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Yogtatva Upanishad – 1

Yogtatva Upanishad – 1

PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 13 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 1

Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

आज चैत्र नवरात्रि साधना का प्रथम दिन व भारतीय संवत्सर है। आनंदमय कोश कक्षा आज से प्रारंभ हो रही है। हम ब्रह्म विद्या खण्ड में प्रवेश करेंगे।
तत्सवितुर्वरेण्यं – विकृति चराचर जगत में नहीं प्रत्युत् ‘दृष्टिकोण’ में होता है। दोष दृष्टि संयुक्त होने से ‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना’ की सिद्धि नहीं होती है।
शांति-पाठ से शुरूआत अर्थात् “संसरति इति संसारः” में हम शांत भाव से स्वाध्याय करें।

योगतत्त्वं प्रवक्ष्यामि योगिनां हितकाम्यया। यच्छृत्वा च पठित्वा च सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१॥
योगियों की हित-कामना की दृष्टि से मैं योगतत्त्व का वर्णन करता हूँ, जिसके श्रवण-अध्ययन तथा आचरण में धारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं॥
प्रगति अर्थात् आत्मप्रगति। ‘श्रवण व पठन’ का अर्थ है चिंतन-मनन, निदिध्यासन, धारण अर्थात् गुण, कर्म व स्वभाव में अवतरण।

विष्णुर्नाम महायोगी महाभूतो महातपाः। तत्त्वमार्गे यथा दीपो दृश्यते पुरुषोत्तमः॥२॥
विष्णु नामक महायोगी ही समस्त प्राणियों के आदि महाभूत एवं महातपस्वी हैं। वे पुरुषोत्तम तत्त्वमार्ग में दीपक के सदृश प्रकाशमान हैं॥

तमाराध्य जगन्नाथं प्रणिपत्य पितामहः। पप्रच्छ योगतत्त्वं मे ब्रूहि चाष्टाङ्गसंयुतम्॥३॥
पितामह ब्रह्माजी ने उन जगत् के स्वामी (भगवान् विष्णु) की आराधना एवं प्रणाम करके, कहा – हे जगन्नाथ ! आप अष्टाङ्ग युक्त योग का उपदेश मुझे प्रदान करें॥
योगचुड़ामणि उपनिषद् में अष्टांगयोग को षष्टांग-योग में वर्णित है। जनमानस की सात्त्विकता पूर्ण जीवन पद्धति से यम-नियम की आवश्यकता उस समय नहीं रही होगी।
गायत्री मंजरी में इसे ही पंचाग्नि योग विद्या ‘गायत्री पंचक्रोशी साधना’ है।

तमुवाच हृषीकेशो वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः। सर्वे जीवाः सुखैर्दुखैर्मायाजालेन वेष्टिताः॥४॥
यह सुनकर उन भगवान् हृषीकेश ने कहा कि मैं उस तत्त्व का वर्णन करता हूँ, तुम ध्यानयुक्त हो कर श्रवण करो। ये सभी जीव सुख-दुःख के माया रूपी जाल में आबद्ध हैं॥
परिवर्तनशील सत्ता (संसार) ही ‘माया’ है। इसमें आबद्ध/आसक्त ‘चेतना’ जीव भाव में जीती हैं।

तेषां मुक्तिकरं मार्गं मायाजालनिकृन्तनम्। जन्ममृत्युजराव्याधिनाशनं मृत्युतारकम्॥५।।
इस सुख-दुःख रूप माया के जाल को काटकर उनको मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाला तथा जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि से छुटकारा दिलाने वाला यही मृत्युतारक मार्ग है।।५।।
ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रोच्दयन्ताम् द्विजानाम। आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम।। @ गायत्री पंचक्रोशी साधना।

नानामार्गैस्तु दुष्प्रापं कैवल्यं परमं पदम्। पतिताः शास्त्रजालेषु प्रज्ञया तेन मोहिताः।।६॥
कैवल्य रूपी परम पद, अन्य दूसरे मार्गों का आश्रय लेने से कठिनता से प्राप्त होता है। भिन्न-भिन्न शास्त्रों के मतों में पड़कर ज्ञानी जनों की बुद्धि मोह-ग्रस्त हो जाती है॥६॥

अनिर्वाच्यं पदं वक्तुं न शक्यं तैः सुरैरपि। स्वात्मप्रकाशरूपं तत्किं शास्त्रेण प्रकाशते॥७॥
उस अनिर्वचनीय पद का उल्लेख देवगण भी नहीं कर सकते, तब उस स्वप्रकाशित आत्मा के रूप का वर्णन शास्त्रों में कैसे किया जा सकता है?

निष्कलं निर्मलं शान्तं सर्वातीतं निरामयम्। तदेव जीवरूपेण पुण्यपापफलैर्वृतम्॥८॥
वह निष्कल, मल रहित, शान्त, सर्वातीत, निरामय तत्त्व – जीव रूप में पुण्य और पाप के फलों से पूर्ण हो जाता है॥
सर्वातीत – सबसे परे, निरामय – रोग रहित।

परमात्मपदं नित्यं तत्कथं जीवतां गतम्। सर्वभावपदातीतं ज्ञानरूपं निरञ्जनम्॥९॥
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब वह परमात्मा सभी भाव और पद से परे, नित्य, ज्ञान रूपी एवं मायारहित है, तब वह जीव भाव को कैसे प्राप्त हो जाता है?
शिव: जीवः – शिव, जीव कैसे बन गये?

वारिवत्स्फुरितं तस्मिंस्तत्राहंकृतिरुत्थिता। पञ्चात्मकमभूत्पिण्डं धातुबद्धं गुणात्मकम्॥१०॥
उस परमात्म तत्त्व में जल के सदृश स्फुरण हुआ और उसमें अहंकार की उत्पत्ति हुई। तब पञ्च महाभूत रूप, धातु से आबद्ध, गुणात्मक पिण्ड उत्पन्न हुआ॥
एकोऽहं बहुस्याम …. (छान्दोग्योपनिषद्)।

सुखदुःखैः समायुक्तं जीवभावनया कुरु। तेन जीवाभिधा प्रोक्ता विशुद्धैः परमात्मनि॥११॥
उस विशुद्ध परमात्मा ने सुख-दुःख से युक्त होकर जीव-भावना की, इससे उसे जीव नाम दिया गया॥
जीव – भावनाओं का शरीर है, मान्यताओं से आबद्ध है। शरीर भाव में रहकर हम सुख-दुखात्मक राग-द्वेष युक्त जीव कहलाते हैं।

कामक्रोधभयं चापि मोहलोभमदो रजः। जन्ममृत्युश्च कार्पण्यं शोकस्तन्द्रा क्षुधा तृषा।।१२।।
तृष्णा लज्जा भयं दुह्खं विषादो हर्ष एव च। एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्तः स जीवः केवलो मतः॥१३॥
काम, क्रोध, भय, मोह, लोभ, मद, रजोगुण, जन्म-मृत्यु, कार्पण्य (कंजूसी), शोक, तन्द्रा, क्षुधा, तृष्णा, लज्जा, भय, दुःख, विषाद, हर्ष आदि समस्त दोषों से मुक्ति मिल जाने पर जीव को ‘केवल’ (विशुद्ध) माना गया है॥१२-१३॥
आत्मस्थित आत्मभाव जाग्रत @ योगस्थः कुरू कर्मणि – जीवो शिवः।

तस्माद्दोषविनाशार्थमुपायं कथयामि ते। योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम।।१४।।
ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि । तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।।१५।।
अब उन दोषों को दूर करने का उपाय कहता हूँ। योग-विहीन ज्ञान मोक्ष देने वाला कैसे हो सकता है? ज्ञानरहित योग से भी मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता। इस कारण मोक्ष के अभिलाषी को ज्ञान और योग दोनों का ही दृढ़ अभ्यास करना चाहिए॥१४-१५॥
Theory & Practical दोनों को साथ लेकर चलने से Application सार्थक होते हैं। पंचकोश को जानें – समझें और उनके क्रियायोग के अभ्यास से उन्हें अनुभव में लायें।

अज्ञानादेव संसारो ज्ञानादेव विमुच्यते। ज्ञानस्वरूपमेवादौ ज्ञानं ज्ञेयैकसाधनम्॥१६॥
अज्ञान से ही यह संसार बन्धन स्वरूप है तथा ज्ञान के द्वारा ही इस संसार से निवृत्ति हो सकती है। ज्ञान स्वरूप ही आदि में है और ज्ञान के माध्यम से ही ज्ञेय को प्राप्त किया जा सकता है॥१६॥

ज्ञातं येन निजं रूपं कैवल्यं परमं पदम्। निष्कलं निर्मलं साक्षात्सच्चिदानन्दरूपकम्॥१७।।
उत्पत्तिस्थितिसंहारस्फूर्तिज्ञानविवर्जितम्। एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमथ योगं ब्रवीमि ते॥१८।।
जिसके द्वारा अपने स्वरूप का ज्ञान हो और कैवल्यपद, परमपद, निष्कल, निर्मल, सच्चिदानन्द स्वरूप, उत्पत्ति, स्थिति, संहार एवं स्फुरण का ज्ञान हो, वही वास्तविक ज्ञान है। अब इसके आगे योग के सन्दर्भ में वर्णन करते हैं॥ ह॥१७-१८॥

अभेद दर्शनं ज्ञानं। अद्वैत दर्शन हमारा लक्ष्य है। जीव शरीर में शिव भाव को धारण करना – शिवोऽहं शिवोऽहं।

जीवः शिवः शिवो जीवः सजीवः केवलः शिवः

प्रश्नोत्तरी सेशन

लज्जा अर्थात् गुरू से दुराव – छुपाव। चिकित्सक से छुपाव रखने से रोगों का निवारण कैसे हो?

कला अर्थात् आदर्श, शक्ति, धर्म के १० लक्षण (प्रज्ञोपनिषद्) @ ईश्वरीय गुणों/आदर्शों का धारण व सुनियोजन।

हठयोग की सिद्धि राजयोग। जीव भाव (द्वैत) का रूपांतरण शिव भाव (अद्वैत) में योग का लक्ष्य है।
जीवन-मुक्त, विदेह साधक “कैवल्य” (विशुद्ध) हैं।

नवरात्रि साधना की दिनचर्या – प्रज्ञाकुंज सासाराम में सत्र आयोजित किये जाते हैं उसमें सहभागी बन स्वयं को recharge कर आत्मसाधना (आत्मस्थित – अंतरंग परिष्कृत) एवं जीवन देवता की उपासना, साधना व अराधना @ जीवन जीने की कला (बहिरंग सुव्यवस्थित) सीखी जा सकती है। २४ घण्टे में १-१ मिनट हर क्षण का सुनियोजन, निद्रा भी योग (योग निद्रा) का माध्यम बनने की कला सीखी जा सकती हैं।
ब्रह्मा (सृजन), विष्णु (पोषण) व महेश (संहार) परमात्मा की तीन शक्ति धारायें है। हम आम जीवन में भी स्वयं में, सभी में इन तीनों शक्ति धाराओं का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं।
पुत्र – पुत्री एक समान। नर – नारी एक समान। समानता @ अद्वैत

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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