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Tratak Sadhna

Tratak Sadhna

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 24 Jul 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT:  त्राटक साधना

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ नितिन आहुजा जी (गुरूग्राम, हरियाणा)

गायत्री‘ का तृतीय मुख @ पंचकोशों में तीसरा ‘मनोमयकोश’ है। मन बड़ा चंचल और वासनामय है। मन में प्रचण्ड प्रेरक शक्ति है।

मन‘ का वश में होने का अर्थ है उसका बुद्धि के, विवेक के नियंत्रण में होना। आत्मकल्याणाय लोककल्यणाय में मन अपना हित समझे, तदनुरूप कल्पना करें, योजना बनाने, प्रेरणा देने का काम करने को मन तैयार हो जाए तो समझना चाहिए कि मन वश में हो गया है।
अनियंत्रित मन – क्षण क्षण में अनावश्यक दौड़ लगाना, निरर्थक स्मृतियों व कल्पनाओं में भ्रमण करता रहता है

मन‘ की एकाग्रता एवं तन्मयता में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उस शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं की जा सकती।

त्राटक‘ भी ध्यान का एक अंग है अथवा यों कहिए कि त्राटक का ही एक अंग ध्यान है। अन्तः त्राटक एवं बाह्य-त्राटक दोनों का उद्देश्य ‘मन’ को एकाग्र करना है।

त्राटक के लाभ:
एकाग्रता में वृद्धि
भेदक दृष्टि की उत्पत्ति
रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि
मानसिक व्याधियों से मुक्ति
मन पर नियंत्रण
समाधि की प्राप्ति

त्राटक में विकल्प:-
दीपक या जलती मोमबत्ती की लौ
बिन्दु त्राटक
देवता के चित्र पर त्राटक
दर्पण त्राटक
शिवलिंग पर त्राटक
चन्द्रमा, उगते हुए सूर्य, तारों पर त्राटक

ध्यान के 5 चरण :-
1. स्थिति – आसन का चुनाव
2. संस्थिति – इष्ट छवि निर्धारण
3. विगति – इष्टदेव के गुणावली का चिंतन
4. प्रगति – इष्ट के साथ हमारा संबंध
5. संस्मिति – इष्ट में विलय
अन्तःचेतना को परमात्म चेतना से जोड़ने और उसमें एकाकार होने का प्रयास ही ‘ध्यान’ है।
Example: मन की शक्ति – झिंगुर (साधक) का भृंग (परब्रह्म) में परिवर्तन।

त्राटक के प्रकार:-
1. बाह्य त्राटक (बाह्य साधन)
2. अन्तः त्राटक (सचेत भावना)
उपयोग: भौतिक व अध्यात्मिक साधना।

त्राटक लाभ (पंचकोश):-
अन्नमयकोश – रोग निदान (आंखों की रोशनी में सुधार, विटामिन डी की आपूर्ति, Strong bones, Detoxification, good digestion etc.
प्राणमयकोश – प्राण ऊर्जा संवर्धन
मनोमयकोश – नियंत्रित मन
विज्ञानमयकोश – तत्त्वबोध
आनंदमयकोश – आत्मबोध

वाणी के ४ प्रकार: १. बैखरी (शब्द) २. मध्यमा (भाव), ३. पश्यन्ती (विचार) व ४. परा (संकल्प)।

सूर्य त्राटक के प्रकार:-
1. भक्ति प्रधान – उगते हुए सूर्य का त्राटक/ ध्यान (पंचकोश जागरण साधना)
2. शक्ति प्रधान – दोपहर के सूर्य का त्राटक/ ध्यान (कुण्डलिनी जागरण साधना)
*भक्ति व शक्ति साधना साथ साथ

सूर्य त्राटक विधि … 1
मन की तैयारी (मुख्य भाव मित्रता व समर्पण)
धीरे धीरे आंख खोलें
15-30 मिनट सूर्य त्राटक (सहजता पूर्ण)
बंद आंखों से आज्ञा चक्र पर ध्यान
आंखें 3 बार कसकर बंद करें खोलें नहीं
दोनों हाथों को अच्छे से रगड़े व आंखों पर लगायें (relaxation)
सविता देवता को प्रणाम (भावपूर्ण)
श्वासन (आत्मानुभूति योग)

सूर्य त्राटक विधि …. 2
आज्ञा चक्र तृतीय नेत्र (मनः क्षेत्र का प्रवेश द्वार)
मंत्र जप
गायत्री मंत्र बीजाक्षर के साथ
(पीनियल व पीट्यूटरी ग्रंथि परिशोधित व परिष्कृत @ स्वस्थ संतुलित मन)

मन के भाव – श्रद्धा- विश्वास पूर्ण हों।

सावधानियां – जिनके नेत्र कमजोर हों या कोई रोग हों, उन्हें बाह्य त्राटक की अपेक्षा अन्तः त्राटक उपयुक्त है। सहजता व सजगता side affects/ अतिरेक से बचाती हैं।

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

गुरु का प्राण साधक में दौड़ना चाहिए अर्थात् गुरु अनुशासन अनिवार्य है। गुरूदेव साधक के मनोभूमि के अनुरूप guidelines देते हैं।

प्राणमयकोश साधना से नाड़ियां शुद्ध हो जाती हैं। जिससे मनोमयकोश साधना में साधक को सूर्य त्राटक के side affects नहीं होते हैं और यथोचित लाभ लिया जा सकता है।

त्राटक‘ – ‘ध्यान’  से भिन्न नहीं प्रत्युत् ध्यान की एक अवस्था जिसमें मन को एकाग्र करना होता है @ योगश्चित्तवृत्ति निरोधः – चित्त की वृत्तियों का निरोध करना, रोककर एकाग्र करना ही योग है।

बाह्य साधन की अनुपस्थिति/ अभाव में अन्तः त्राटक से लाभ लिया जा सकता है। स्थूल से सूक्ष्म एवं सूक्ष्म से कारण अर्थात् सुक्ष्मातिसुक्ष्म में जाना होता है।

मित्रता‘ को आत्मीयता/ प्रेम/ समानता आदि के अर्थों में समझा जा सकता है। सुदामा व कृष्ण की मित्रता को भक्त व भगवान की मित्रता के संदर्भ में लिया जा सकता है।

गुरूदेव‘ कहते हैं कि – मैं व्यक्ति नहीं विचार हूं। स्थूल से कहीं अधिक कई गुणा सामर्थ्य सुक्ष्म में होता है। अंतरंग के भेदत्व को मिटाकर अर्थात् एकत्व से ही बहिरंग समरूपता स्थापित किया जा सकता है। इसके दो चरण हैं – १. परिशोधन (तप) व २. परिष्करण (योग)।

शारीरिक पृष्ठभूमि व मनोभूमि के अनुरूप साधना/ क्रियायोग का चुनाव किया जाता है। इसलिए योग साधनाओं के विभिन्न प्रकार को ऋषि मनीषियों ने समक्ष रखा है। उद्देश्य: १. अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित।

अंदर दृष्टि जाये तो ‘स्व’ (सत् चित् आनन्द स्वरूप) को देखें और बाहर दृष्टि जाये तो उनके अंदर विद्यमान सत् चित् आनन्द स्वरूप (ईशावास्यं इदं सर्वं) की अनुभूति तक त्राटक किया जा सकता है। विधेयात्मक चिंतन से इसकी शुरुआत की जा सकती है। Nothing is useless in this world. सदुपयोग की कला विकसित की जाए।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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