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Trishikhibrahman Upanishad – 2

Trishikhibrahman Upanishad – 2

त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् – 2

PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Sadhna Satra) –  Online Global Class – 03 Feb 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-२ (मंत्र संख्या 21-40)

Broadcasting: आ॰ नितिन जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकूर जी

भावार्थ वाचन: आ॰ भारती दीदी (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)

ब्रह्म में विकार देखने वाला (दोष दृष्टि संयुक्ता @ छिद्रान्वेषी) बोधत्व नहीं प्राप्त कर सकते । अभेद दर्शनं ज्ञानं ।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।”

योग के 2 मार्ग – 1. ज्ञानयोग व 2. कर्मयोग । भक्तियोग इनका संगम है ।

1. ज्ञानयोग – चित्त का सर्वथा आत्मिक उत्थान में नियोजित किये रहना ही ‘ज्ञानयोग’ कहलाता है ।

2. कर्मयोग – कर्म व कर्तव्य द्वारा शास्त्रानुकूल कर्मों में निरंतर मन को नियुक्त किए रहना ही ‘कर्मयोग’ कहलाता है ।

अष्टांग योग (चेतनात्मक)

1. यम – शरीर एवं इन्द्रियों के प्रति सभी तरह से वैराग्य भावना ही ‘यम’ कहलाता है । दस यम – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दया, आर्जव (सरलता), क्षमा, धैर्य, स्वल्पाहार व शुद्धता ।
यथार्थ ज्ञान (स्वयं व संसार का ठीक ठाक पूरा पूरा ज्ञान – विज्ञान)  से ही वैराग्य उत्पन्न होता है । सोऽहं साधना, आत्मानुभूति, स्वर संयम व ग्रन्थि भेद से विज्ञानमयकोश प्रबुद्ध ।

2.  नियम – परमात्म तत्त्व से निरंतर अनुराग (सजल श्रद्धा) रखना ही ‘नियम’ कहलाता है । दस नियम – तप, सन्तोष, आस्तिक, भाव, दान, भगवत् ध्यान, वेदान्त, श्रवण, ह्ली (लज्जा), मति, जप तथा व्रत ।

3. आसन – समस्त वस्तुओं में उदासीन भाव ही सर्वश्रेष्ठ ‘आसन’ है । साक्षी भाव @ सुषुम्ना में स्थित (योगस्थः कुरू कर्माणि …) 

4. प्राणायाम – इस जगत की परिवर्तनशीलता को भली भांति समझ लेना ही ‘प्राणायाम’ कहा गया है । ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या । जिवो ब्रह्मोव नापराह (हर जीव में ईश्वर का वास है) । परिवर्तनशीलता (द्वैत/त्रैत .. भिन्न भिन्न) में आधारभूत अपरिवर्तनशील सत्ता (अद्वैत/ अभिन्न) दर्शन ।

5. प्रत्याहार – चित्त का अन्तर्मुखी भाव ही ‘प्रत्याहार’ कहलाता है ।

6. धारणा – चित्त का निश्चल भाव धारण कर लेना ही ‘धारणा’ है ।

7. ध्यान – मैं चिन्मात्र स्वरूप हूं, यही चिन्तन ‘ध्यान’ है । चिन्मात्र अर्थात् शुद्ध चैतन्य … अहं जगद्वा सकलं शुन्यं व्योमं समं सदा ।

8. समाधि – ध्यान का पूर्णतया विस्मरण कर देना ही ‘समाधि’ कहलाता है ।

आसन demonstration (आ॰ शिखा दीदी, भारती दीदी, सुरेन्द्र पटेल भैया आदि)

1. स्वास्तिक आसन – दोनों पैरों के तलुओं को दोनों घुटनों (knees) के मध्य में करके बैठना ही स्वस्तिक आसन कहलाता है ।

2. गोमुख आसन – पीठ के बायें भाग की ओर दाहिने गुल्फ को तथा दायें भाग की ओर बायें गुल्फ को नियोजित करने से जो गौ मुख की भांति होता है, वहीं गोमुख आसन कहलाता है ।

3. वीरासन – एक चरण को बायीं जाँघ पर दूसरे को दाहिनी जाँघ पर निश्चल भाव से आरोपित करके बैठना ही वीरासन कहलाता है ।

4. योगासन – दाहिनी एड़ी को गुदा भाग के बायीं ओर तथा बायीं एड़ी को गुदा भाग के दाहिनी ओर लगाकर बैठना ही योगासन कहलाता है ।

5. पद्मासन – दोनों जाँघों पर दोनों पैरों के पंजे को प्रतिष्ठित करके बैठना ही पद्मासन कहलाता है । यह आसन समस्त व्याधियों एवं विषों का विनाशक कहा गया है ।

6. बद्धपद्मासन – पद्मासन में अच्छी तरह से आसीन होने के पश्चात् दाहिने हाथ से बायें पैर के अँगूठे को तथा बायें हाथ से दाहिने पैर के अँगूठे को पकड़ना ही बद्धपद्मासन कहलाता है ।

शारीरिक क्रिया/ स्थिति संग चेतनात्मक (Meditational) उन्नयन का सदैव ध्यान रखा जाए ।

जिज्ञासा समाधान

अहंकाराभिमानेन जीवः स्याद्धि सदाशिवः । स चाविवेकप्रकृतिसंगत्या तत्र मुह्यते ।।16।। भावार्थ: सदाशिव (परब्रह्म) जब अहंकार रूपी अभिमान से ग्रसित हो जाता है, तभी उसे जीव-कोटि में गमन करना पड़ता है । वहाँ पर वह अज्ञान एवं प्रकृति के संयोग से मोहग्रस्त हो जाता है ।

अनीति धारक व्यक्तित्व के पास मारने हेतु दो हाथ हैं तो रक्षक के पास नीति के रक्षा हेतु दो हाथ हैं । एक हाथ में माला व दूसरे हाथ में भाला @ ज्ञान + शक्ति @ गायत्री + सावित्री @ सहस्रार + मूलाधार – अर्थात् सौजन्य युक्त पराक्रम से बात बनती है । भाव चिकित्सक (doctor) का हो । चिकित्सक, रोग को दूर भगाते हैं … रोगी को नहीं । 

स्वयं को अन्यों पर थोपना – आसक्ति है । Freedom / प्रेरणा / आत्मीयता @ निःस्वार्थ प्रेम – वैराग्य है ‌।

कौन से कर्म बंधनकारी नहीं होते ? कर्म कर्तव्यमित्येव विहितेष्वेव कर्मषु – कर्म व कर्तव्य द्वारा शास्त्रानुकूल कर्मों में निरंतर मन को नियुक्त किये रहना ही ‘कर्मयोग’ कहलाता है । वेद का अर्थ ज्ञान भी होता है । वेदान्त अर्थात् वेदों की आत्मा ‘उपनिषद्’ @ शाश्वत ज्ञान; इसकी प्रेरणा से किया गया आचरण/ कर्म बंधनकारी नहीं होते । Theory – practical then application.

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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