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Yogtatva Upanishad – 3

Yogtatva Upanishad – 3

PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 15 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 3

Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

जिस ‘विद्या’ के द्वारा परब्रह्म का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जा सकता है, वह ‘उपनिषद्‘ है। अतः उपनिषद् का हर एक श्लोक ‘मंत्र’ है।
जीव भाव के कारण हमें आत्म-विस्मृति हो जाती है। आत्म-भाव जागृति हेतु हमें नित्य उपनिषद् का स्वाध्याय करनी चाहिए। आत्म-स्थित साधक को संसार की कोई भी परिस्थितियां प्रभावित नहीं करती। शारीरिक कष्ट की पहुंच जीव भाव तक ही है।
जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः। तुषेण बद्धो व्रीहिः स्यात् तुषाभावेन तण्डुलः।। भावार्थ: जीव ही शिव है। और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। जीव-शिव उसी प्रकार है। जैसे धान का छिलका लगे रहने पर व्रीहि और छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहा जाता है।

ऋजुकायः प्राञ्जलिश्च प्रणमेदिष्टदेवताम्। ततो दक्षिणहस्तस्य अङ्गुष्ठेनैव पिङ्गलाम्॥३६॥
निरुध्य पूरयेद्वायुमिडया तु शनैः शनैः। यथाशक्त्यविरोधेन ततः कुर्याच्च कुम्भकम्॥३७॥
पुनस्त्यजेत्पिङ्गलया शनैरेव न वेगतः। पुनः पिङ्गलयापूर्य पूरयेदुदरं शनैः॥३८॥
धारयित्वा यथाशक्ति रेचयेदिडया शनैः। यया त्यजेत्तयापूर्य धारयेदविरोधतः॥३९॥
जानु प्रदक्षिणीकृत्य न द्रुतं न विलम्बितम् । अङ्गुलिस्फोटनं कुर्यात्सा मात्रा परिगीयते॥४०॥
भावार्थ: शरीर को सीधा रखकर, हाथ जोड़ते हुए इष्ट देवता को प्रणाम करे, तत्पश्चात् दाँयें हाथ के अँगूठे से पिंगला को दबाकर शनैः-शनैः वायु को भीतर की ओर खींचे तथा उसे यथा शक्ति रोककर कुम्भक करे॥ तत्पश्चात् पिंगला द्वारा उस वायु को सामान्य गति से बाहर निकाल देना चाहिए। इसके बाद पिंगला से वायु को पेट में पुनः भर कर, शक्ति के अनुसार ग्रहण करके रेचक करे। इस प्रकार जिस तरफ के नथुने से वायु बाहर निकाले, उसी तरफ से पुनः भरकर दूसरे नथुने से बाहर निकालता रहे॥ न तो अत्यन्त द्रुतगति से और न ही अत्यन्त धीमी गति से, वरन् सहज-सामान्य गति से जानु की प्रदक्षिणा करके एक चुटकी बजाए, इतने समय को एक मात्रा कहा जाता है॥३६-४०॥
Backbone सीधा (straight) रखी जाती है। गर्दन (neck) सीधी रखते हुए मुद्गल मुद्रा में nostrils को धीमे दबाते/ छोड़ते अनुलोम-विलोम की प्रक्रिया की जाती है। वायु खींचते/भरते समय ‘प्राण तत्त्व’ (bright particles) को खींचने व धारण करने की भाव रखनी चाहिए।
यथाशक्ति (अच्छा लगने तक) कुंभक करें।

इडया वायुमारोप्य शनैः षोडशमात्रया। कुम्भयेत्पूरितं पश्चाच्चतुःषष्ट्या तु मात्रया॥४१॥
रेचयेत्पिङ्गलानाड्या द्वात्रिंशन्मात्रया पुनः। पुनः पिङ्गलयापूर्य पूर्ववत्सुसमाहितः॥४२॥
प्रातर्मध्यन्दिने सायमर्धरात्रे च कुम्भकान्। शनैरशीतिपर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत्॥४३॥
एवं मासत्रयाभ्यासान्नाडीशुद्धिस्ततो भवेत्। यदा तु नाडीशुद्धिः स्यात्तदा चिह्नानि बाह्यतः॥४४॥
भावार्थ: सर्वप्रथम ‘इड़ा’ में सोलह मात्रा तक वायु को खींचे, तत्पश्चात् चौंसठ मात्रा तक कुम्भक करे और तब इसके बाद बत्तीस मात्रा तक ‘पिंगला’ नाड़ी से रेचक करे। इसके बाद दूसरी बार ‘पिंगला’ से वायु खींचकर पहले की भाँति ही सारी क्रिया सम्पन्न करे॥ प्रातः, मध्याह, सायंकाल एवं अर्द्धरात्रि के समय चार बार धीरे-धीरे क्रमशः अस्सी कुम्भक तक का अभ्यास बढ़ाना चाहिए॥ इस तरह से तीन मास तक अभ्यास करने से नाड़ी-शोधन हो जाता है। ऐसी शुद्धि होने से उस (श्रेष्ठ साधक) के चिह्न भी योगी की देह में दृष्टिगोचर होने लगते हैं॥४१-४४॥
नाड़ी-शोधन प्राणायाम – गुरूदेव ‌ने नाड़ी शोधन प्राणायाम का युगानुकुल स्वरूप हमारे समक्ष रखा है। गायत्री मंत्र संदोहन मंत्र है। यह सविता से प्राण शक्ति को दुहता है। एक मात्रा अर्थात् एक सेकेंड। युगानुकुल अभ्यास में सहजता पूर्ण (अच्छा लेने तक) पुरक (खींचे), कुंभक (रोकें) व रेचक (छोड़े) का अभ्यास किया जा सकता है।
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।

जायन्ते योगिनो देहे तानि वक्ष्याम्यशेषतः। शरीरलघुता दीप्तिर्जाठराग्निविवर्धनम्॥४५॥
कृशत्वं च शरीरस्य तदा जायेत निश्चितम्। योगाविघ्नकराहारं वर्जयेद्योगवित्तमः॥४६॥
लवणं सर्षपं चाम्लमुष्णं रूक्षं च तीक्ष्णकम्। शाकजातं रामठादि वह्निस्त्रीपथसेवनम्॥४७॥
प्रातःस्नानोपवासादिकायक्लेशांश्च वर्जयेत्। अभ्यासकाले प्रथमं शस्तं क्षीराज्यभोजनम्॥४८॥
गोधूममुद्गशाल्यन्नं योगवृद्धिकरं विदुः। ततः परं यथेष्टं तु शक्तः स्याद्वायुधारणे॥४९॥
भावार्थ: वे चिह्न ऐसे हैं कि शरीर में हल्कापन मालूम पड़ता है, जठराग्नि तीव्र हो जाती है, शरीर भी निश्चित रूप से कृश हो जाता है। ऐसे समय में योग में बाधा पहुँचाने वाले आहार का परित्याग कर देना चाहिए॥ नमक, तेल, खटाई, गर्म, रूखा, तीक्ष्ण भोजन, हरे साग, हींग आदि मसाले, आग से तापना, स्त्री प्रसंग, अधिक चलना, प्रातः काल का स्नान, उपवास तथा अपने शरीर को पीड़ा पहुँचाने वाले अन्य कार्यों को प्रायः त्याग ही देना चाहिए। अभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में दुग्ध, घृत का भोजन ही सर्वश्रेष्ठ है॥ गेहूँ, मूंग एवं चावल का भोजन योग में वृद्धि प्रदान करने वाला बतलाया गया है। इस प्रकार अभ्यास करने से वायु को इच्छानुसार धारण करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है॥४५-४९॥
प्राणायाम से नाड़ियों के coughs का blockage दुर हो जाते हैं जिससे शरीर हल्का हो जाता है। उड्डियान बंध के अभ्यास से जठराग्नि तीव्र (अच्छी भूख) लगती है और शरीर कृश (slim body) हो जाता है। आस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य, सहज श्रमशक्ति (तितिक्षा), गव्यकल्प साधना‌ @ सहज प्राकृतिक सात्विक आहार-विहार, से योगी की प्रगति अनिरुद्ध होती है। युगानुकुल साधना में अतिवादी अर्थों से बचा जा सकता है।

यथेष्टवायुधारणाद्वायोः सिद्ध्येत्केवलकुम्भकः।
केवले कुम्भक सिद्धे रेचपूरविवर्जिते॥५०॥
न तस्य दुर्लभं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते। प्रस्वेदो जायते पूर्वं मर्दनं तेन कारयेत्॥५१॥
ततोऽपि धारणाद्वायोः क्रमेणैव शनैः शनैः। कम्पो भवति देहस्य आसनस्थस्य देहिनः॥५२॥
ततोऽधिकतराभ्यासाद्दार्दुरी स्वेन जायते। यथा च दर्दुरो भाव उत्प्लुन्योत्प्लुत्य गच्छति॥५३॥
पद्मासनस्थितो योगी तथा गच्छति भूतले। ततोऽधिकतरभ्यासाद्भूमित्यागश्च जायते॥५४॥
भावार्थ: यथेष्ट वायु धारण कर सकने के उपरान्त ‘केवल’ कुम्भक सिद्ध हो जाता है और तब रेचक और पूरक का परित्याग कर देना चाहिए॥ फिर उस (श्रेष्ठ) योगी के लिए तीनों लोकों में कभी कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। अभ्यास के समय जो पसीना निकले, उसे अपने शरीर में ही मल लेना चाहिए॥ इसके अनन्तर वायु की धारणा शक्ति निरन्तर शनैः-शनैः बढ़ती रहने से आसन पर बैठे हुए साधक के शरीर में कम्पन होने लगता है॥ इससे आगे और अधिक अभ्यास होने पर मेढ़क की तरह चेष्टा होने लगती है। जिस तरह से मेढक उछलकर, फिर जमीन पर आ जाता है, उसी तरह की स्थिति पद्मासन पर बैठे योगी की हो जाती है। जब अभ्यास इससे भी अधिक बढ़ता है, तो फिर वह योगी जमीन से ऊपर उठने लगता है॥५०-५४॥

Vital capacity (VC) of lungs बढ़ने के बाद केवली प्राणायाम सिद्ध होने लगता है। फिर नाक ही नहीं प्रत्युत् शरीर के रोम रोम, चक्र उपचक्र प्राण तत्व को खींचने, धारण व सुनियोजन स्वतः करने लगते हैं। कलियुग में चेतना का उर्ध्वगामी होना योगी/ साधक का जमीन से ऊपर उठना है।

जिज्ञासा समाधान

आहार – विहार में अनुकूलता का ध्यान रखें। आहार में हर कुछ हर एक के लिए लाभप्रद नहीं है।
तितिक्षा/ श्रमशक्ति आवश्यक है किंतु अतिवाद से सर्वथा बचा जा सकता है @ excess of everything is bad.
अपनी शारीरिक, मानसिक व भाव शरीर के अनुकूलता का ध्यान रखें।  

अधम कोटि कहने का तात्पर्य variableness से है। अल्प बुद्धि कहने का तात्पर्य सिद्धि के प्रदर्शन से है।
वेदान्त दृष्टिकोण में nothing is useless or worthless. अब परिवर्तनशील (variable) सत्ता से चिपकाव रखना है अथवा अपरिवर्तनशील (invariable) सत्ता से तादात्म्य स्थापित करना है। Choice is ours. Isn’t it?‌ ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥

स्वाध्याय व सत्संग से ब्रह्मचर्य को साधने में महती भूमिका है। उपनिषद् स्वाध्याय को प्राथमिकता दी जा सकती है।

प्रज्ञायोगासन में श्वासों की तालबद्धता का समावेश है। स्नानादि शुद्धि के पश्चात अभ्यास से लाभ बढ़ जाते हैं।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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