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Tantra Mahavigyan – 1 (Vedachar)

Tantra Mahavigyan – 1 (Vedachar)

PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Session) – Online Global Class – 15 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

Please refer to the video uploaded on youtube. https://youtu.be/Jpv-PwCYDZs

sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: वेदाचार

Broadcasting: आ॰ नितिन आहूजा जी

आ॰ श्रद्धेय श्री लाल बिहारी बाबूजी

प्रज्ञा अभियान – प्रज्ञा पुत्रों व प्रज्ञा पुत्रियों का नैतिक कर्तव्य है कि वे प्रज्ञावतार के विचारों को हर एक झोपड़ी व हर एक खोपड़ी तक पहुंचाएं।
गुरुदेव कहते हैं उनके विचार बहुत पैने हैं। सार्थक व प्रभावी उपदेश वे हैं जो केवल वाणी से नहीं प्रत्युत् आचरण से भी प्रस्तुत किये जाते हैं। जो अपने आचार (आचरण) को सिद्ध कर प्रेरणापुंज बन आचरण  से प्रेरणा का प्रसारण करते हैं वे ‘आचार्य’ कहे जाते हैं।
किसी भी गुण, कर्म व स्वभाव के व्यक्ति गायत्री पंचकोशी साधना का आश्रय लेकर १० वर्ष में आत्म – परमात्म साक्षात्कार कर सकते हैं।
ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग अपनी रूचि के अनुसार किसी का भी आश्रय लेकर लक्ष्य (अद्वैत) सिद्धि कर सकते हैं।
आत्मा‘ के उपर 5 आवरण हैं। उनके कालिमा युक्त होने की वजह से आत्मप्रकाश तक हमारी पहुंच नहीं बन पाती। ‘पंचकोश’ को उज्जवल बना कर आत्मा का प्रकाश तक हमारी पहुंच बनती है। कठोपनिषद में यमाचार्य नचिकेता से कहते हैं आत्मा के प्रकाश में ही आत्मा का अनावरण होता है। आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः। आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः। आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः।
गायत्री, त्रिपदा हैं। गायत्री साधक – ज्ञान, कर्म व भक्ति की उपासना, साधना व अराधना से उत्कृष्ट चिंतन (दृष्टिकोण), प्रखर (आदर्शवादी) चरित्र व शालीन व्यवहार का धारक बन जीवन को धन्य धन्य बनाता है।

भारतीय संस्कृति में आचार (आचरण/ व्यवहार) का बहुत महत्त्व है।
‘ब्राह्मणत्व’ का कारण केवल ‘सदाचार’ है। (महाभारत – वन पर्व)
आचार के कारण ही ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति ‘शुद्र’ व शुद्र कुल में जन्मा व्यक्ति ‘ब्राह्मण’ हो जाता है। (मनुस्मृति)
आचारहीन पुरूष को वेद पवित्र नहीं करते हैं। (वशिष्ठ स्मृति)
आचारहीन निंदनीय कहे जाते हैं। तंत्र शास्त्र में आचारों का विशेष महत्व है। सप्त आचार:-
१. वेदाचार, २. वैष्णवाचार, ३. शैवाचार, ४. दक्षिणाचार, ५. वामाचार, ६. सिद्धान्ताचार व ७. कौलाचार।
उपरोक्त में पहले ४ आचार – पशु भाव से, वामाचार व सिद्धांताचार – बीर भाव व कौलाचार – दिव्य भाव से जुड़े हैं।

स्मरण रहे कि एक कक्षा में उत्तीर्ण (pass) होने के बाद दूसरे कक्षा में प्रवेश मिलता है। संयम की साधना के पश्चात संसाधनों का सदुपयोग संभव बन पड़ता है। ‘सद्ज्ञान’ की सार्थकता ‘सत्कर्म’ में है। एवं सत्कर्म की सार्थकता लोकसेवा (सरसता) में है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण (चिंतन-मनन) से प्रखर (आदर्शवादी) चरित्र बनता है। उत्कृष्ट चिंतन व प्रखर चरित्र की परिणिति (result) शालीन व्यवहार है।

उत्कृष्ट दृष्टिकोण + प्रखर चरित्र = शालीन व्यवहार। अर्थात् साधक शालीनता/ प्रेम/ आत्मीयता के parameter को रखकर अपने दृष्टिकोण की उत्कृष्टता व चरित्र की प्रखरता को आत्मनिरीक्षण द्वारा माप सकता है। आत्मपरिष्कार = आत्मनिरीक्षण + आत्मसुधार + आत्मनिर्माण + आत्मप्रगति।

योग वशिष्ठ रामायण में सप्त ज्ञान भूमिकाएं हैं – १. विकिदिषा (शुभेच्छा), २. विचारणा, ३. तनुमानसा, ४. सत्वापति, ५. असंसक्ति, ६. पदार्थभाविनी & ७. तुरीया। योग वशिष्ठ में ज्ञान की व तन्त्र में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की प्रमुखता दी गई है।

वेदाचार

उद्देश्य – बाह्य शुद्धि।
उपाय -१. वेदाध्ययन। २. वेदानुकूल आचरण।
‘तन्त्र’ वेदों का विरोध नहीं प्रत्युत् साधना के प्रथम चरण में ही वेदाध्ययन व वैदिक क्रियान्वयन का समर्थन करते हैं।
वेद‘ को केवल अध्ययन करने से नहीं प्रत्युत् वेद को जीने से बात बनती है। वेद की आज्ञा है:-
माता-पिता के आज्ञाकारी व प्रिय बनो। (अथर्ववेद – ३/३०/२)
चोरी का धन मत खाओ। (अथर्ववेद – १४/./५७)
पाप की कमाई छोड़ दो। (अथर्ववेद – ७/११/५१)
वह कार्य करो जिससे दूसरे को कष्ट ना हो। (ऋग्वेद – १/७४/१)
सब प्रकार के दुष्कर्मों से बचो। (अथर्ववेद – १०/१/१०)
मानसिक पापों का परित्याग करो। (अथर्ववेद – २०/६/२४)
असत्य को त्याग कर सत्य को ही ग्रहण करना चाहिए। (यजुर्वेद)
संयमी मनुष्य स्वर्ग को जीत लेता है। (ऋग्वेद)
प्रसुव यज्ञश्र – सत्कर्म ही किया करो। (यजुर्वेद ३०)
बुजुर्गो से शिष्टाचार बरतो। (अथर्ववेद १२/२/३४)
पवित्र बनो व शुभ कर्म करो। (यजुर्वेद १/१३)
एक दुसरे से प्यार करो‌। (अथर्ववेद ३/१०/१)
संसार में किसी से द्वेष मत करो। (यजुर्वेद २/३)
मधुरता की प्रतिमान प्रतिमा बनो। (यजुर्वेद ३७)
भद्रे कर्णेभि श्रृणुयाम् – कानों से अच्छे विचार ही सुनो। (यजुर्वेद ३०)
प्रातः’ सायं आत्म-चिन्तन करना चाहिए। (अथर्ववेद ३/३०/७)
पुनन्तु मां देवगनाः पुनन्तु मनसा धियः। पुनन्त विश्वा भूतानि जानतवेदः पुनीत मा।
देवताओं के अनुगामी पुरुष मुझे पवित्र करें। मन से सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करें। संपूर्ण प्राणिगण, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश आदि पंचभूत मुझे पवित्र करें। परमेश्वर भी मुझे पवित्र करें।

साधक‘ को आत्मोत्कर्ष के लिए जो साधना करनी होती है उसकी नींव रखने वाले ये आचार हैं। जिनमें ‘संयम’ (इन्द्रिय संयम, समय संयम, विचार संयम व अर्थ संयम) की साधना करनी होती है। अन्यथा विभिन्न प्रकार के असंयमों से साधक की शक्ति क्षीण होगी और उसके ‘आत्मप्रगति’ का मार्ग अवरूद्ध हो जायेगा फलस्वरूप लक्ष्य सिद्धि – ‘अद्वैत’ में बाधा पड़ेगी। वेदाचार में  परिपक्व साधक को ही वैष्णवाचार में प्रवेश मिलता है।

मध्यकालीन युग में स्वार्थपरक व्यक्तित्व के स्वार्थपूर्ति हेतु स्वार्थ पूर्ण भाष्यों द्वारा जाति, लिंग, वर्ण आदि के आधार पर इतनी असामानता/ विषमता उत्पन्न हुई की उसका खामियाजा समाज को आज तक भुगतना पड़ रहा है। ‘वेद’ समानता/ आत्मीयता/ अद्वैत का मार्ग प्रशस्त करते हैं। 
ऋषि मुनि यति तपस्वी योगी, आर्त अर्थी चिंतित भोगी। जो जो शरण तुम्हारी आवें, सो सो मनोवांछित फल पावें।।

प्रश्नोत्तरी सेशन

ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन कर्तव्यवान् (dutiful) रहें। आत्मिकी में सांसारिक आसक्ति (लोभ, मोह व अहंकार) के प्रति गुंगा, बहरा व अंधे के भांति जीना होता है।

सिद्धांत (विचार) को निरंतर चिंतन मनन  द्वारा ‘चरित्र’ में साध कर उसे आत्मीय (शालीन) व्यवहार द्वारा जिया जा सकता है। आचरण से केवल मनुष्य ही नहीं प्रत्युत् संपूर्ण प्राणिमात्र व पंचभूतात्मक प्रकृति को प्रभावित किया जा सकता है।

सावित्री कुण्डलिनी तंत्र का अध्ययन कर तन्त्र विज्ञान की पवित्रता व सार्थकता को समझा जा सकता है।
‘‘मद्यं, मासं च मत्स्यं च मुद्रा मैथुन एव च
मकार पंचकं प्रोक्तं-देवता प्रीतिकारकम्’’
अर्थ – मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन नामक 5 मकार देवताओं के लिए प्रीति कारक हैं। इन रूपक अलंकार में लिखे 5 मकार  के अध्यात्मिक वैज्ञानिक विवेचन को पढ़ा समझा जा सकता है।

संसाधनों का सदुपयोग अथवा दुरूपयोग व्यक्ति के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। भयवश प्रगति का मार्ग अवरूद्ध नहीं किया जाता। रूपांतरण से बात बनती है। दमन कर रूपांतरण नहीं होता वरन् संयम (cleaning + healing) से रूपांतरण होता है @ Approached – Digested – Realised.

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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