Tantra Mahavigyan – 5 (Vamachar)
PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Session) – Online Global Class – 19 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
Please refer to the video uploaded on youtube. https://youtu.be/ocymq0acTHc
sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: वामाचार
Broadcasting: आ॰ नितिन आहूजा जी
आ॰ श्रद्धेय श्री लाल बिहारी बाबूजी
गायत्री महाविज्ञान, तन्त्र महाविज्ञान। तन्त्र के संग महाविज्ञान का जुड़ना अर्थात् विज्ञानों में उत्कृष्ट। ‘सद्ज्ञान’ व ‘सत्कर्म’ के समन्वित क्रम से ‘सरसता’ उत्पन्न होती है। Theory & Practical दोनों को साथ लेकर चलने से अनुभव रूपी संपदा ‘विवेक’ उत्पन्न होता है। विवेक ‘मोक्ष’ का तो अविवेक ‘बंधन’ का मूल है। धर्म के 10 लक्षणों (5 युग्मों) के प्रथम युग्म में ‘सत्य व विवेक’ अर्थात् सत्य को विवेक के कसौटी पर कसा जाता है।
‘आत्मीयता‘ विकसित करने हेतु सर्वप्रथम ‘भाव संवेदना’ (आज्ञा चक्र) का जागरण करना होता है। आज्ञा चक्र जगा हो तो मूलाधार स्थिति शक्ति पतनोन्मुखी नहीं होती।
स्मरण रहे ‘दुष्प्रवृत्ति’ खत्म करनी होती है ना की दुष्प्रवृत्ति के धारक को। उदाहरणार्थ डाकू, वाल्मीकि में रूपांतरित होते रहे हैं। कामान्ध, संत तुलसीदास व सूरदास में रूपांतरित होते रहे हैं। ऊर्जा (प्राण) का कभी क्षय नहीं होता है अतः रूपांतरण से ही बात बनती है। आसक्ति (लोभ, मोह व अहंकार) का रूपांतरण अनासक्त (आत्मीयता/ समता) में करने से बात बनती है।
‘दक्षिणाचार‘ को पार करने के बाद ‘वामाचार’ में प्रवेश होता है। इसमें दिन में ब्रह्मचर्य का पालन, रात्रि में पंचतत्वों से भगवती की पूजा, और चक्रानुष्ठान करके मंत्र जप आदि सम्मिलित हैं। इसे अत्यंत गुप्त माना जाता है।
वाममार्ग ‘जितेन्द्रिय’ के लिए ही प्रशस्त है, इन्द्रिय लोलुप के लिए वाममार्ग में गति असंभव है।
लोलुप नरक व्रजेत। – लोलुप नरक को जाता है।
जो पर द्रव्य के लिए अंधा है, पर स्त्री के लिए नपुंसक है, पर निंदा के लिए गुंगा है और जो इन्द्रियों को सदा वश में रखता है ऐसा ब्राह्मण वाममार्ग का अधिकारी होता है। (मेरू तन्त्र)
‘तन्त्र‘ अत्यंत गहन है अतः उनका ‘भाव’ भी गुप्त है। वाममार्ग का अधिकारी वही हो सकता है जो वेद शास्त्र का तत्त्वज्ञानी है। बुद्धिमान साधक गूढ़ तन्तार्थ भाव का मंथन करके उनका उद्धार कर सके। इसके अतिरिक्त दूसरे दुःख के ही भागी होंगे। (भावचुड़ामणि)
सर्वोत्तम और सर्वसिद्धिदायक शिवोक्त मार्ग ‘जितेंद्रिय’ हेतु सुलभ है। अनेकों जन्म ग्रहण करने के बाद यह लोलुप के लिए सुलभ नहीं है। (पुरश्चर्यार्ण्व)
वामाचार का अर्थ ‘व्यभिचार’ नहीं प्रत्युत् ‘प्रतिकूलाचार’ है। अब तक साधक दक्षिणाचार तक की साधना में 4 आचारों की साधना कर संसार में सोते रहे थे। अब वामाचार में सांसारिक बन्धनों को खोलना पड़ता है। इसलिए इसे प्रतिकूलाचार या वामाचार भी कहते हैं।
युगाचार में प्रज्ञावान योगी का नाम वाम है। वाम उत्तम मार्ग है ना की भ्रष्ट पथ की ओर ले जाने वाला, जैसा की लोकमानस में भावनाएं व्याप्त हैं।
‘वाम–मार्ग‘ में ‘जितेन्द्रियता’ की अनिवार्यता होने की वजह से यह अन्य मार्गों की अपेक्षा कठिन है।
प्रथम आश्रम ‘ब्रह्मचर्य’ में वीर्य (प्राण) का रक्षण, संवर्धन व परिष्करण के बाद ‘साधु पुत्र जनयः’ ओजस्वी, तेजस्वी व वर्चस्वी संतति उत्पन्न करने का आदेश है।
‘पश्वाचार‘ (वेदाचार + वैष्णवाचार + शैवाचार + दक्षिणाचार = पशु भाव) अर्थात् ‘अनुकुलता’ में परिपक्व अर्थात् ‘जितेन्द्रिय’ (अनासक्त/ लोभ, मोह व अहंकार मुक्त) होने के पश्चात ‘वामाचार’ अर्थात् ‘प्रतिकूलाचार’ (वीर भाव) में प्रवेश मिलता है।
पंच मकार – मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा व मैथुन हैं। यह शब्द रूपक अलंकार में प्रयुक्त हैं। इनके बाजारू अर्थ को ना लेकर विशिष्ट ज्ञान/ तत्त्व ज्ञान को तत्त्वदर्शी के भांति देखें। तन्त्र महाविज्ञान भाव-भक्ति प्रधान हैं।
१. मद्य – मद्य/ मदिरा का प्रयोग का अर्थ दारू/ शराब से नहीं है प्रत्युत् सहस्रार रस से है। अनुकल्प में गुड़ व अदरक के रस के मिश्रण के रूप में लें।
२. मांस – मांस भक्षण का अर्थ मांस खाने से नहीं है प्रत्युत् स्व इन्द्रियो को अंतर्मुखी करने से है।
कठोपनिषद में यमाचार्य, नचिकेता से – यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि॥ अर्थात् बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे। मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे। ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे॥१३॥
३. मीन – यहां मीन (मत्स्य) का अर्थ मछली नहीं प्रत्युत् इड़ा-पिंगला (गंगा – यमुना/ सद्ज्ञान – सत्कर्म) स्वर के प्रवाह से है। जब साधक, इड़ा -पिंगला को संतुलित कर ‘सुषुम्ना स्वर’ (अनासक्त/ आत्मीयता/ भक्ति/ सरसता) में जीते हैं, यह मत्स्य भक्षण है।
४. मुद्रा – मुद्रा का अर्थ धन नहीं प्रत्युत् साधना में प्रयुक्त विभिन्न posture से है। मुद्रा वे हैं जो देवताओं को प्रसन्न करती हैं। गायत्री की 24 मुद्रायें हैं। हस्तमुद्रायें व यौगिक मुद्रायें हैं। 10 यौगिक मुद्रा में खेचरी मुद्रा, महामुद्रा, शक्तिचालिनी आदि का अभ्यास रूचि पूर्वक किया जा सकता है।
‘वित्त’ (धन) की सार्थकता सदुपयोगिता में है। औरों के हित जो जीता है, औरों के हित जो मरता है। उसका हर आंसु रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है।
हम जो बटोरते हैं वही बांटते हैं और जो बांटते हैं वही अभिवर्धन संग लौटकर आता है। अनासक्त कर्म/ आत्मीयता की खेती करें।
५. मैथुन – मैथुन से तात्पर्य मूलाधार चक्र स्थित ‘शक्ति’ और सहस्रार चक्र स्थित ‘शिव’ के मिलन से है। शिव-शक्ति का समागम ‘मैथुन’ है।
गायत्री पंचकोशी साधक, कुण्डलिनी जागरण साधना में उपरोक्त विवेचित पंच मकार का प्रयोग विवेक युक्त मन से कर सकते हैं।
प्रश्नोत्तरी सेशन
तत्सवितुर्वरेण्यं – जब दृष्टिकोण में ‘ब्रह्म’ का अवतरण हो जाता है तब यह समझ में आ जाता है की nothing is useless or worthless. Aim is to get infinity.
अवधूत दर्शन – अ (अविनाशी) + व (वरेण्यं) + धू (धूत संसार बन्धनं) + त (तत्त्वमसि)।
प्रतिकूलता में अनुकूलता को आत्मसात कराना ‘वामाचार’ का उद्देश्य है।
‘खजुराहो‘ के मंदिर विश्व के धरोहर में चिन्हित है। खजुराहो को गुरूदेव के दृष्टिकोण अर्थात् ऋषि चिंतन में देखने हेतु ‘आध्यात्मिक काम विज्ञान’ का अध्ययन किया जा सकता है।
पशु रूप में इन्द्रियों को लें। इन्द्रियों को अंतर्मुखी अर्थात् वाक् को मन में विलीन करें और यह यात्रा क्रमशः आत्म-भाव जाग्रत अर्थात् आत्म – परमात्म साक्षात्कार @ अद्वैत तक अनवरत चलती रहे @ चरैवेति चरैवेति।
‘अन्नमय कोश‘ (Physical Body) अन्न के रस से बना है @ अन्नो वै प्राणः। इन्द्रिय शक्ति इसकी विशेषता है। संतुलित आहार में ऋतभोक् (seasonal diet), मितभोक् (balanced diet) व हितभोक् (nutritious diet) का ध्यान रखें एवं विहार में सुरूचिपूर्ण योगाभ्यास, अध्ययन व अनुशासन जीवन क्रम में शामिल करें।
अन्न के अतिरिक्त सद्ज्ञान, सत्कर्म व भक्ति अर्थात् उपासना, साधना व अराधना से पंचकोश @ पांचों शरीर का पोषण, संवर्धन व परिष्करण होता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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