
Vedachar – 1
Aatmanusandhan – Online Global Class – 17 July 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: वेदाचार-1
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)
‘तन्मयता‘ लक्ष्य संधान की प्रक्रिया को तीव्र कर देती है ।
पंचकोश – परिष्कृत तो रक्षक (जीवन मुक्त/ आत्मस्थित) की भूमिका में एवं पंचकोश – अपरिष्कृत तो भक्षक (बंधन) की भूमिका में ।
सावित्री कुण्डलिनी तंत्र – उच्चस्तरीय साधकों (श्रद्धावान् + प्रज्ञावान + निष्ठावान @ ओजस्वी + तेजस्वी + वर्चस्वी) हेतु है ।
आत्मानुसंधान/ आत्मसाधना के स्तर :-
1. आत्मज्ञान (आत्मा को जाना)
2. आत्मबोध (आत्मा को देखा)
3. आत्मानुभव (आत्मा को अनुभव किया)
4. आत्मकल्याण
5. लोककल्याण
भारतीय संस्कृति में आचार (आचरण/ व्यवहार) का बहुत महत्त्व है :-
(महाभारत – वन पर्व) ‘ब्राह्मणत्व’ का कारण केवल ‘सदाचार’ है ।
(मनुस्मृति) आचार के कारण ही ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति ‘शुद्र’ व शुद्र कुल में जन्मा व्यक्ति ‘ब्राह्मण’ हो जाता है।
(वशिष्ठ स्मृति) आचारहीन पुरूष को वेद पवित्र नहीं करते हैं।
‘तंत्र‘ शास्त्र में आचारों का विशेष महत्व है। सप्त आचार:-
१. वेदाचार, २. वैष्णवाचार, ३. शैवाचार, ४. दक्षिणाचार, ५. वामाचार, ६. सिद्धान्ताचार व ७. कौलाचार ।
आचार (आचरण/ व्यवहार) के धनी बनने हेतु पात्रता विकास के क्रम को बनाए रखा जाए ।
वेदाचार से उत्तम वैष्णवाचार
वैष्णवाचार से उत्तम शैवाचार,
शैवाचार से उत्तम दक्षिणाचार,
दक्षिणाचार से उत्तम वामाचार,
वामाचार से उत्तम सिद्धान्ताचार,
सिद्धान्ताचार से उत्तम कौलाचार ।
उपरोक्त में पहले ४ आचार – पशु भाव से, वामाचार व सिद्धांताचार – बीर भाव व कौलाचार – दिव्य भाव से जुड़े हैं।
कक्षा प्रगति क्रम में पूर्व के कक्षा के ज्ञान छूटते नहीं हैं प्रत्युत् प्रांजल (विशुद्ध) होते चले जाते हैं ।
‘तंत्र’ वेद विरुद्ध नहीं हैं प्रत्युत् वेद का सम्मान करते हैं । (प्रथम कक्षा – वेदाचार) ‘तन्त्र’ साधना के प्रथम चरण में ही वेदाध्ययन व वैदिक क्रियान्वयन का समर्थन करते हैं। स्मरण रहे कि एक कक्षा में उत्तीर्ण (pass) होने के बाद दूसरे कक्षा में प्रवेश मिलता है ।
‘वेद‘ को केवल अध्ययन करने से नहीं प्रत्युत् वेद को जीने से बात बनती है। वेद की आज्ञा है :-
माता-पिता के आज्ञाकारी व प्रिय बनो । (अथर्ववेद – ३/३०/२)
चोरी का धन मत खाओ । (अथर्ववेद – १४/./५७)
पाप की कमाई छोड़ दो । (अथर्ववेद – ७/११/५१)
वह कार्य करो जिससे दूसरे को कष्ट ना हो । (ऋग्वेद – १/७४/१)
सब प्रकार के दुष्कर्मों से बचो । (अथर्ववेद – १०/१/१०)
मानसिक पापों का परित्याग करो । (अथर्ववेद – २०/६/२४)
असत्य को त्याग कर सत्य को ही ग्रहण करना चाहिए । (यजुर्वेद)
संयमी मनुष्य स्वर्ग को जीत लेता है । (ऋग्वेद)
प्रसुव यज्ञं – सत्कर्म ही किया करो । (यजुर्वेद ३०)
बुजुर्गो से शिष्टाचार बरतो । (अथर्ववेद १२/२/३४)
पवित्र बनो व शुभ कर्म करो । (यजुर्वेद १/१३)
एक दुसरे से प्यार करो । (अथर्ववेद ३/१०/१)
संसार में किसी से द्वेष मत करो । (यजुर्वेद २/३)
मधुरता की प्रतिमान प्रतिमा बनो । (यजुर्वेद ३७)
भद्रे कर्णेभि श्रृणुयाम – कानों से अच्छे विचार ही सुनो । (यजुर्वेद ३०)
‘प्रातः’ सायं आत्म-चिन्तन करना चाहिए । (अथर्ववेद ३/३०/७)
पुनन्तु मां देवगनाः पुनन्तु मनसा धियः । पुनन्त विश्वा भूतानि जानतवेदः पुनीत मा । – देवताओं के अनुगामी पुरुष मुझे पवित्र करें। मन से सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करें। संपूर्ण प्राणिगण, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश आदि पंचभूत मुझे पवित्र करें। परमेश्वर भी मुझे पवित्र करें ।
‘वेदाचार‘ के सुत्रों को गुरूदेव ने गायत्री की दैनंदिन साधना व संक्षिप्त हवन विधि में पिरो दिया है जिसके मनन चिंतन मंथन व निदिध्यासन से वेद को जीने का क्रम बनाया जा सकता है ।
जिज्ञासा समाधान
‘आत्मा‘ का ना तो जन्म होता है ना मरण । अगर स्वयं (आत्मा) को शरीर (पंचकोश – आत्मा के पंच आवरण) मानते हैं तो पुनर्जन्म को मान सकते हैं । जन्मजात गुणों से भी पुनर्जन्म को समझा जा सकता है ।
विचारों से परे जाने हेतु (मैं विचार नहीं हूं) सर्वोत्तम विधा साक्षी भाव है । ‘मन‘ का भोजन ‘विचार’ है । विचारों की प्रकृति सहधर्मिता की है। अतः विधेयात्मक चिंतन को प्राथमिकता दी जाए ।
‘मन‘ निरंतर विचारों का वाष्पीकरण करता रहता है । मन को शांत व प्रसन्न (नियंत्रित/ संतुलित) रखने हेतु मनोमयकोश के क्रियायोग (ध्यान, जप, त्राटक व तन्मात्रा साधना) प्रभावी हैं ।
‘ईश्वर‘ सभी में हैं अर्थात् सभी के हैं । किसी भी ‘योनि’ (आवरण/ वस्त्र/ लबादे) में ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है । काकभुशुण्डि, शुकदेव आदि के उदाहरण से समझा जा सकता है । मनुष्य योनि में व्यक्तित्व परिष्करण (उत्कृष्ट चिंतन + आदर्श चरित्र + शालीन व्यवहार) से multi-talented & multitasking (आत्मकल्याणार्थ + लोककल्याणार्थ) बना जा सकता है; अतः मनुष्य योनि की महत्ता बताई गई है ।
“आत्मबोध (सोऽहं) + तत्त्वबोध (सर्वखल्विदं ब्रह्म)” से अद्वैत पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है । ससीम (जीव भाव) का रूपांतरण असीम (शिव भाव) में किया जाए ।
‘मंथन‘ हेतु ‘देव + असुर’ (both) दोनों की आवश्यकता/ अनिवार्यता है । Nothing is useless or worthless in the universe. Everything has its importance. अज्ञानता ही बन्धन है ।
समर्पण विलयन विसर्जन @ भक्त भगवान एक @ साधक सविता एक @ अद्वैत ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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