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Tantra Mahavigyan – 7 (Kaulachar)

Tantra Mahavigyan – 7 (Kaulachar)

PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Session) – Online Global Class – 21 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: कुलाचार

Broadcasting: आ॰ नितिन आहूजा जी

आ॰ श्रद्धेय श्री लाल बिहारी बाबूजी

आज गुप्त रात्रि की पूर्णाहुति है। तन्त्र का अन्तिम आचार ‘कौलाचार’ है। ‘कौल’ कहते हैं ‘ब्रह्म’ को।
‘पंचकोश’ में कौलाचार को ‘आनंदमय कोश’ की साधना से समझ सकते हैं। गायत्री पंचकोशी साधना, तन्त्र साधना का विशुद्ध तम रूप है। महोपनिपषद् में कौलाचार को तुरीयातीत अवस्था कहते हैं।
पंचाग्नि (प्राणाग्नि, जीवाग्नि, योगाग्नि, आत्माग्नि व ब्रह्माग्नि) में ‘ब्रह्माग्नि’ लक्ष्य है। ‘अग्नि’ में केवल स्थूल ‘उष्णता’ ही नहीं प्रत्युत् ‘शीतलता’ (coolness) भी है। सारे ‘आयाम’ (dimensions) साधक को उस आयाम तक पहुंचना अर्थात् ‘सायुज्यता’ बनानी होती है।    

सिद्धांताचार में परिपक्व साधक तन्त्र के अन्तिम आचार ‘कौलाचार’ में प्रवेश पाते हैं।
कौल‘ धर्म अत्यंत गहन है, जो योगियों के लिए भी गहन है।
अगम्यागमन, धूर्त, उन्मत्त, चूगल, झूठ, पाप वार्ता को उत्तम कौल छोड़ दे।
शिव, वैष्णव, शक्ति, सौर, गाणपत्य आदि सिद्धांतों के मन्त्रों द्वारा चित्त की शुद्धि होने पश्चात कौल ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) की प्राप्ति होती है।
जिस साधक की ‘अद्वैत’ भावना पूर्ण और विशुद्ध हो चुकी है वही सच्चे रूप से कौल पद का अधिकारी है।
श्रेष्ठ कौल वही है जो भेद ज्ञान से मुक्त हो सब भूतों में अपनी आत्मा और अपनी आत्मा में सब भूतों के दर्शन करता है।
कुल‘ शब्द शक्ति का वाचक है और ‘अकुल’ शब्द शिव का बोधक है। कुल और अकुल के संबंध को ‘कौल’ कहते हैं।
कुल‘ नाम गोत्र का है। ‘गोत्र’ शिव शक्ति से उत्पन्न है। ‘कौल’ वे कहलाते हैं जो शिव-शक्ति में अभेद मानता है।

अतः कौलाचार उच्च कोटि की साधना है। इसकी आलोचना करना तंत्र ज्ञान के अभाव का परिचायक है। 

मुण्डकोपनिषद – यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम् । नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मंतदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः॥६॥ अर्थात् वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण, और चक्षु श्रोत्र इत्यादि से रहित है एवं हाथ-पैर इत्यादि कर्मेन्द्रियों से भी रहित है, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म, अव्यय है तथा समस्त भूतों का कारण है उसे धीर पुरुष सब ओर देखते हैं॥

पृथ्वी‘ तत्त्व की आत्मा – जल, ‘जल’ तत्त्व की आत्मा – अग्नि, ‘अग्नि’ तत्त्व की आत्मा – वायु, ‘वायु’ तत्त्व की आत्मा – आकाश, ‘आकाश’ तत्त्व की आत्मा – आत्मा व ‘आत्म’ तत्त्व की आत्मा – ‘परमात्मा’। कुण्डलिनी जागरण की साधना में षट्चक्र भेदन की साधना में हम इसे अभ्यास में ला सकते हैं।

गायत्री‘ पंचकोशी साधना में अन्नमयकोश की आत्मा – प्राणमयकोश, प्राणमयकोश की आत्मा – मनोमयकोश, मनोमयकोश की आत्मा – विज्ञानमयकोश, विज्ञानमयकोश की आत्मा – आनंदमयकोश, आनंदमयकोश की आत्मा – आत्मा, आत्मा की आत्मा – परमात्मा।

अद्वैत‘ को जीने हेतु हमारी पहुंच परिवर्तनशील जगत में आधारभूत अपरिवर्तनशील चैतन्य सत्ता ‘ब्रह्म’ (परमात्मा) तक होनी चाहिए।  इस हेतु ‘आत्मा’ के उपर चढ़े 5 आवरण (खोल/ छिलके) ‘पंचकोश’ अनावरण की अनिवार्यता है। आत्मा के प्रकाश में ही आत्मसाक्षात्कार होता है और आत्मा के प्रकाश तक पहुंचने के लिए पंचकोश अनावरण अर्थात् पंचकोश को उज्जवल बनाने की अनिवार्यता है।

श्रीमद्भगवद्गीता – योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। अर्थात् जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता॥5/7॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्वयक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।  अर्थात् जो आसक्ति त्याग कर सभी कर्मों को ब्रह्म को समर्पित करके, निष्काम कर्म करता है, वह जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।।5/10।। 

आनंदमयकोश‘ में आनंद का प्रदुषण खंडानंद अर्थात् विषयों में आसक्त होने की वजह से आनंद का खंडित होना है। तेन त्यक्तेन भुंजीथा – चराचर जगत के परिवर्तनशील सत्ता में आधारभूत अपरिवर्तनशील चैतन्य सत्ता ‘ब्रह्म’ से सायुज्यता बिठाने से ‘अखंडानंद’ लभ्य होता है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

श्रीमद्भगवद्गीता –  कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
गुरुदेव कहते हैं कर्म से वैराग्य लेना भारी भूल है। वैराग्य, राग अर्थात् कर्मफल के आसक्ति से लिया जाता है।
ईशावास्य उपनिषद – ईशा वास्यम् इदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।१।। अर्थात्  इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ये जगत हैं, सब ईशा (ईश्वर) द्वारा ही व्याप्त है। उसके द्वारा त्यागरूप जो भी तुम्हारे लिए प्रदान किया गया है उसे अनासक्त रूप से भोगो। किसी के भी धन की इच्छा मत करो॥१॥
कुर्वन् एव इह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः। एवं त्वयि न अन्यथा इतः अस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।। अर्थात् इस लोक में करने योग्य कर्मों को करते हुए ही 100 वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। तेरे लिए इसके सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है। इस प्रकार कर्मों का लेप नहीं होता॥

हमलोग सभी ‘ब्रह्म‘ के कुल (गोत्र/खंदान) से आये हैं। जब ‘साधक’ को अपने मूल (आत्मा/ self) का साक्षात्कार हो जाता है तब वो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहते हैं।
हर एक ‘वक्ता‘ की वाणी अन्यों (others) को नहीं प्रत्युत् वक्ता के व्यक्तित्व (गुण + कर्म + स्वभाव) को परिलक्षित करते हैं। दुसरी तरफ ‘श्रोता‘ भी जिन अर्थों को ग्रहण करता है वो श्रोता के व्यक्तित्व को ही परिलक्षित करते हैं।

जीव-जंतु हेतु प्राणवायु ‘आक्सीजन(O2)’ तो ‘पेड़ – पौधे’ हेतु प्राणवायु ‘कार्बन डाई आक्साइड (CO2)’ है। प्रकृति में हर एक तत्त्व संतुलन का माध्यम हैं। Nothing is worthless or useless. Aim is to get infinity. इस infinity से सायुज्यता बिठाने में हम अन्य आकाशों (dimensions) में रमन करते हैं। इसका राजमार्ग ‘सुषुम्ना’ है। 

वेदों‘ की आत्मा ‘उपनिषद्’ व उपनिषदों का सार ‘गीता’ है। आज की गीता अर्थात् युगगीता ‘प्रज्ञोपनिषद्’ है। आज के सारे अर्जुनों के प्रश्नोत्तरी प्रज्ञोपनिषद् में सन्निहित है।
स्वाध्याय‘ (मैं कौन हूं?)/ सद्ज्ञान और ‘सत्कर्म‘ (ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन कर्तव्यवान्) में संलग्न रहें। ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते‘ – अभ्यास व वैराग्य से बात बनती है।
१. आस्था (श्रद्धा-भक्ति), २. प्रज्ञा (योग्यता), ३. श्रमशीलता व ४. निष्ठा (तन्मयता/मनोयोग) – ये ४ स्तंभ हैं सफलता हेतु। असफलता इनके अभाव का परिचायक है। इसे हम दैनंदिन जीवन में सहजता, नियमितता व अनुशासन आदि से समझ सकते हैं।
प्रातः आंख खुलते ‘आत्मबोध‘ व रात्रि बिस्तर पर सोने से पहले ‘तत्त्वबोध‘ की साधना से मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है ‌

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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