Srimad Bhagwad Geeta – 2
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 20 Mar 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: संस्कृति संजीवनी श्रीमद्भागवत गीता – 2
Broadcasting: आ॰ अमन जी
आ॰ गोकुल मुन्द्रा जी (कोलकाता, प॰ बं॰)
‘गीता‘ तात्विक रूप से गुरू व शिष्य का संवाद है। प्रथम अध्याय में ‘अर्जुन’ अपनी बात कहते हैं और उसके समर्थन में अपने तर्क को रखते हैं। फिर आगे पूर्ण समर्पण संग ‘करिष्ये वचनं तव’ को आत्मसात करते हैं।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।भावार्थ: हे अच्युत ! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
गीता, गंगा, गायत्री, गुरू व गौ – भारतीय संस्कृति के 5 प्राण हैं।
भगवान बुद्ध के उत्तरार्ध प्रज्ञावतार की प्रेरणा जीवन के दो उद्देश्य – १. मनुष्य में देवत्व का अवतरण व २. धरा पर स्वर्ग का अवतरण।
हमें ‘मालिक‘ (owner) की नहीं प्रत्युत् ‘माली‘ (gardener/ caretaker) की तरह जीना चाहिए। ‘स्वामित्व’ (ownership) का भाव ही ‘आसक्ति’ (लोभ, मोह व अहंकार) की जननी है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।। भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।। भावार्थ: समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्म-बंधन से छूटने का उपाय है।
शरीर (पंचकोश) के रहते जीव भाव से मुक्त कैसे हों?
गीताकार कहते हैं – असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है॥35॥
अभ्यास व वैराग्य सधे कैसे? – योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48॥
गीता में कहा गया है – मन ही मनुष्य के बंधन व मोक्ष का कारण है। जप, ध्यान, त्राटक व तन्मात्रा साधना से मन नियंत्रित/ संतुलित होकर मुक्ति का माध्यम बन जाता है।
ब्रह्म बिन्दु उपनिषद् – मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥ भावार्थ: मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन ‘बन्धन’ का और कामना-संकल्प से रहित मन ही ‘मोक्ष’ (मुक्ति) का कारण कहा गया है॥
गुरूदेव के शब्दों में ईश्वर आदर्शों के समुच्चय (a bundle of goodness) हैं। इसे गीता में विभूति योग के माध्यम से समझाया गया है। अर्थात् जहां ईश्वर हैं वहां श्रेष्ठता है vice versa जहां श्रेष्ठता हैं वहां ईश्वर हैं।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्। यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥ भावार्थ : मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ॥25॥
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः। गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥ भावार्थ : मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ॥26॥
‘ज्ञानयोग‘ व ‘कर्मयोग‘ अंततः ‘भक्तियोग‘ में पूर्णता को प्राप्त करती हैं। वस्तुतः तीनों परस्पर समानांतर चलते हुए पूर्णता का मार्ग प्रशस्त करती हैं। जिसे हम त्रिपदा गायत्री साधना से आत्मसात किया जाता है। अतः गुरूदेव कहते हैं – तीनों एक दूसरे से भिन्न-भिन्न नहीं हैं @ अभेद दर्शनं ज्ञानं।
हम मोड़ने चले हैं युग की प्रचण्ड धारा।
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भगवान तुम हमसे कब? वरदान मांगते हैं।
✍ Theory (ज्ञान – उपासना – approached) से practical (कर्म – साधना – digested) सधता है और दोनों का उद्देश्य application (भक्ति – अराधना – digested) से पूर्ण होता है। औरों के हित जो जीता है औरों के हित जो मरता है। उसका हर आंसू रामायण व प्रत्येक कर्म ही गीता है।
प्रश्नोत्तरी सेशन विद् श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘भक्तियोग‘ को भजन मात्र मान लिया जाता है। वस्तुतः यह इतना सरल नहीं है। मित्र व शत्रु दोनों में समभाव रखने हेतु चेतना के उच्चतम स्तर तक पहुंचना होता है। विज्ञानमयकोश व आनंदमयकोश के साधक ‘भक्तियोग’ के पथ पर चलते हैं।
श्रद्धावान लभते ज्ञानं। श्रद्धया सत्यमाप्यते। श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा व श्रमशीलता के समन्वय से साधना को समग्रता प्रदान की जाती हैं।
‘श्रेष्ठता‘ से तात्पर्य absolute truth @ ‘सविता’ से है जो सबको प्रेरणा देता है जो सब हेतु ‘वरेण्यं’ है। ‘श्रेष्ठ’ बनने से तात्पर्य प्रेरणापुंज बनने से है।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।62।। भावार्थ: हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा ।।62।। समस्याएं अनेक – समाधान एक ‘अध्यात्म‘।
Nothing is useless or worthless. अच्छा व बुरा depend upon use है @ योगः कर्मषु कौशलं।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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