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What am I ? – 3

What am I ? – 3

मैं क्या हूँ ? – 3

Aatmanusandhan –  Online Global Class – 08 May 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  मैं क्या हूं ? (चतुर्थ अध्याय)

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

अपने बारे में व संसार के बारे में सही सही ज्ञान (आत्मबोध + तत्त्वबोध) होना ही मुक्ति @ मोक्ष है ।

शरीर, आत्मा (रथी) का वाहन (रथ) है । अतः मैं केवल शरीर हूँ (आत्मा गौण) accident का कारण बन जाता है ।
प्रतिभाएं/ कला कौशल (merrit/ skills) भी अपना स्वरूप बदलती रहती हैं अतः मैं इससे भी परे (सूक्ष्म) हूँ ।
विचार (thoughts) भी बदलते रहते हैं अतः मैं इससे भी परे (सूक्ष्म) हूँ ।
भावनाएं (emotions) भी अपना आयाम बदलती रहती हैं अतः मैं इससे भी परे (सूक्ष्म) हूँ ।

(गायत्री मंजरी) यस्तु योगीश्वरो ह्योतान् पंच कोशान्नु वेधतेस भवसागरं तीर्त्वा बन्धनेभ्यो विमुच्यते ।।15।। भावार्थ: जो योगी इन पाँच कोशों को बेधता है, वह भवसागर को पार कर बन्धनों से छूट जाता है ।
गुप्तं रहस्यमेतेषां कोषाणां योऽवगच्छतिपरमां गतिमाप्नोति स एव नात्र संशयः ।।16।।  भावार्थ: जो इन कोशों के गुप्त रहस्य को जानता है, वह निश्चय ही परम गति को प्राप्त करता है ।

(कठोपनिषद्) यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनिज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥1-III-13॥ भावार्थ: बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे । मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे । ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे ॥१३॥

ईशा वास्यम् इदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत्  । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।1।। भावार्थ: इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ये जगत हैं, सब ईशा (ईश्वर) द्वारा ही व्याप्त है । उसके द्वारा त्यागरूप जो भी तुम्हारे लिए प्रदान किया गया है उसे अनासक्त रूप से भोगो । किसी के भी धन की इच्छा मत करो ॥

सोऽहं साधना – (श्रीरामचरितमानस) सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा । दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा । तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥1॥

(भगवद्गीता) अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव चनित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।2.24।। भावार्थ: क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है; तथा यह नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ।
आत्मा‘ को छोड़कर शेष संपूर्ण शारीरिक व मानसिक परमाणु गतिशील हैं । वस्तुएं अपना स्वरूप व स्थान बदलती रहती हैं । पुराने विचारों की जगह नये विचार लेते रहते हैं ।

(भगवद्गीता) सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।  ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।6.29।। भावार्थ: सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है ॥

अपने शारीरिक व मानसिक वस्त्रों की भावना दृढ़ होते ही संसार आपका और आप संसार के हो जाओगे । वस्त्रों से उपर आत्मा को देखो – यह नित्य, अखंड, अक्षर, अमर, अपरिवर्तनशील व एकरस है ।

सोऽहमस्मि … वह परमात्मा मैं हूँ । आत्मा सत्य है पर उसकी सत्यता परमेश्वर है । विशुद्ध व मुक्त आत्मा परमात्मा है ।

पाठ के बीज मंत्र :-
– मेरी भौतिक वस्तुएँ महान भौतिक तत्त्व की एक क्षणिक झाँकी हैं ।
– मेरी मानसिक वस्तुएँ अविछिन्न मानस तत्त्व का एक खंड है ।
– भौतिक व मानसिक तत्त्व निर्बाध गति से बह रहे हैं, इसलिए मेरी वस्तुओं का दायरा सीमित नहीं, समस्त ब्रह्मांडों की वस्तुएँ मेरी है ।
– अविनाशी आत्मा परमात्मा का अंश है और अपने विशुद्ध रूप में वह परमात्मा ही है ।
– मैं विशुद्ध हो गया हूँ, परमात्मा व आत्मा की एकता का अनुभव कर रहा हूँ ।
– ‘सोऽहमस्मि’ – मैं वह हूँ ।

Demonstration:  आत्मानुभूति योग (तृतीय चरण) 

Unconditional love @ आत्मीयता का विस्तार – आत्मप्रगति का आधार @ समस्याएं अनेक, समाधान एक – अध्यात्म @ अद्वैत।

जिज्ञासा समाधान

जानकारी की सार्थकता अनुभव में आने में है अर्थात् मनसा वाचेण कर्मणा एकरूपता । गायत्री की 3 विभूति – श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठाव्यक्तित्व निर्माण = उत्कृष्ट चिंतन + आदर्श चरित्र + शालीन व्यवहारआत्मपरिष्कार = आत्मसमीक्षा + आत्मसुधार + आत्मनिर्माण + आत्मविकास । अतः उपनिषदकार कहते हैं – (कठोपनिषद्) नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेनयमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ॥1-II-23॥ भावार्थ:  यह आत्मा न प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है । जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । उसके प्रति वह आत्मा अपने स्वरुप को प्रकट कर देता है ॥

पंचकोश चेतनात्मक आवरण (आत्मा के 5 आवरण) हैं । Physical anatomy से इसकी संगति बिठायी जाती है । किंतु यह वर्तमान Physiology से परे (सूक्ष्म) है ।
जनः लोक { विशुद्धि चक्र (अंतरंग परिष्कृत + बहिरंग सुव्यवस्थित) जाग्रत } का साधक वसुधैव कुटुंबकम् का पथिक ।

संसार की हर एक परिवर्तनशील (उत्पादन, पोषण व विनाश) सत्ता में एक अपरिवर्तनशील सत्ता विद्यमान है जिसे स्वयं के अंदर अनुभव करना (आत्मबोध) व बाहर अनुभव करना (तत्त्वबोध) हम सभी का जीवनोद्देश्य है । जो तप (सावित्री साधना) व योग (गायत्री साधना) के समन्वयात्मक साधना पद्धति से सर्वसुलभ है ।

मैं क्या हूँ ? – बोधत्व उपरांत “सबकुछ मेरा है ।” और ‘मेरा कुछ भी नहीं है ।” – दोनों एक समान हो जाते हैं । वो देवर्षि नारद की भूमिका में रहते हैं । 

परिष्कृत दृष्टिकोण से ‘तेज’ (अग्नि) के विभिन्न आयामों ‘पंचाग्नि’  (प्राणाग्नि, जीवाग्नि, योगाग्नि, आत्माग्नि व ब्रह्माग्नि) को अनुभव में लाया जा सकता है । आत्मप्रकाश में आत्मा स्वयं का अनावरण करती हैं @ आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः … श्रोतव्यः … द्रष्टव्यः । 

सौजन्य युक्त पराक्रम । समन्वय से बात बनती है अर्थात् हम सदुपयोग (सुषुम्ना) का माध्यम बनें । @ विनम्रता – कायरता का एवं पराक्रम – उदण्डता का पर्याय ना बने @ समत्वं योग उच्यते ।

प्रसवन से ईश्वरीय पसारे संसार (तत्त्वबोध) और प्रति-प्रसवन (आत्मबोध) से अद्वैत को समझ सकते हैं । ‘उपासना, साधना व अराधना‘ से ये बोधगम्य बनते हैं ।

जीवनोद्देश्य:-
मैं क्या हूं ? – मैं आत्मा हूंँ (आत्मबोध – गायत्री साधना) ।
मैं क्यों हूं ? – (ईश्वरीय सहचर) धरा को स्वर्ग बनाना @ unconditional love (तत्त्वबोध – सावित्री साधना ) ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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