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Yog Darshan – 3 (विभूति पाद)

Yog Darshan – 3 (विभूति पाद)

PANCHKOSH SADHNA ~ Online Global Class – 23 Aug 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ. योग-दर्शन (विभूति पाद)

Broadcasting. आ॰ अंकुर सक्सेना जी

🌞 श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी.

महर्षि पतंजलि कृत योग दर्शन को 4 parts/ steps/ phases/ chapters में रखा गया है। ये शांति/ अखण्डानन्द/ मुक्ति/ मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करते हैं।
1st chapter – समाधि पाद – विकसित चेतना वाले साधकों के लिए हैं जो पूर्व जन्म से पंचकोश को परिष्कृत/ परिमार्जित/ उज्जवल बनाते आ रहे हैं।
2nd chapter – साधन पाद – सामान्यतः/ सर्वसाधारण स्तर के साधकों के लिए हैं अर्थात् जिसने मानव शरीर को पाया है वह मानवीय गरिमा के रूप आचरण कर लक्ष्य का वरण कर सकते हैं। इसमें साधन के रूप में आष्टांग योग/ राज योग का मार्ग प्रशस्त किया है। इसमें पांच बहिरंग साधन “यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार” की विधा को सुत्रबद्ध किया है।
3rd chapter – विभूति पाद – धारणा (concentration), ध्यान (meditation) व समाधि (contemplation) की विधा को सुत्रबद्ध किया गया है।

वर्तमान में असुरत्व/ आस्था संकट मानवीय अंतः करण में प्रवेश कर चुका है। अंतः भगवान बुद्ध के उत्तरार्द्ध प्रज्ञावतार आये ताकि प्रज्ञा के जागरण/ अवतरण से अंतः करण को निर्मल/ परिष्कृत/ उज्जवल बनाया जा सके।

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।१। – किसी भी एक देश में चित्त को स्थिर करना धारणा कहलाता है।
धारणा @ त्राटक अभ्यास‌ – अंतः त्राटक/ बाह्य त्राटक। धारणा अर्थात ध्यान की नींव, ध्यान की आधारशिला। धारणा परिपक्व होने पर ही ध्यान में प्रवेश मिलता है।

तत्र प्रत्यैयकानतानता ध्यानम् ।२। – उसी में वृत्ति का एक तार चलना ध्यान है। धारणा के पश्चात ध्येय में एकतानता ही ध्यान है। धारणा में चिंतन – मनन/ गहराई/ research से ध्यान का समावेश होता है।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।३। – जब केवल मात्र ध्येय की ही प्रतीति होती है और चित्त‌ शुन्य हो जाता है तब वही समाधि हो जाता है।
संत कबीरदास जी कहते हैं – आंख न मूंदु , कान न रुंदु , काया कष्ट न धारूँ। खुले नैन मैं हंस हंस देखूं , सुन्दर रूप निहारूँ। संतो सहज समाधि भली। आंख बंद हों अथवा खुले; सर्वत्र सर्वव्यापी ईश्वरत्व के दर्शन सहज समाधि की अवस्था है।
त्रिगुण (सत्व, रज व तम) की साम्यावस्था @ ग्रंथि भेदन से ही निर्बीज समाधि में प्रवेश मिलता है।
आत्मा वा अरे ज्ञातव्यः, आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः, आत्मा वा अरे ध्यातेव्यः

चित्त के किसी स्थान विशेष में स्थित होने को धारणा, चित्त में देर तक स्थिर रहने को ध्यान एवं जब चित्त को ध्याता व ध्येय का ज्ञान ना रहे – समाधि

त्रयमकेत्र संयमः।४। – किसी एक ध्येय – विषय में तीनों (धारणा, ध्यान व समाधि) का होना संयम कहलाता है।

तज्जयात्प्रज्ञाऽऽलोकः।५। – उसको जीत लेने से बुद्धि का आलोक प्राप्त होता है। संयम के सिद्ध/ जीतने से प्रज्ञा @ ज्ञान रूपी प्रकाश का जागरण होता है।

श्लोक संख्या ६ से आगे संयम से प्राप्त सिद्धियों को सुत्रबद्ध किया गया है।

कूर्म नाड़ी में संयम करने से स्थिरता आती है ।।३१।।

हृदय में संयम करने से चित्त का ज्ञान होता है ।।३२।।

गायत्री मंजरी
कलौ युगे मनुष्याणां शरीराणीति पार्वति। पृथ्वी तत्व प्रधानानि जानास्येव भवन्तिहि ।36। हे पार्वती कलियुग में मनुष्यों के शरीर पृथ्वी तत्व प्रधान होते हैं यह तो तुम जानती ही हो।

सूक्ष्मतत्व प्रधानान्य युगोद्भूत नृणामतः। तपसामेते न भवन्त्यधिकारिणः ।37। इसलिये अन्य युग में पैदा हुए सूक्ष्म तत्व प्रधान मनुष्यों की सिद्धि और जप के ये अधिकारी नहीं होते।

पंचांग योग संसिद्ध या गायत्र्यास्तु तथापि ते। तद्युगानां सर्वश्रेष्ठां सिद्धिं संप्राप्नुवन्त हि ।38। फिर भी वे गायत्री के पंचांग योग की सिद्धि द्वारा उन युगों की सर्वश्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करते हैं।

यस्तु योगीश्वरो ह्येतान् पंचकोशान्नु वेधते। स भव सागरं तीर्त्वा वन्धनेभ्यो विमुच्यते।15। जो योगी इन पांच कोशों को बेधता है वह भव सागर को पार कर बन्धनों से छूट जाता है।

प्रश्नोतरी सेशन

ऋषि पंचमी के पावन अवसर पर ऋषि परंपराओं को धारण करें और उनके वाहक बनें।

सबीज समाधि में संस्कार शुन्य नहीं होते @ अवलंबन और निर्बीज समाधि में विशुद्ध आत्म दर्शन @ निरालंब।

सुख – दुःखात्मक विचार/ परिस्थितियां जो राग व द्वेष की उत्पत्ति का माध्यम बनते हैं उसे प्रतिपक्ष विचारों/ भावनाओं (anti gear) से उदासीन (neutral) करने से मन शांत/ स्थिर/ संतुलित रहता है। हमें तन्मात्रा साधना में इसका अभ्यास करना होता है। त्रिगुणात्मक (सत्व, रज व तम) संतुलन/ साम्यावस्था @ ग्रंथि भेदन से ही निर्बीज समाधि की स्थति प्राप्त होती है।

हमारा दर्शन ही हमारे दृष्टिकोण (सकारात्मक/ नकारात्मक) का कारण बनता है। Nothing is useless or worthless. हमें handle करना नहीं आता और हम affected होकर ग्रंथि का निर्माण कर लेते हैं। अज्ञान/अविवेक – बंधन का तो ज्ञान/विवेक – मोक्ष का माध्यम हैं।
क्रोध, आत्म ग्लानि, अवसाद आदि को हटाने हेतु सोऽहं साधना किया जा सकता है।

कर्त्तव्य परायणता अर्थात् कर्तव्य भावना से किये गये कार्य बंधन कारक नहीं होते अर्थात् पाप – पुण्य आदि से परे होते हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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