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Yogtatva Upanishad – 4

Yogtatva Upanishad – 4

PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 16 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 4

Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

पद्मासनस्थ एवासौ भूमिमुत्सृज्य वर्तते। अतिमानुषचेष्टादि तथा सामर्थ्यमुद्भवेत्॥५५॥
भावार्थ: पद्मासन पर बैठा हुआ योगी अत्यन्त अभ्यास के कारण भूमि से ऊपर ही उठा रहता है। वह इस तरह से और भी अतिमानुषी चेष्टाएँ निरन्तर करने लगता है॥५५॥

कलियुग के मनुष्यों में ‘पृथ्वी’ तत्त्व प्रधान होने के कारण अन्य युगों की साधनाओं सिद्धि हस्तगत नहीं होती हैं। गायत्री पंचांग योग @ पंचकोशी साधना से सिद्धियों के सुक्ष्म गुणों को धारण किया जा सकता है।

न दर्शयेच्च सामर्थ्यं दर्शनं वीर्यवत्तरम्। स्वल्पं वा बहुधा दुःखं योगी न व्यथते तदा॥५६॥
भावार्थ: योगी को इस प्रकार की शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, वरन् स्वयं ही देखकर अपना उत्साहवर्द्धन करना चाहिए। तब थोड़ा या बहुत कष्ट भी योगी को पीड़ा नहीं पहुँचा सकता॥५६॥
अल्पमूत्रपुरीषश्च स्वल्पनिद्रश्च जायते। कीलवो दृषिका लाला स्वेददुर्गन्धतानने॥५७॥
एतानि सर्वथा तस्य न जायन्ते ततः परम्। ततोऽधिकतराभ्यासाद्बलमुत्पद्यते बहु॥५८॥
येन भूचर सिद्धिः स्याद्भूचराणां जये क्षमः। व्याघ्रो वा शरभो व्यापि गजो गवय एव वा॥५९॥
सिंहो वा योगिना तेन म्रियन्ते हस्तताडिताः। कन्दर्पस्य यथा रूपं तथा स्यादपि योगिनः॥६०॥
भावार्थ: योगी का मल-मूत्र अति न्यून हो जाता है तथा निद्रा भी घट जाती है। कीचड़, नाक, थूक, पसीना, मुख की दुर्गन्ध आदि योगी को नहीं होती तथा निरन्तर अभ्यास बढ़ाने से उसे बहुत बड़ी शक्ति मिल जाती है॥ इस प्रकार से योगी को भूचर सिद्धि की प्राप्ति होने से समस्त भू-चरों पर विजय की प्राप्ति हो जाती है। व्याघ्र, शरभ, हाथी, गवय (नीलगाय), सिंह आदि योगी के हाथ मारने मात्र से ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। उस योगी का स्वरूप भी कामदेव के सदृश सुन्दर हो जाता है॥५७-६०॥
योग की ४ अवस्थाओं में
१. आरंभावस्था (यम, नियम, आसन)। यम में आहार शुद्धि (उपवास, तत्त्वशुद्धि, तपश्चर्या), नियम में अहिंसा (शालीनता), आसन में ४ आसन (प्रज्ञायोग, चार प्रभावी व महाप्रभावी आसन)।
२. घटावस्था में – प्राणायाम व प्रत्याहार। पंचकोशी साधना में प्रमुख प्राणायाम – नाड़ीशोधन, सूर्यभेदन, चंद्रभेदन, अनुलोम-विलोम, इड़ा चालन, पिंगला चालन for cleaning व प्राणाकर्षण प्राणायाम for healing. अन्नमयकोश में ओजस्, प्राणमयकोश में तेजस्, मनोमयकोश में प्रज्ञा, विज्ञानमयकोश में कांति, आनंदमय कोश में तृप्ति, तुष्टि वशांति। ओजस् (प्राण तत्त्व), तेजस (मनस् तत्त्व) व वर्चस् (आत्म तत्त्व) में अभिवृद्धि।
साधक को अपनी सिद्धियों (achievements) का प्रदर्शन नहीं करनी चाहिए प्रत्युत् आत्म-प्रगति (आत्मल्याणाय लोककल्याणाय वातावरण-परिष्कराये) हेतु सुनियोजित करें। “सिद्धि का मर्म – निष्काम कर्म।”
प्राणी मात्र में  आत्मीयता के विस्तार से हिंसक पशु भी योगी से मित्रवत व्यवहार करने लगते हैं। यहां एक हाथ से मारने के अर्थ में पशुओं के स्थूल शरीर की मृत्यु को नहीं प्रत्युत् उनकी हिंसक प्रवृत्ति से निवृत्ति को लिया जा सकता है।

तद्रूपवशगा नार्यः काङ्क्षन्ते तस्य सङ्गमम्। यदि सङ्गं करोत्येष तस्य बिन्दुक्षयो भवेत्॥६१॥
वर्जयित्वा स्त्रियाः सङ्गं कुर्यादभ्यासमादरात्। योगिनोऽङ्गे सुगन्धश्च जायते बिन्दुधारणात्॥६१-६२॥
भावार्थ: उस योगी के रूप का अवलोकन कर अनेकानेक स्त्रियाँ आकृष्ट होकर उससे भोग की इच्छा करने लगती हैं, लेकिन यदि योगी उनकी इच्छा की पूर्ति करेगा, तो उसका वीर्य नष्ट हो जायेगा॥ अतः स्त्रियों का चिन्तन न करके दृढ़ निश्चयी होकर, निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिए। वीर्य को धारण करने से योगी के शरीर से सुगन्ध आने लगती है॥६१-६२॥
वीर्य रक्षण – इन्द्रिय संयम का एक भाग है जिससे प्राण के उर्ध्वगमन में मदद मिलती है। विद्यार्थी जीवन में ओजस्, तेजस् व वर्चस में अभिवृद्धि। गृहस्थाश्रम में वीर्य के सुनियोजन से तेजस्वी संतति की उत्पत्ति।

ततो रहस्युपाविष्टः प्रणवं प्लुतमात्रया। जपेत्पूर्वार्जितानां तु पापानां नाशहेतवे॥६३॥
तदनन्तर एकान्त स्थल पर बैठकर प्लुत मात्रा (तीन मात्रा) से युक्त प्रणव (ॐकार) का जप करते रहना चाहिए, जिससे पूर्व जन्मों के पापों का विनाश हो जाए॥

सर्वविघ्नहरो मन्त्रः प्रणवः सर्वदोषहा। एवमभ्यासयोगेन सिद्धिरारम्भसम्भवा॥६४॥
यह ओंकार मंत्र सभी तरह के विघ्न-बाधाओं एवं दोषों का हरण करने वाला है। इसका निरन्तर अभ्यास करते रहने से सिद्धियाँ हस्तगत होने लगती हैं॥
अक्षर ब्रह्म प्रणव (ओंकार) नादयोग की संधान। ईश्वर का स्वयंघोषित सबसे छोटा नाम जो सर्वथा सर्वकालेषु चिंतन-मनन निदिध्यासन धारण किया जा सकता है।

ततो भवेद्धठावस्था पवनाभ्यासतत्परा। प्राणोऽपानो मनो बुद्धिर्जीवात्मपरमात्मनोः॥६५॥
अन्योन्यस्याविरोधेन एकता घटते यदा । घटावस्थेति सा प्रोक्ता तच्चिह्नानि ब्रवीम्यहम्॥६६॥
भावार्थ: इसके पश्चात् वायु-धारण का अभ्यास करना चाहिए। इस क्रिया से घटावस्था की प्राप्ति सहज रूप से होने लगती है। जिस अभ्यास में प्राण, अपान, मन, बुद्धि, जीव तथा परमात्मा में जो पारस्परिक निर्विरोध एकता स्थापित होती है, उसे घटावस्था कहा गया है। उसके चिह्नों का वर्णन आगे के श्लोकों में करते हैं॥६५-६६॥
अभेद दर्शनं ज्ञानं‘। सांख्य-दर्शन व योगदर्शन के स्वाध्याय से जाना समझा व अभ्यास से अनुभव में लाया जा सकता है।

पूर्वं यः कथितोऽभ्यासश्चतुर्थांशं परिग्रहेत्। दिवा वा यदि वा सायं याममात्रं समभ्यसेत्॥६७॥
एकवारं प्रतिदिनं कुर्यात्केवलकुम्भकम्। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो यत्प्रत्याहरणं स्फुटम्॥६८॥
योगी कुम्भकमास्थाय प्रत्याहारः स उच्यते। यद्यत्पश्यति चक्षुर्भ्यां तत्तदात्मेति भावयेत्॥६९॥
भावार्थ: पूर्व में जितना अभ्यास योगी करता था, उसका चतुर्थ भाग ही अब करे। दिन अथवा रात्रि में मात्र एक प्रहर ही अभ्यास करना चाहिए। दिन में एक बार ही ‘केवल-कुम्भक’ करे एवं कुम्भक में स्थिर होकर इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर लाये, यही ‘प्रत्याहार’ होता है। उस समय आँखों से जो कुछ भी देखे, उसे आत्मवत् समझे॥६७-६९॥

19 पंचकोशी क्रियायोग में जो आपको सहज, सुबोध, आत्मपरिष्कार (आत्म-समीक्षा, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण व आत्म-प्रगति) में मित्रवत जान पड़े उन्हें अभ्यास में लाया जा सकता है। 

यद्यच्छृणोति कर्णाभ्यां तत्तदात्मेति भावयेत्। लभते नासया यद्यत्तत्तदात्मेति भावयेत्॥७०॥
जो भी कुछ कर्णेन्द्रिय से, श्रवण करे तथा जो कुछ भी नासिका के द्वारा सूँघे, उस सभी को आत्मभावना से ही स्वीकार करे॥७०॥

जिह्वया यद्रसं ह्यत्ति तत्तदात्मेति भावयेत्। त्वचा यद्यत्स्पृशेद्योगी तत्तदात्मेति भावयेत्॥७१॥
जिह्वा के माध्यम से जो भी कुछ रस ग्रहण करे, उसको भी आत्मरूप जाने। त्वचा से जो कुछ भी स्पर्श हो, उसमें भी अपनी आत्मा की ही भावना करे॥७१॥

एवं ज्ञानेन्द्रियाणां तु तत्तत्सौख्यं सुसाधयेत्। याममात्रं प्रतिदिनं योगी यत्नादतन्द्रितः॥७२॥
इसी तरह से ज्ञानेन्द्रियों के जितने भी विषय हैं, उन सबको योगी अपनी अन्तरात्मा में धारण करे तथा प्रतिदिन एक प्रहर तक इस (क्रिया) का आलस्य त्यागकर प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करे॥७२॥

ज्ञानेन्द्रियों के विषय – तन्मात्रायें (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) को आत्मभाव से ग्रहण करने की सिद्धि हेतु तन्मात्रा साधना।  शाण्डिल्योपनिषद् में 5 प्रकार के प्रत्याहार वर्णित हैं।
आत्मवत्सर्वभूतेषु @ आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः – आंखें खुली हो या हो बंद self/ स्वयं/ आत्मा को देखें।
आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः – जो कुछ भी सुनें (श्रवण) स्वयं को सुनें।
आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः – जो कुछ सुंघे उसे आत्मभाव से से ग्रहण करें। जो भी रस ग्रहण करें उसे आत्मरूप जानें। जो भी स्पर्श (touch) करें उसमें आत्मा की भावना करें।
अन्नो वै ब्रह्म। प्राणो वै ब्रह्म। मनो वै ब्रह्म। विज्ञानो वै ब्रह्म। आनंदो वै ब्रह्म

जिज्ञासा समाधान

गायत्री पंचकोशी साधना अन्तर्गत कुण्डली जागरण की साधना को षट्-चक्र भेदन को रखा गया है। प्रज्ञा बुद्धि व भाव संवेदना (आत्मीयता) विस्तार उपरांत कुण्डलिनी जागरण (शक्ति विस्तार) की साधना योग्य गुरू के दिशा-निर्देश पर किया जा सकता है।

अध्यात्म‘ में छलांग की कोई व्यवस्था नहीं है अर्थात् there is no shortcut. एक एक कक्षा (कोश) को पार करने से प्रगति बनती है तथा लक्ष्य लभ्य होता है।
गुरूकुलों में गुरू-शिष्य आमने-सामने … प्रशिक्षण में सुविधा होती है और प्रगति अनिरुद्ध होती है।

निष्काम कर्म भी एक प्रकार का ‘प्रत्याहार’ है।

क्रियायोग‘ अर्थात् practical है। गायत्री महामंत्र के practical को ही गायत्री पंचकोशी साधना के 19 क्रियायोग में लाया जाता है जिससे तीनों शरीर (स्थूल, सुक्ष्म व कारण) की cleaning & healing अर्थात् साधा जाता है। पंचकोश के परिष्कृत होने के पश्चात आत्मा के प्रकाश में आत्मा का अनावरण होता है।

अभेद दर्शनं ज्ञानं‘ @ ‘अद्वैत’  को व्यवहार में लाने हेतु गायत्री पंचकोशी साधना ‘क्रियायोग’, स्वाध्याय (उपनिषद्, सांख्य दर्शन, योगदर्शन आदि) व सत्संग को जीवन साधना पद्धति में शामिल किया जा सकता है।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः

Writer: Vishnu Anand

 

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