मुक्तिकोपनिषद् (दुर्लभ) में … तुम निरन्तर मेरे स्वरूप का चिंतन करते हुए भजन करो क्योंकि एक मात्र मेरा स्वरूप ही शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से रहित है, कभी विकार ग्रस्त नही होता … उसका ना कोई नाम है, ना गोत्र है का क्या अर्थ है?उत्तर: यहाँ स्वरूप का अर्थ -> मैं शरीर नही आत्मा …