छात्रा, पति/पत्नी, चाचा/चाची, भैया/भाभी, फुआ/फूफा, माता/पिता, दादा/दादी, शिक्षक/शिक्षिका, सैनिक, चिकित्सक/ चिकित्सिका, नेता/ नेत्री, अभिनेता/अभिनेत्री, व्यापारी, लोकसेवी आदि ।
जीवन काल में सत्त्व, रज व तम (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) तीनों शक्ति की आवश्यकता होती है। अभिनेता/ अभेदता के लिए तीनों गुणों की साम्यावस्था (त्रिगुणात्मक संतुलन/ त्रिगुणरहितं) हेतु ‘ग्रंथि-बेधन’ की आवश्यकता होती है ।
देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः । त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहंभावेन पूजयेत् ॥१०॥ अर्थात् तत्त्वदर्शियों द्वारा इस देह को ही देवालय कहा गया है और उसमें जीव केवल शिवरूप है। जब मनुष्य अज्ञानरूप कल्मष का परित्याग कर दे, तब वह सोऽहं भाव से उनका (शिव का) पूजन करे ॥10॥
शरीर को भगवान का मंदिर (देवालय) समझकर इसका उचित ध्यान अर्थात् संयमित आहार-विहार रखें (उपेक्षा ना करें) । और कूटस्थ चेतना (आत्मा) – शिवरूप हैं । अज्ञान रूपी अन्धकार को ज्ञान रूपी प्रकाश से दूर कर ‘सोऽहम’ भाव से उपासना, साधना व अराधना करें ।
अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः । स्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥११॥ अर्थात् सभी प्राणियों में ब्रह्म का अभेदरूप से दर्शन करना यथार्थ ज्ञान है और मन का विषयों से आसक्ति रहित होना – यह यथार्थ ध्यान है । मन के विकारों का त्याग करना – यह यथार्थ स्नान है और इन्द्रियों को अपने वश में रखना – यह यथार्थ शौच (पवित्र होना) है ॥11॥
भेद रहित दृष्टि – ज्ञान,
मन का निर्विषय (अनासक्त) होना – ध्यान,
मन का मैल हटाना (आत्मसुधार) – स्नान,
इन्द्रिय निग्रह (संयम) – शौच ।
अध्यात्म, अध्ययन (चिंतन-मनन) तक का ही क्रम नहीं प्रत्युत् इसकी समग्रता तदनुरूप जीने (व्यवहार में लाने) पर होती है। ‘प्रसवन – प्रतिप्रसवन’ की प्रक्रिया @ यथार्थ ज्ञान (विज्ञान) की बोधगम्यता अद्वैत के पथ का पथिक बनाती हैं ।
ब्रह्मज्ञान रूपी अमृत का पान करे, शरीर रक्षा मात्र के लिए उपार्जन (भोजन ग्रहण) करे, एक परमात्मा में लीन होकर द्वैतभाव छोड़कर एकान्त ग्रहण करे । जो धीर पुरुष इस प्रकार का आचरण करता है, वही मुक्ति को प्राप्त करता है ॥12॥
स्वाध्याय – सत्संग, ईश्वर प्राणिधान आदि अमृत पान का क्रम बनाये रखें ।
तन्मात्रा साधना के practical से हम आकाश से हानिरहित पोषक तत्त्वों को ग्रहण कर सकते हैं । आहार शुद्धि से चित्त की शुद्धि होती है । निपुण घुड़सवार (मनस्वी साधक) अश्वों के नियंत्रण (इन्द्रिय संयम) में माहिर होते हैं और द्रुत गति से अश्व पर सवार होकर लक्ष्य का वरण करते हैं ।
साईं इतना दीजिए – जामे कुटुंब समाए , मैं भी भूखा ना रहूं – साधु भी ना भूखा जाये । अर्थात् आवश्यकतानुसार उपार्जन @ स्वावलंबन का क्रम बनाये रखें । संकीर्णतावादी स्वार्थ से बचा जाए @ पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय ।
श्री परमधाम वाले (ब्रह्मा, विष्णु, शिव देव) को नमस्कार है, (हमारा) कल्याण हो, दीर्घायुष्य की प्राप्ति हो । हे विरञ्चि, नारायण एवं शंकर रूप नृसिंह देव! आपकी कृपा से उस अचिन्त्य, अव्यक्त, अनन्त, अविनाशी, वेद स्वरूप ब्रह्म को हम अपने आत्म स्वरूप में जानने लगे हैं ॥13॥
ऐसे ब्रह्मवेत्ता उस भगवान् विष्णु के परम पद को सदा ही (ध्यान मग्न होकर) देखते हैं, अपने चक्षुओं में उस दिव्यता को समाहित किये रहते हैं ॥14॥
विद्वज्जन ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर जो भगवान् विष्णु का परमपद है, उसी में लीन हो जाते हैं । यह सम्पूर्ण निर्वाण सम्बन्धी अनुशासन है, यह वेद का अनुशासन है । इस प्रकार यह उपनिषद् (रहस्य ज्ञान) है ॥15॥
उस प्राण-स्वरूप दुःख-नाशक सुख-स्वरूप श्रेष्ठ तेजस्वी पापनाशक देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें; वो परमात्मा हमें सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें ।
जिज्ञासा समाधान
अद्वैत दर्शन को आत्मसात करना बोधत्व के रूप में समझा जा सकता है । इसका मार्ग – तपसा (तप से जाना जा सकता है) ।
‘तप‘ का अर्थ तपाना है इसे अतिवादी कष्ट अर्थात् जला कर भस्मीभूत के अर्थों में ना लिया जाए । सोना तप कर कुन्दन बन जाता है । ‘तप’ के युगानुकुल 4 व्यवहारिक क्रम को गुरूदेव ने सर्वसमक्ष रखा है:-
१. इन्द्रिय संयम
२. समय संयम
३. विचार संयम
४. अर्थ संयम
लक्ष्य वरण क्रम में आने वाले रूकावटों को दूर करने के लिए, संघर्ष के लिए ‘तपोबल’ (तप से उत्पन्न शक्ति-सामर्थ्य) की आवश्यकता होती है ।
आत्मविस्मृति (भूलक्कड़ी) ही जीव भाव है । इससे निवृत्ति – आत्मस्थित ही शिव भाव है ।
गायत्री पंचकोश साधना के प्रेरणा प्रसारण हेतु पंचकोश साधक स्वयं को role model @ गुरुदेव के शब्दों में स्वयं को चलता फिरता शक्तिपीठ बनायें अर्थात् शब्द की जगह आचरण (व्यक्तित्व) ले लेवें । बिना भूख के अच्छे भोजन vomit आदि के माध्यम बन जाते हैं; अतः जिज्ञासु जनों संग स्वाध्याय सत्संग की व्यवस्था बनाई रखी जा सकती है । मैत्रीवत (friendly) शिक्षण प्रशिक्षण प्रभावी होते हैं ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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