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Tantra Mahavigyan – 6 (Shidhantachar)

Tantra Mahavigyan – 6 (Shidhantachar)

PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Session) – Online Global Class – 20 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: सिद्धांताचार

Broadcasting: आ॰ नितिन आहूजा जी

आ॰ श्रद्धेय श्री लाल बिहारी बाबूजी

तन्त्र महाविज्ञान‘ – वेदमूर्ति तपोनिष्ठ महाप्राज्ञ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने तन्त्र महाविज्ञान के विशुद्ध रूप को सर्वसमक्ष रखा है।
अध्यात्म‘ द्वारा आत्म सत्ता का पदार्थ सत्ता पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है। समस्याएं अनेक, समाधान एक – अध्यात्म। आत्मिकी/चेतना/विद्या/ज्ञान/परा व भौतिकी/जड़/अविद्या/विज्ञान/अपरा का समन्वित क्रम – वैज्ञानिक अध्यात्मवाद/ तन्त्र महाविज्ञान का मार्ग ‘गायत्री महामंत्र’ प्रशस्त करती हैं।
अध्यात्म‘ की शुरूआत स्वस्थ शरीर से होती है। फिर मन भी स्वस्थ/ स्वच्छ हो अर्थात् स्वस्थ तन व संतुलित मन।

सिद्धांताचार –  वामाचार में परिपक्व साधक को सिद्धांताचार में प्रवेश मिलता है। अब तक साधक ‘अनुकूल’ व ‘प्रतिकूल’ दोनों प्रकार के ही साधनाएं कर चुका है। इस आचरण में प्रवेश लेने के बाद मन की चंचलता क्षीण होने लगती हैं और आत्मिक आनंद का रसस्वादन करने लगता है। ‘वीर भाव’ के अंतर्गत वामाचार और सिद्धांताचार आते हैं।

वेदाचार – वैष्णवाचार – शैवाचार – दक्षिणाचार – वामाचार – सिद्धांताचार – कौलाचार
क्रमशः विस्तार होता है। परिपक्वता से प्रगति अर्थात् परिपक्वता के बाद अगली कक्षा में प्रवेश मिलता है।
वैष्णवाचार‘ का साधक वेदाचार में परिपक्व होता है।
‘शैवाचार’ का साधक वेदाचार व वैष्णवाचार दोनों में परिपक्व होता है।

क्रमशः ================

सिद्धांताचार‘ का साधक वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार व वामाचार में परिपक्व/प्रवीण होता है।

साधक‘ पिछली कक्षा के प्रवीणता को भूलता/ छोड़ता नहीं है बस क्रमशः परिपक्व/ अनासक्त/ निष्काम होता जाता है।
ईशावास्योपनिषद् – विद्यां च अविद्यां च यः तत् वेद उभयम् सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते।।११।। अर्थात् जो विद्या और अविद्या दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है॥
सम्भूतिं च विनाशं च यः तत् वेद उभयम् सह। विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्या अमृतम् अश्नुते।।१४।। अर्थात् जो सम्भूति और असम्भूति (विनाशशील) दोनों को ही एक साथ जानता है,  वह विनाशशील की उपासना से मृत्यु को पार करके अविनाशी की उपासना के द्वारा अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है॥

‘पशु-भाव‘ (वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार व  दक्षिणाचार) में साधक  अनुकुलता/ परिभाषाओं में जीता है।
वीर-भाव‘ (वामाचार व सिद्धांताचार) में साधक परिभाषाओं/ अनुकूलता से बाहर निकलकर ‘प्रतिकूलता’ में ‘अनुकूलता’ का समावेश कर अनासक्त/ निष्काम/ स्थितप्रज्ञ हो जाता है।
दिव्य-भाव‘/ अद्वैत में पशु भाव व वीर भाव का परिपक्व/ प्रवीण साधक का जीना संभव बन पड़ता है। हे राम! विकारों में ब्रह्म को देखो – जब सर्वत्र ब्रह्म हैं तो विकार कहां!? विकार – भाव/ दृष्टिकोण में था अर्थात् क्रमशः भावनाओं को परिष्कृत करने हेतु पशु भाव, वीर भाव व दिव्य भाव में जीया जाता है।

सिद्धांताचार‘ में सिद्धांत का आचरण में अवतरण अर्थात् सिद्धांत को रचाने (approached) पचाने (digested) व बसाने (realised) अर्थात् जीने से बात  बनती है। यूं कहें कि सिद्धांत, व्यक्तित्व (गुण, कर्म व स्वभाव) में परिलक्षित होने लगते हैं। सिद्धांताचार में परिपक्व साधक ‘स्थित-प्रज्ञ’ हो जाते हैं। सा विद्या या विमुक्तये। आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः। अहं ब्रह्मस्मि। तत्त्वमसि। सोऽहम। सर्वखल्विदं ब्रह्म।

आत्मीयता‘ का अभाव ‘अचिंत्य चिंतन’ और ‘अयोग्य आचरण’ resulting रोग – शोक, कलह – क्लेश व नाश की मूल वजह है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

साधक‘ का ‘सिद्धि’ (सफलता) में आसक्त होना लक्ष्य ‘अद्वैत’ में बाधक बनता है अर्थात् आसक्ति बंधन का कारण बन जाती है। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।

ध्यान‘ (Meditation) की शुरुआत में  चित्त/स्मृति में संग्रहित अनुभव संस्मरण मनःक्षेत्र में उभरते हैं। इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है। अतः ये जब आते हैं तो इनके प्रति ‘साक्षी भाव’ रखकर इन्हें neutralise (उदासीन) कर दें। क्रियात्मक साधना – बहिर्मुखी व आत्मसाधना – अंतर्मुखी होती है। अंतःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि चित्त व अहंकार) जब बहिर्मुखी हों तो – वृत्तियां! वही जब अंतर्मुखी हों तो आत्मशक्ति/ आत्मविश्वास/ आत्मबल बन जाती हैं @ साधना में प्राण आ जाये तो कमाल हो जाए।

तन्त्र महाविज्ञान/ अध्यात्म में ‘संभोग’/ मैथुन को लैंगिक अर्थ में ना लें। मूलाधार स्थित शक्ति (स्त्री) व सहस्रार स्थित शिव (पुरूष) का मिलन/ समागम संभोग/ मैथुन है। ऋषि परंपरा में गृहस्थाश्रम में सृष्टि संचालन हेतु योग्य संतति उत्पन्न करने के लिए ऋषि दंपत्ति रतिक्रिया ‘यज्ञ’ करते हैं।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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