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Tantra Mahavigyan – 4 (Dakshinachar)

Tantra Mahavigyan – 4 (Dakshinachar)

PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Session) – Online Global Class – 18 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

Please refer to the video uploaded on youtube.https://youtu.be/TxGDbbHsk9c

sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: दक्षिणाचार

Broadcasting: आ॰ नितिन आहूजा जी

आ॰ श्रद्धेय श्री लाल बिहारी बाबूजी

अध्यात्म‘ में सबसे अधिक क्षति तन्त्र महाविज्ञान को पहुंचाईं गई है। तन्त्र महाविज्ञान भावना का विज्ञान है। इसकी पहुंच कारण शरीर तक है। इसके द्वारा चेतना का पदार्थ पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है।

मानवीय चेतना को 5 भागों @ ‘पंचकोश’ में विभक्त किया गया हैं:-
१. अन्नमय कोश – इन्द्रिय चेतना।
२. प्राणमय कोश – जीवनीशक्ति।
३. मनोमय कोश – विचार-बुद्धि।
४. विज्ञानमय कोश – अचेतन सत्ता एवं भाव-प्रवाह।
५. आनन्दमय कोश – आत्मबोध/ आत्मजाग्रति।

विज्ञानमय कोश से हमारा ‘व्यक्तित्व’ (personality) define होता है। गुण, कर्म व स्वभाव का समुच्चय ‘व्यक्तित्व’ है। चिंतन, चरित्र व व्यवहार का समुच्चय ‘व्यक्तित्व’ है।

दक्षिणाचार. ‘दक्षिण’ शब्द का अर्थ है – अनुकूल। अनुकूल आचार को ‘दक्षिणाचार’ कहा जाता है। वेदाचार, वैष्णवाचार व शैवाचार में साधक ने जो ज्ञानार्जन किया उसे दृढ़ करने के ‘दक्षिणाचार’ बनाया गया है। इसकी की सर्वप्रथम ऋषि दक्षिणामूर्ति जी ने की अतः उनके नाम पर इस आचार का नामकरण हुआ।
ईश्वर‘ का कोई लिंग नहीं होता। वो स्त्री (देवी) व पुरुष (देवता) दोनों रूपों में पूजनीय हैं। नर व नारी एक समान। आधुनिक काल में नारी को केवल रमणीय व भोग्या जैसे भ्रष्ट दृष्टिकोण से देखा जाने लगा है अतः संस्कृति के उत्थान के लिए नारियों के प्रति पवित्र दृष्टिकोण हेतु देवी पूजा की नितांत आवश्यकता है।

समन्वित पद्धति. पशु भाव के अंतर्गत – वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार व दक्षिणाचार आते हैं। अतः इन चारों को ‘पश्वाचार’ कहते हैं। तन्त्र साधना: –
१. सर्वप्रथम भारतीय संस्कृति के आधार ‘वेद‘ के अध्ययन व तदनुरूप आचरण की प्रेरणा देती है। (वेदाचार)
२. विष्णु के तत्त्व ज्ञान को जीना। (वैष्णवाचार)
३. शिव के तत्त्व ज्ञान को जीना (शैवाचार) 
४. देवी (शक्ति) की उपासना अर्थात् शाक्त के तत्त्व दर्शन को जीना। (दक्षिणाचार)
इस तरह ‘तन्त्र’ सर्वदेव पूजा को प्रोत्साहन देती है। विभिन्न संप्रदायों के बीच विरोधाभास को खत्म कर साधक को एक व्यापक दृष्टिकोण देती है। जिसमें संकीर्णता का कहीं कोई स्थान नहीं है। समानता व सभी को सम्मान देने का उन्नत दृष्टिकोण विकसित करती हैं।

मानव शरीर पाना ही उपलब्धि नहीं वरन् मानवीय गरिमा युक्त अंतःकरण के धारक बनना सही मायने में उपलब्धि कहीं जा सकती हैं।  देव संस्कृति – दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन व सत्प्रवृत्ति संवर्धन। तप व योग की समन्वयात्मक पद्धति ‘देव संस्कृति’ है।

तन्त्र महाविज्ञान संपूर्ण रूप से व्यवहारिक अर्थात् आत्मिकी (अद्वैत) को आचार (आचरण) में अवतरण (जीने) का मार्ग प्रशस्त करती हैं। इसमें आडंबरों का कहीं स्थान नहीं है प्रत्युत् मौलिकता से परिपूर्ण हैं।

गुरूदेव के 18 युगनिर्माण सत्संकल्पों में गीता के 18 अध्याय की आत्मा सन्निहित हैं।

त्वं स्त्री पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥३॥ (श्वेताश्वर उपनिषद् – चतुर्थ अध्याय) अर्थात् तू स्त्री है, तू पुरुष है, तू ही कुमार या कुमारी है और तू ही दण्ड के सहारे चलता है तथा तू ही उत्पन्न होने पर अनेकरूप हो जाता है॥३॥

स्त्री निर्मात्री भवति। स्त्री निर्माण करती हैं। आदिशक्ति हैं।
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि  शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न  भवति॥२॥
अर्थात् : हे माँ ! सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता!  मैं पूजा की विधि नहीं जनता। मेरे पास धन का भी अभाव है। मैं स्वभाव से भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक-ठीक पूजा का संपादन भी नहीं हो सकता। इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में जो त्रुटी हो गई है उसे क्षमा कर देना – क्योंकि पुत्र का कुपुत्र होना तो संभव है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती

नास्ति भार्यां समं मित्रं। पति-पत्नी जीवन में एक दूसरे को पूर्णता प्रदान करते हैं। शिव का अर्धनारीश्वर रूप इसका द्योतक है। एक सफल पुरूष के पीछे एक स्त्री होती है। विपरीत स्वभाव के पति-पत्नी ने भी आदर्श जीवन जीया है। संत तुकाराम, दार्शनिक सुकरात, विद्योत्तमा आदि के उदाहरण से समझा जा सकता है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

बाह्याभ्यन्तरः शुचि अर्थात् पवित्रता – बाह्य व आन्तरिक दोनों हो। अध्यात्म – अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित। आत्मसाधक orthodox नहीं होते। अध्यात्म की पूर्णता ‘अद्वैत’ है अर्थात् स्वयं आत्मा में सब भूतों को एवं सभी भूतों में स्वयं आत्मा को देखना है। ‘ज्ञान’ व ‘कर्म’ की समन्वयात्मक पद्धति ‘भक्ति’ प्रधान तन्त्र महाविज्ञान है। गायत्री, त्रिपदा (ज्ञान, कर्म व भक्ति) हैं।

मानव जीवन के दो परम लक्ष्य:- १. मैं कौन हूं? – आत्मबोध/ आत्मकल्याण/ देवत्व का अवतरण। एवं २. कर्तव्यपालन (Dutifulness) – तत्त्वबोध/ लोककल्याण/ धरा पर स्वर्ग का अवतरण।

नर व नारी एक समान। त्वमेव माता च पिता त्वमेव। शिव व शक्ति का मिलन – सहस्रार व मूलाधार का मिलन। शिव, शक्ति के बिना शव के समान‌ हैं। समासों में मैं द्वंद्व समास हूं। पुरूष व प्रकृति के मिलन से सृष्टि का संचालन है। एक पक्षीय अथवा एकांगी होना @ असंतुलन से बात बिगड़ती हैं। संतुलन/ समता/ आत्मीयता से बात बनती है @ समत्वं योग उच्यते।

पुरूष‘ अथवा ‘स्त्री‘ शरीर की अपराध में संलिप्तता हेतु संपूर्ण समाज जिम्मेदार है। उसके पोषण, संवर्धन व परिष्करण में कहीं भूल हुई है। भाव संवेदना से रूपांतरण संभव बन पड़ता है।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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