Yogakundalyupanishad – 3
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Gupt Navratri Sadhna Satra (22 to 30 Jan 2023) – Online Global Class – 24 जनवरी 2023 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
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Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
शिक्षक बैंच: आ॰ श्री लाल बिहारी सिंह जी
विषय: योगकुंडल्युपनिषद् – 3 (मंत्र सं॰ 62-87)
कुण्डलिनी शक्ति के 5 नाम:-
1. अन्नमयकोश में प्राणाग्नि
2. प्राणमयकोश में जीवाग्नि
3. मनोमयकोश में योगाग्नि
4. विज्ञानमयकोश में आत्माग्नि
5. आनंदमयकोश में ब्रह्माग्नि
नियमित रूप से (regularly) भाव युक्त (सत्त्वमयी बुद्धि से विचार कर) प्राणायाम करना चाहिए । जिससे चित्तसाक्षी भाव (सुषुम्ना नाड़ी) में लीन रहता है जिसके कारण उसमें प्राणों का प्रवाह चलने लगता है ।
(क्रियायोग) प्राणायाम के पूर्व:
– मल शोधन (पेट साफ)
– शांत चित्त (वासना/ तृष्णा/ अहंता/ उद्विग्नता – शांत)
(प्राण तत्त्व के दो भाग) पंच महाप्राण (ओजस्) व पंच लघुप्राण एक दूसरे के सहायक व पूरक हैं :-
1. ‘अपान‘ गुदा व मूत्रेन्द्रिय के बीच में मूलाधार के निकट एवं उसके पास ‘कूर्म‘ लघुप्राण का निवास ।
2. ‘समान‘ व ‘कृकल‘ का नाभि में निवास ।
3. ‘प्राण वायु’ का निवास स्थान हृदय और ‘नाग‘ उसके समीप में ।
4. ‘उदान‘ व ‘देवदत्त‘ का स्थान कण्ठ ।
5. ‘व्यान‘ व ‘धनंजय‘ में आकाश तत्त्व का अधिक होने के कारण संपूर्ण शरीर में व्याप्त रहते हैं, पर उसका प्रधान केन्द्र मस्तिष्क का मध्य भाग है ।
प्राण को उर्ध्वगामी बनाने की प्रक्रिया के लिए गुदा (anus) के आकुंचन (contraction) की क्रिया को मूलबंध कहते हैं । इस क्रिया से अपान ऊर्ध्वगामी होकर अग्नि के साथ संयुक्त होकर उपर की ओर चल देता है ।
यह अग्नि क्रमशः परिष्कृत होते हुए प्राणाग्नि, जीवाग्नि, योगाग्नि, आत्माग्नि व ब्रह्माग्नि में अभिव्यक्त होती है ।
ग्रन्थि भेद – विज्ञानमयकोश की चतुर्थ भूमिका/ कक्षा/ आवरण में जीव को प्रतीत होता है कि 3 सुक्ष्म बन्धन (ग्रन्थियां) ही मुझे बांधे हुए है :-
1. रूद्र ग्रन्थि (तम) – मूत्राशय के समीप – शाखायें मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्र – बेधन हेतु मूल बन्ध, अपान व कूर्म प्राण के आघात से जाग्रत हुई क्लीं बीज की कुंचुकी….
2. विष्णु ग्रन्थि (रज) – अमाशय के उर्ध्व भाग में – शाखायें मणिपुर व अनाहत चक्र – बेधन हेतु जालंधर बंध बांधकर समान व उदान प्राण को दबाकर श्रीं बीज का जागरण….
3. ब्रह्म ग्रन्थि (सत्) – मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में – शाखायें विशुद्धि व आज्ञा चक्र – बेधन हेतु उड्डीयान बंध लगातार व्यान व धनंजय प्राणों द्वारा ब्रह्म ग्रन्थि को पकाया जाता है ….. ।
सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत होकर तम, रज व सत् ग्रन्थियों का भेदन करती हुई सहस्रार कमल में पहूँच जाती है @ शक्ति व शिव का मिलन – विलयन – विसर्जन @ एकत्व/ अद्वैत/ परमानन्द मुक्तिमयी ।
तम (शक्ति), रज (साधन/ संपदा) व सत् (ज्ञान) के समन्वयकशक्ति (त्रिपदा गयत्री) के आकर्षण (approached), संधारण (digested) व विनियोग (realised)
@ उपासना + साधना + अराधना
@ ज्ञान + कर्म + भक्ति
@ theory + practical + application
से हम स्व में स्थित होकर क्रमशः यात्रा करते हुए (भूः – भुवः – स्वः – महः – तपः – जनः – सत्यं) – ब्रजत ब्रह्मलोकं ।
जिज्ञासा समाधान
जनः लोक – श्रेष्ठ बनें व श्रेष्ठ बनाएं @ वसुधैव कुटुम्बकम ।
न्यरोट्रांसमीटर्स पर नियंत्रण (प्रज्ञा जागरण @ साक्षी भाव @ स्थित प्रज्ञ) से उपयुक्त हार्मोंस का स्राव कर शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक दर्द/ दुःख/ कष्ट को शांत किया जा सकता है @ नजरिए को बदलें नजारे बदल जाएंगे ।
अनाहत – निर्वाण शरीर @ जब कोई भी तत्त्व आहत ना कर पाए ।
श्रेष्ठता (परमात्मा) का वरण करना है । आप अपने इष्ट (ब्रह्मा/ विष्णु/ महेश @ सरस्वती/ लक्ष्मी/ काली) से सायुज्यता बनें उसे प्रधान (सहस्रार स्थित) मान सकते है …. बस यह ध्यान रहे पूर्णता/ समग्रता हेतु समन्वयक त्रिपदा शक्ति (शक्ति + साधन + ज्ञान) की उपासना, साधना व अराधना अनिवार्य है …..।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द
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