Tantra Mahavigyan – 3 (Shaivachar)
PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Session) – Online Global Class – 17 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
Please refer to the video uploaded on youtube. https://youtu.be/jrfOLoLToqk
SUBJECT: शैवाचार
Broadcasting: आ॰ नितिन आहूजा जी
आ॰ श्रद्धेय श्री लाल बिहारी बाबूजी
‘आत्मसाधना‘ में पूर्व की कक्षा को छोड़कर आगे की कक्षा में छलांग नहीं लगाई जाती है। अर्थात् क्रमवार (step wise) आगे बढ़ा जाता है अन्यथा साधक पतनोन्मुखी हो जाता है तथा स्वयं व अन्यों हेतु घातक सिद्ध होता है।
‘आसन‘ लाभ नहीं दे रहे हैं अर्थात् यम नियम की अनदेखी की गई है। ‘ध्यान’ नहीं लगता अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार में साधक परिपक्व नहीं हुआ है। आत्मसाधक द्वारा अध्यात्म को रचाने (approached) पचाने (digested) व बसाने (realised) से बात बनती है।
‘मूर्तियां‘ (खुली पाठ्य पुस्तकें) व देव शक्तियों के रूपक अलंकारिक वर्णन में अनेकानेक अध्यात्मिक गुढ़ रहस्य समाहित हैं। उसे तत्त्वतः जानने, समझने व जीने से देवत्व का अवतरण संभव बन पड़ता है।
‘वेद’ को समझना व जीना आसान हो जाता है जब हम गायत्री महामंत्र के तत्त्व दर्शन के शिक्षण का अनुसरण करते हैं।
चार वेद की मातु पुनीता, तुम ब्रह्माणी गायत्री सीता। महामंत्र जितने जग माही, कोऊ गायत्री सम नाही।।
वेदाचार व वैष्णवाचार में परिपक्व साधक को तंत्र महाविज्ञान की तीसरी कक्षा शैवाचार में प्रवेश पाते हैं। इस आचार की विशेषता यह है कि सभी कार्यों में ‘शिव’ के तात्विक स्वरूप की भावना करते हैं।
‘स्थूल शरीर’ हेतु कुण्डलिनी जागरण साधना (6 चक्रों), ”सुक्ष्म शरीर’ हेतु पंचकोश साधना (5 कोश) व ‘कारण शरीर’ हेतु [3 ग्रंथियों (सतो, तमो व रजो ग्रंथि) का भेदन/ 3 भाव – पशु भाव, वीर भाव व दिव्य भाव]। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार हेतु गुरुदेव आत्मसाधकों को तीन शरीर की साधना हेतु अर्थात् पूर्णता की प्राप्ति हेतु 14 साधना (6 चक्र + 5 कोश + 3 ग्रन्थि/ भाव) हेतु प्रेरित करते हैं
शिव: कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्। सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भबं भवानीसहितं नमामि।।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतोत इषवे नम:। दुष्टों को रुलाने वाले रुद्र; तुम्हारे क्रोध के लिए मेरा नमस्कार।
ॐ पंचवक्त्राय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्रः प्रचोदयात्।
एकादश रूद्र = 10 प्राण + 1 आत्मा।
5 कर्मेन्द्रियाँ (मुख, हस्त, पाद,उपस्थ और वायु), 5 ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्र, नेत्र, नासिका, जिह्वा, त्वक्) और वागिन्द्रिय (मन) ही एकादश रुद्र देवता है।
शिव का वर्ण – श्वेत। ईश्वर का रंग श्वेत है। यही प्राणी का अंतिम लक्ष्य है। श्वेत रंग सभी रंगों का मिश्रण है। सब रंगों की क्रियाशीलता से श्वेत रंग की उत्पत्ति होती हैं। शिव को प्रत्यक्ष करने हेतु क्रियाशीलता आवश्यक है। श्वेत रंग में स्वाभाविकता है। शिव का रूप भी स्वाभाविक है, कृत्रिमता उनसे दूर रहती है। श्वेत रंग ‘ज्ञान’ का प्रतीक है। श्वेत रंग ‘सात्विकता’ का प्रतिनिधित्व करता है और ‘अद्वैत’ की ओर प्रेरित करता है। कण कण व संपूर्ण प्राणिमात्र में उनका वास मानना, उन्हें तत्त्वतः जानना और सारे जगत से अभिन्नता अनुभव करना ही शिव के श्वेत वर्ण की प्रेरणा है।
शिव के गले में सर्प। ‘सर्प’ तमोगुण व क्रोध के प्रतीक हैं। शिव उन्हें अपने नियंत्रण में रखते हैं। इनके रहते हुए भी इनसे अप्रभावित रहते हैं। ‘सर्प’ संहारक शक्ति व काल का प्रतीक हैं। काल किसी को नहीं छोड़ता, परन्तु जो साधक शरीर भाव से उपर उठ जाते हैं, वह इससे अलिप्त रहता है। शिव के गले में काल लटकता है किंतु उन्हें स्पर्श भी नहीं कर सकता। सर्प मनुष्य जाति के शत्रु हैं। शिव शत्रुओं को गले लगाते हैं और हिंसा प्रवृत्ति को बदल देते हैं।
शिव की जटाओं में ‘गंगा’ पवित्रता व शान्ति की प्रतीक हैं। शिव की उग्र संहारक शक्ति है। उग्रता मस्तिष्क में ही रहती है, वहीं ज्ञान गंगा प्रवाहित होती है। विष व अमृत दोनों का शरीर में वास होता हैं। विष के रहते हुए भी उनके मस्तक में जटाओं से अमृत धारा प्रवाहित होती है।
शिव का त्रिनेत्र विवेक व नीर क्षीर सात्विक बुद्धि का प्रतीक है। जब ‘तम’ सर उठाता है तो वे उसे उग्र रूप धारण करके जला डालते हैं। शिव तनावों से विचलित नहीं होते प्रत्युत् शान्ति पूर्वक सुलझाते हैं।
शिव के शरीर पर अर्द्ध चंद्र इस बात का प्रतीक है शिव की शांत गंगा में कभी ज्वार भाटा नहीं आता। आवेश रूपी लहरें शिव समुद्र में कभी आ ही नहीं सकती।
शिव शरीर पर भस्म और मुण्ड धारण करते हैं। भस्म व मुण्ड, संहार मृत्यु के चिन्ह हैं। यह विश्व के नश्वरता का प्रतीक है।
शिव जी का ‘त्रिशूल’ शारीरिक (ओजस्), मानसिक (तेजस्) व आध्यात्मिक (वर्चस्) त्रिविध शक्तियों का प्रतीक हैं। जिससे त्रिविध आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक कष्टों/तापों/ शुलों को नाश होता है।
शिव व्याघ्र चर्म ओढ़े रखते हैं। व्याघ्र जैसे शक्तिशाली पशु शिव शक्ति के सामने नहीं ठहरते। शिव शक्ति के स्रोत व नियंत्रक हैं।
शिव के 4 हाथों में मृग – यज्ञ के, परशू – संहारक शक्ति, वर – सर्वसमर्थ व सर्वशक्तिमान तथा अभय – भक्तों की रक्षा के प्रतीक हैं।
शिव का वाहन वृषभ – धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के प्रतीक हैं।
‘शैवाचार‘ में साधक की विशिष्टता तभी होती है जब शिव तत्त्व/ शक्ति उसके गुण, कर्म व स्वभाव में अवतरित अर्थात् उसके आचरण में परिलक्षित होती है।
समत्वं योग उच्यते – संतुलन/ समता। त्रिगुणात्मक (सत्व, तम व रज) संतुलन। तत्त्वों का संतुलन। तीनों शरीर का संतुलन। Muscular, Mental and Emotional – balance से ही त्रिविध बंधन/ ताप/ शुलों से मुक्ति मिलती है।
ध्यानम् नित्यानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि।।
त्रिपुरासुर – लोभ (स्थूल शरीर में अर्थात् पदार्थों से आसक्ति), मोह (सुक्ष्म शरीर में अर्थात् संबंधों से आसक्ति) व अहंकार (कारण शरीर में अर्थात् मान्यताओं से आसक्ति) के नाश/ रूपांतरण हेतु महादेव ने त्रिशूल चलाया। त्रिशूल में त्रिशूल निकलने लगे। त्रिशूल अर्थात् गायत्री महामंत्र – गायत्री, त्रिपदा (ज्ञान, कर्म व भक्ति) हैं। ॐ (अ + उ + म) से – भूः, भुवः व स्वः (3)। भूः से – तत् सवितुः वरेण्यं, भुवः – भर्गो देवस्य धीमहि, स्वः – धियो यो नः प्रचोदयात्।
प्रश्नोत्तरी सेशन
‘ब्रह्मा‘ जी का मंदिर पुष्कर में है। सन्मार्ग के रास्ते पर चलने वाले शिव कहे जाते हैं। हनुमान, शिव जी के ज्यादा मंदिर होने की वजह ‘लोकसेवा’ है।
‘शिव‘ जी का व्याघ्र छाल ओढ़ना उनके पराक्रम (सर्वसमर्थ व सर्वशक्तिमान) का प्रतीक हैं। साथ में शिव जी भोलेनाथ (सज्जन) भी हैं। प्रज्ञोपनिषद् में धर्म के 10 लक्षणों – 5 युग्मों में एक युग्म ‘सौजन्य व पराक्रम’ का है। सज्जनता व पराक्रम एक दूसरे को पूर्ण बनाते हैं। ‘बहादुरी’ के संग ‘समझदारी’ का समन्वय आवश्यक है। ‘जिम्मेदारी’ के संग ‘इमानदारी’ का समन्वय आवश्यक है।
‘शिव‘ जी के वृषभ नंदी – बल व उसके नियोजन श्रमशीलता के प्रतीक हैं। नंदी जी की भक्ति पूजनीय है। नंदी चरित्र में आस्था (श्रद्धा – विश्वास), प्रज्ञा (योग्यता), श्रम (सेवा) व निष्ठा (तन्मयता/ मनोयोग) का समन्वय है। नंदी जी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के प्रतीक हैं।
शिव पूजा अर्चना की सार्थकता इसमें है की शिवत्व (शिव के तत्त्व दर्शन) को हम जीवन में रचायें, पचायें व बसायें। स्थूल से सुक्ष्म व सुक्ष्म से कारण में प्रवेश करें।
सर्वत्र ब्रह्म के दर्शन हेतु दृष्टिकोण में ब्रह्म का अवतरण आवश्यक है। उपाय – गायत्री महामंत्र की उपासना (approached), साधना (digested) व अराधना (realised)।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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