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Trishikhibrahman Upanishad – 8

Trishikhibrahman Upanishad – 8

त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् – 8

PANCHKOSH SADHNA (Gupt Navratri Sadhna Satra) –  Online Global Class – 08 Feb 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌

SUBJECT:  त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् – 8 (मंत्र संख्या 148 – 165)

Broadcasting: आ॰ नितिन जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकूर जी

भावार्थ वाचन: आ॰ डा॰ ममता सक्सैना जी (नोएडा, उ॰ प्र॰)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)

पतंजलि जी ने अपने ग्रंथ योगसूत्र में कैवल्य का वर्णन चार स्थानों पर किया है :- 
1. तदा द्रष्टु: स्वरुपेSवस्थानम् ॥१.३॥ अर्थात् उस समय (निरोध के अवस्था में) द्रष्टा की अपने ही रूप अर्थात् चेतन-मात्र में स्थिति हो जाती है ।
2. तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम्॥२.२५॥ अर्थात् उस अविद्या के अभाव से संयोग का अभाव हो जाता है, यही हान अज्ञान का परित्याग है और वही द्रष्टा चेतन आत्मा का ‘कैवल्य’ अर्थात् मोक्ष है ।
3. सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ॥ ३.५५॥ अर्थात् जब बुद्धि और जीवात्मा की एक समान रूप से शुद्धि हो जाती है । तब वह कैवल्य या मोक्ष की अवस्था कहलाती है ।
4. ‌‌पुरुषार्थशून्यानां‌ ‌गुणानां‌ ‌प्रतिप्रसवः‌ ‌कैवल्यं‌ ‌स्वरूपप्रतिष्ठा‌ ‌वा‌ ‌चितिशक्तिरिति‌ ‌॥ ‌४.३४॥ अर्थात् इस जीवन के प्रयोजन अथवा लक्ष्य से रहित हुए गुणों का वापिस अपने कारण में लीन हो जाना ही कैवल्य मुक्ति होता है । या आत्मा का अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष कहलाता है ।

उप सामीप्येन, नि – नितरां, प्राम्नुवन्ति परं ब्रह्म यया विद्यया सा उपनिषद् अर्थात् जिस विद्या के द्वारा परब्रह्म का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जाता है, वह उपनिषद् है ।

किसी भी Faculty व उम्र (वर्णाश्रम) में हो उसमें रहते हुए उस faculty के आदर्श/ इष्ट (देव शक्तियों) की ‘उपासना (approached), साधना (digested) व अराधना (realised)’ कर सर्वत्र साक्षीभूत परब्रह्म से सामीप्य व तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है । इसमें common प्राण  है और जो प्राणों (गय) का त्राण करे वो गायत्री हैं। अतः गायत्री महामंत्र के 24 अक्षरों में 24 देव शक्तियां क्रमशः (शक्ति एक – शक्ति धारायें अनेक) :-
1. तत् – गणेश (सफलता शक्ति)
2. स – नृसिंह (पराक्रम शक्ति)
3. वि – विष्णु (पालन शक्ति)
4. तुः – शिव (कल्याण शक्ति)
5. व – कृष्ण (योग शक्ति)
6. रे – राधा (प्रेम शक्ति)
7. णि – लक्ष्मी (धन शक्ति)
8. यं – अग्नि (तेज़ शक्ति)
9. भ –  इन्द्र (रक्षा शक्ति)
10. र्गो – सरस्वती (बुद्धि शक्ति)
11. दे – दूर्गा (दमन शक्ति)
12. व – हनुमान (निष्ठा शक्ति)
13. स्य – पृथ्वी (धारण शक्ति)
14. धी – सूर्य (प्राण शक्ति)
15. म – राम (मर्यादा शक्ति)
16. हि – सीता (तप शक्ति)
17. धि – चन्द्रमा (शान्ति शक्ति)
18. यो – यम (काल शक्ति)
19. यो – ब्रह्मा (उत्पादक शक्ति)
20. नः – वरूण (रस शक्ति)
21. प्र – नारायण (आदर्श शक्ति)
22. चो – हयग्रीव (साहस शक्ति)
23. द –  हंस (विवेक शक्ति)
24. यात् –  तुलसी (सेवा शक्ति)
http://literature.awgp.org/book/gayatri_ka_har_akhshar_shakti_strot/v2.3

उद्विग्नता का मूल कारण ‘आसक्ति’ । आसक्ति के 3 स्वरूप :-
1. वासना 
2. तृष्णा
3. अहंता
“वासना – शांत + तृष्णा – शांत + अहंता – शांत = उद्विग्नता – शांत ।” @ शान्ति ।
आत्मिक प्रगति के 3 अवरोध – http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/October/v2.7

जीव भाव – मैं शरीर हूं । शिव भाव – मैं आत्मा हूं, शरीर मेरा वाहन है … । भावे विद्यते देवा ।
जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः । तुषेण बद्धो व्रीहिः स्या त्तुषाभावेन तण्डुलः॥

जिज्ञासा समाधान

पक्ष प्रतिपक्ष ecological balance हेतु है । संसार एक क्रीड़ांगन (playground) है;  क्रीड़ा  में दो टीम हिस्सा लेती हैं @ देवासुर संग्राम। “वीर भोग्या वसुंधरा ।” जो वीर होते हैं वो विजेता कप लेते हैं । टीम के चुनाव (भूमिका – नरपशु, नरपिशाच, देवमानव) का अधिकार ईश्वर ने हमें दिया है ।  इसमें अनासक्त भाव से क्रीड़ा (कर्म) का आनंद लें । असफलताएं केवल यह दर्शाती हैं कि सफलता का प्रयास पूर्ण मनोयोग (श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा) के साथ नहीं किया गया ।

प्रेम में अनुशासन समाहित है । ईश्वरीय व्यवस्था में मर्यादा पर दुलार (अनुदान वरदान) व अमर्यादित आचरण पर दण्ड व्यवस्था का क्रम बना रखा है ।

“चरैवेति चरैवेति मूल मंत्र है अपना ।” जीवन यात्रा में जीवन लक्ष्य हमेशा संज्ञान में रखा जाए । मानव जीवन के दो महान उद्देश्य:-
1. अंतरंग परिष्कृत – मनुष्य में देवत्व का अवतरण  (मैं कौन हूं ? आत्मबोध)
2. बहिरंग सुव्यवस्थित – धरा पर स्वर्ग का अवतरण (अनासक्त कर्म – तत्त्वबोध @ सर्वखल्विदं ब्रह्म ।
आत्मबोध + तत्वबोध = अद्वैत ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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