Tanmatra Sadhna (तन्मात्रा साधना)
PANCHKOSH SADHNA ~ Online Global Class – 08 Aug 2020 (5:00 am to 06:30 am) – प्रज्ञाकुंज सासाराम – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh @ बाबूजी
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
sᴜʙᴊᴇᴄᴛ. तन्मात्रा साधना
Broadcasting. आ॰ अमन कुमार/आ॰ अंकुर सक्सेना जी
श्री विष्णु आनन्द (कटिहार, बिहार).
पंचकोशों में तीसरा मनोमय कोश @ गायत्री का तृतीय मुख। मन में प्रचंड प्रेरक शक्ति होती है। इसमें जैसी कल्पनाएँ, इच्छाएँ, वासनाएँ आकांक्षाएँ, तृष्णाएँ उठती हैं उसी ओर शरीर चल पड़ता है। हमें नर पशु अथवा भूसुर (पृथ्वी का देवता) बना देना मन का ही खेल है।
चंचल या अव्यवस्थित मन से ना तो लौकिक समृद्धि मिलेगी ना ही आत्म विकास … कुछ भी नहीं मिल सकता अर्थात् मनोनिग्रह हम सभी के लिए अनिवार्य है।
गांडीवधारी अर्जुन कहते हैं हे मधुसूदन कि मन को वश में करना अत्यंत दुरूह कार्य है। गीताकार कहते हैं मन एव मनुष्याणां बन्धन मोक्ष कारणयोः।। एवं इसे वश में करने के दो उपाय बताए:-
१. अभ्यास – योग साधनाओं का
२. वैराग्य अर्थात् संयमित और व्यवस्थित जीवन।
मन को वश में करने का अर्थ है मन पर बुद्धि/ विवेक का नियंत्रण हो। नियंत्रित मन अर्थात् विवेकानुगामी मन।
गायत्री मंजरी में आदियोगी शिव आदि शक्ति माता पार्वती को मनोमयकोश को उज्जवल बनाने के ४ उपाय बताए हैं – जप, ध्यान, त्राटक व तन्मात्रा साधना।
पंच तत्त्व: तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में लिखा है – क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा।।
हमारा शरीर एवं समस्त संचार तन्त्र पंचतत्वों से निर्मित। इन पाँच तत्वों की मात्रा में अन्तर होने के कारण विविध आकार प्रकार और गुण धर्म की वस्तुएँ बन जाती हैं।
पंच तत्त्व के असंतुलन से शरीर में विविध प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। अन्नमयकोश की साधना में तत्त्व शुद्धि को रखा गया है।
परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्रायें उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिये शरीर में पंच ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर, शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठता स्थापित की। पंच तन्मात्रायें न होतीं तो मन इन्द्रियों के माध्यम से संसार के किसी पदार्थ में कुछ आनन्द न पाता। सब कुछ नीरस जान पड़ता।
१. आकाश तत्त्व की तन्मात्रा शब्द व प्रधान इन्द्रिय कान
२. अग्नि तत्त्व की तन्मात्रा रूप व प्रधान इन्द्रिय आंख
३. जल तत्त्व की तन्मात्रा रस व प्रधान इन्द्रिय जीभ
४. पृथ्वी तत्त्व की तन्मात्रा गंध व प्रधान इन्द्रिय नाक
५. वायु तत्त्व की तन्मात्रा स्पर्श व प्रधान इन्द्रिय त्वचा
पंच तन्मात्राओं से आसक्ति – वासना, तृष्णा व अहंता वश अपने नश्वर शरीर और पदार्थ जगत को ही सब कुछ मान बैठना भौतिकता है।
ईश्वरीय अनुशासन में शरीर को व्यवस्थित करें – आत्म स्वरूप को जानें अर्थात् ईश्वर के सहचर बन – जगत की विधि व्यवस्था में सहयोगी बनना आध्यात्म है।
इन्द्रियों और तन्मात्रा के मिश्रण से खुजली/आसक्ति उत्पन्न होती है एवं हम उसे खुजलाने के चक्कर में विविध विचार रखते है और तदनुरूप कार्य में प्रवृत्त रहते हैं।
संसार की पहूंच मन तक है। तन्मात्राओं से आसक्त मन ही चंचल रहता है। अतः मन को नियंत्रित करने के लिए तन्मात्रा साधना अहम है।
रूप तन्मात्रा साधना में गुरूदेव ने इष्ट की छवि का साकार रूप देखकर ध्यान में उस छवि को कल्पना में देखना, अपनी भावना से कल्पना लोक में व्यक्ति विशेष का ध्यान और उस पर प्रभाव डालना और छाया पुरुष पर सिद्धि के प्रयोग बताते हैं।
ईश्वर आदर्शों के समुच्चय हैं। अतः ईश्वर दर्शन का अर्थ केवल छवि/ मूरत की कल्पना मात्र नहीं वरन् उसमें समाहित तत्त्व दर्शन को जानना – समझना और जीना होता है।
चूंकि मन – पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से खुराक मिलती हैं। अतः सर्वप्रथम प्रयोग मुझे गांधी जी के तीन बंदर – बुरा मत देखो (आंख), बुरा मत बोलो (आंख), बुरा मत सुनो (कान) से मिली।
आज भी राष्ट्र धर्म और स्व सैनिक धर्म की बात कहूं तो गुरूदेव की स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के अनाचार के विरुद्ध श्रीराम मत्त की छवि साकार हो उठती है। बेहोश हो गये थे और दांत में तिरंगा का टुकड़ा फंसा था।
महिलाओं पर अत्याचार होते देख पत्थर चलाने से नहीं चूके थे। अहिंसा परमो धर्मः साथ ही साथ वैदिक हिंसा हिंसा न भवति ने समझाया की उद्देश्य अहम है। अर्थात् इशानुशासन में ईश्वर के सहचर बन कर्म करें।
आंख बंद कर स्वयं में ईश्वर को देखना अर्थात् सोऽहं, अहं ब्रह्मस्मि @ हम यकीन करें की हम संसार के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं।
आंख खुली तो सबमें ईश्वर को देखना @ तत्त्वमसि @ सर्वं खल्विदं ब्रह्म @ ईशावास्यं ईदं सर्वं @ प्रारंभ सबमें गुणों का दर्शन से
जल तत्व की तन्मात्रा ‘रस’ है। षट् रसों (खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले) का स्वाद जीभ पहचानती है। रस साधना में गुरूदेव ने स्वादिष्ट फल को खाकर उसके स्वाद को बारंबार स्मरण कर अनुभव में रखने को बताया है।
रस और अन्न का वायुमंडल में मौजूद होना और इच्छा शक्ति द्वारा उसे ग्रहण करने का सर्वथा उपयुक्त लाभकारी ज्ञान विज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया है।
मैं चटोर और मिष्ठान्न प्रेमी जीव केवल चखने मात्र से संतुष्टि नहीं मिलती। अतः मन पर जब कभी विवेक का नियंत्रण नहीं होता जीभ को ठांस भोजन में प्रवृत कर देता।
“ऋत भोक, मित भोक् व हित भोक्” के सुत्र ने रस साधना में मदद की और APMB का नियमित अभ्यास ने यदा कदा अनियंत्रित खान पान का कोई विशेष side affect नहीं होने दिया। अतः आज भी हमने नित्य APMB के अभ्यास का क्रम बनाये रखा है।
मन का विषय ही रसानुभूति है। आ॰ शरद भैया से आज की कक्षा के प्रारूप को लेकर प्रथम बार फोन पर बातचीत हुई। भैया से यह प्रेरणा मिली की मन को साधनात्मक रसानुभूति में लगा दें तो वह अपने विषय में भी लगता है और जो परिश्रम करना पड़ता है उसके कारण अति सूक्ष्म मनःशक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक व आध्यात्मिक लाभ होते हैं।
गुरुसत्ता को लें गायत्री के २४ महा पुरश्चचरण जौ की रोटी और छांछ पर।
वायु तत्त्व की तन्मात्रा स्पर्श का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले ज्ञान तन्तु हमें स्पर्श द्वारा वस्तु के ताप, भार, घनत्व आदि का ज्ञान देते हैं।
ध्यान दें तो सर्दी, गर्मी, स्नान, कोमल शय्या आदि का अनुभव त्वचा की स्पर्श शक्ति के द्वारा होता है। स्पर्श साधना में गुरूदेव ने ठंडे व गर्म पदार्थों के छुअन अथवा कोमल व कठोर शय्या के अभ्यास व अनुभव को स्मरण में रख कर तितक्षा सिद्धि द्वारा मन को शांत रखने का मार्ग प्रशस्त किया है।
गुरूसत्ता खाट पर सोते, तृतीय श्रेणी में सफर करते। सादा जीवन – उच्च विचार। आध्यात्म को ना केवल समझाया वरन् जीने का मार्ग प्रशस्त किया।
बालपन से तितिक्षा सिद्धि के लिए विशेष अभ्यास की आवश्यकता ना होना और कर्त्तव्य हेतु तत्पर रहना पूर्व जन्म के संस्कार, वंशानुगत विरासत, गुरू कृपा रहीं। सैन्य जीवन ने तितिक्षा सिद्धि को और भी नये आयाम दिये और अवधूत दर्शन की प्रेरणा दी।
हां! करूणा, ममता और स्नेहाशीष भी गुरुदेव के विचारों और प्रेरणा के माध्यम से अंतःकरण को स्पर्श करती हैं। पवित्र करती हैं और यह प्ररेणा देता है की गुरुदेव के विचारों को हर एक झोपड़ी और हर एक खोपड़ी तक पहुंचने के लिए स्वयं को एक चलता फिरता शक्ति पीठ बनाया जाये।
साधना “तप + योग” की उभयपक्षीय प्रक्रिया है। अतः तन्मात्रा साधना एक प्रशिक्षण है प्रतिकूल परिस्थितियों में अनुकूल रहने का। तेन त्यक्तेन भुंजीथा। अनावश्यक रूप से स्वयं को कष्ट पहुंचा कर रोगग्रस्त हो जाना योग साधना नहीं वरन् आसक्ति का ही बड़ा भाई – ग्रंथि है।
एक बार LB Singh बाबूजी से सुना तन्मात्रा साधना में आपको विचारों की फौज रखनी होती है जो anti attachment कार्य करती हैं। विचार – पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अंतः करण चतुष्टय तक पहूंचती हैं और तदनुरूप पंच कर्मेन्द्रियों के माध्यम से कार्य में परिणत हो जातीं।
LB Singh बाबूजी ने बारंबार अहरह स्वाध्याय हेतु प्रेरित किया। स्वाध्याय से बुद्धि को पोषण मिलता हैं और निश्चयात्मक बुद्धि जब विवेक को धारण करती हैं तब मन विवेक के अनुरूप कल्पना करता है, वैसे ही विचारों को आकर्षित करता है। संचालक मन के नियंत्रण से दसों इन्द्रियां मैत्रीवत व्यवहार करने लगते हैं। पंच तन्मात्रायें भी लोकाचार हेतु विवेक का साधन बन जाती हैं। चित्त का भी शोधन हो जाता है और अहंकार का रूपांतरण होता है।
रचनाकार ने कुछ भी ग़लत नहीं रचा। समदर्शी, नियामक, विधाता, सर्वव्यापी …. में यकीन रखने वाले आस्तिक वहीं कहे जा सकते हैं जो हर हाल में मस्त रहें और इस सृष्टि की सुव्यवस्था में व्यस्त रहें।
अद्वैत की इस साधना में पृथकता के महत्व को कुछ इस तरह जाना की पृथकता की परिधि कर्तव्य संपादन व निष्पादन की विधि व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने हेतु मात्र है। सुलझन या उलझन यह तो दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
तन्मात्रा साधना का उद्देश्य आत्म सत्ता का पदार्थ जगत पर नियंत्रण स्थापित करना है। और यह तभी संभव बन पड़ता है जब विवेक का जागरण हो। प्रज्ञा का अवतरण हो – जिस हेतु अराध्य सत्ता प्रज्ञावतार की भूमिका पर धरा पर आये। हम उनके जीवन चरित्र का भी अनुसरण मात्र करें तो प्रज्ञा का अवतरण निश्चित है। गुरुदेव – तपोनिष्ठ तो वेदमूर्ति भी, सागर सा गांभीर्य तो शिष्यों संग हास्य व मनोविनोद को भी शिक्षण का माध्यम बना देते।
गायत्री का तृतीय मुख मनोमय कोश है। इस कोश को सुव्यवस्थित कर लेना जैसे तीसरे बन्धन को खोल लेना है, आत्मोन्नति की तीसरी कक्षा पार कर लेना है।
पंचकोशी साधना एक कमप्लीट पैकेज है। १९ क्रियायोग का निर्धारण क्रमवार बढ़ने हेतु है सभी एक दूसरे के पूरक हैं अभिन्न हैं।
जीवन साधना के तीन क्रम – आत्म समीक्षा, आत्मसुधार व आत्म विकास। आत्मनिर्भरता, आत्मबल आत्म सम्मान, आत्मीयता, आत्म संतुष्टि आत्म दर्शन आदि सब जीवन साधना का प्रतिफल हैं।
शब्दों में भले ही आध्यात्म ना बांध पाऊं लेकिन आत्म संतुष्टि है कि अब अध्यात्म जानने समझने व जीने का क्रम चल पड़ा है …. जय युग ऋषि श्रीराम।
आ॰ संजय शर्मा जी (नई दिल्ली).
तन्मात्रा साधना से आ॰ भैया ने जीवन में संतुलन @ स्थित प्रज्ञता प्राप्त की।
रूप तन्मात्रा साधना में भैया ने शारीरिक सुंदरता और कुरूपता से उपर उठकर एकरूपता @ आत्म दर्शन को साधा।
प्राकृतिक सौन्दर्य को भी रूप साधना के प्रयोग का माध्यम बनाया और संसार की वास्तविकता को जाना।
स्पर्श तन्मात्रा से काम ऊर्जा का ओजस् तेजस् व वर्चस् में रूपांतरण किया।
जीवन के हर एक कर्म का माध्यम बनते हुए भी कर्म-फल में आसक्त ना होना भैया के साधना की विशिष्टता है।
आ॰ शरद निगम जी (चित्तौड़, राजस्थान)
चेतनाया हि केन्द्रं तु मनुष्याणां मनो मतम्। जायते महतीत्वन्तः शक्तिस्तस्मिन् वशंगते।।22।।
मनुष्यों में चेतना का केन्द्र मन माना गया है उसके वश में होने से महान अन्तः शक्ति पैदा होती है।
ध्यान त्राटक तन्मात्रा जपानां साधनैर्नंनु। भवत्यत्युज्वलः कोशः पार्वत्येश मनोमयः।।23।।
ध्यान, त्राटक, तन्मात्रा और जप इनकी साधना करने से हे पार्वती मनोमय कोश अत्यन्त उज्वल हो जाता है। यह निश्चय है।
आ॰ भैया ने गंध तन्मात्रा साधना का प्रयोग फूलों और हर्ब्स के माध्यम से की।
ज्ञात हुआ कि एक फुल का गंध अनेक गन्धों का मिश्रण है जैसे प्रकाश सात रंगों का मिश्रण होता है। भैया ने अंतः त्राटक और प्रत्याहार को साधा।
शब्द तन्मात्रा में भैया ने मन की एकाग्रता को साधा और सुक्ष्म कर्णेन्द्रियों विकसित हो रही हैं और नाद अनुसंधान का क्रम चल पड़ा है।
मन की एकाग्रता को साधने के क्रम में मन की chemistry को समझना जरूरी है जिसमें तन्मात्रा साधना की भूमिका महत्वपूर्ण है।
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी & प्रश्नोत्तरी
पंच तन्मात्रायें हम सभी के सांसारिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है जो हम पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं। सुनने, देखने, खाने – पीने, सुंघने और छूने का क्रम चलता रहता है।
बंधन और मुक्ति हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। प्रज्ञा/विवेक का जागरण ही मुक्ति का मार्ग ही प्रशस्त करती है।
तन्मात्रा साधना से हम राग – द्वेषात्मक स्थिति से उपर उठकर अल्फा स्टेट में चले जाते हैं।
अप्रिय वस्तुओं में तन्मात्रा साधना कर उसके प्रति उद्विगनता को शांत किया जा सकता है।
प्रिय वस्तुओं के रसानुभूति को स्मरण में रखकर सुक्ष्म तन्मात्रा से ग्रहण करने से स्थूलता के side affect को काटा जा सकता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ||
Writer: Vishnu Anand