Yogtatva Upanishad – 5
PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 17 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 5
Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘साधक‘ के चित्तवृत्ति मनोभूमि (रूचि) व उनकी duties के अनुसार ‘साधना’ बतायी जाती हैं। ब्रह्मा जी के ज्ञान ‘द’ को देवताओं ने ‘दमन’ (इन्द्रिय निग्रह), दानवों ने ‘दया’ व मनुष्यों ने ‘दान’ के अर्थ में लिया।
यथा वा चित्तसामर्थ्यं जायते योगिनो ध्रुवम्। दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिः क्षणाद्दूरगमस्तथा॥७३॥
वाक्सिद्धिः कामरूपत्वमदृश्यकरणी तथा। मलमूत्रप्रलेपेन लोहादेः स्वर्णता भवेत्॥७४॥
खे गतिस्तस्य जायेत सन्तताभ्यासयोगतः। सदा बुद्धिमता भाव्यं योगिना योगसिद्धये॥७५॥
भावार्थ: इस प्रकार के अभ्यास द्वारा जैसे-जैसे योगी की चित्त-शक्ति बढ़ती है, वैसे-वैसे ही उसको दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, क्षण भर में सुदूर क्षेत्र से आ जाना, वाणी की सिद्धि, जब चाहे जैसा रूप ग्रहण कर लेना, अदृश्य हो जाना, उसके मल-मूत्र के स्पर्श से लोहे का स्वर्ण में परिवर्तन हो जाना, आकाश मार्ग से गमन कर सकना आदि सिद्धियाँ प्रकट होने लगती हैं। बुद्धिमान् श्रेष्ठ योगी सदैव योग की सिद्धि की ओर ही ध्यान बनाये रखे॥७३-७५॥
5 इन्द्रियों के खूंटे से, 5 तन्मात्राओं के रस्से से ‘जीव’ बंधा हुआ है। रस्सों (तन्मात्राओं) के आकर्षण में जीव रूपी घोड़ा इस प्रकार बंधा है की उसे ‘बन्धन’ अच्छा लगता है।
5 ज्ञानेन्द्रियों में 5 तन्मात्राओं को अनुभव करने की शक्ति है। अतः ज्ञानेन्द्रियों के अनुभवों को आत्मवत् ग्रहण करें अर्थात् तत्सवितुर्वरेण्यं।
योग की सिद्धि पर हम ध्यान रखें – आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः। आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः। आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः।।।
एते विघ्ना महासिद्धेर्न रमेत्तेषु बुद्धिमान्। न दर्शयेत्स्वसामर्थ्यं यस्यकस्यापि योगिराट्॥७६॥
(परन्तु) ये सभी सिद्धियाँ योग-सिद्धि के लिए विघ्नरूप हैं, बुद्धिमान् योगी साधक को इन (सिद्धियों) से बचना चाहिए। अपनी इस तरह की सामर्थ्य को कभी भी किसी के समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए॥
सिद्धि का मर्म निष्काम कर्म।
यथा मूढो यथा मूर्खो यथा बधिर एव वा। तथा वर्तेत लोकस्य स्वसामर्थ्यस्य गुप्तये॥७७॥
इसलिए श्रेष्ठ योगी को जन सामान्य के समक्ष अज्ञानी, मूर्ख एवं बधिर की भाँति बनकर रहना चाहिए। अपनी सामर्थ्य को सभी तरह से छिपाकर गुप्त रीति से रहना चाहिए॥७७॥
सर्कस के नट अथवा magician नहीं प्रत्युत् आत्मीय बनें। सामर्थ्य गोपनीयता संग सुनियोजित हों। सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी की पेट एक बार में फाड़ दी जाती है।
शिष्याश्च स्वस्वकार्येषु प्रार्थयन्ति न संशयः। तत्तत्कर्मकरव्यग्रः स्वाभ्यासेऽविस्मृतो भवेत्॥७८॥
शिष्य-समुदाय अपने-अपने कार्यों के लिए योगी साधक से निश्चित ही प्रार्थना करेंगे; किन्तु योगी को उनके काम में पड़कर अपने कर्तव्य (अभ्यास) को विस्मृत नहीं कर देना चाहिए॥
God helps those who help themselves. अतः इतना support ना दें अथवा लें की विकलांगता (disability) को बढ़ावा मिले। प्रेरणा को धारण करें और प्रेरित करें।
अविस्मृत्य गुरोर्वाक्यमभ्यसेत्तदहर्निशम्। एवं भवेद्धठावस्था सन्तताभ्यासयोगतः॥७९॥
उस योगी को चाहिए कि गुरु के वाक्यों को याद करके सभी तरह के क्रिया-कलापों को छोड़कर योग के अभ्यास में लगा रहे॥
अनभ्यासवतश्चैव वृथागोष्ठ्या न सिद्ध्यति। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन योगमेव सदाभ्यसेत्॥८०॥
इस प्रकार लगातार योग के अभ्यास से उसे घटावस्था की प्राप्ति हो जाती है; परन्तु इस तरह की सिद्धि अभ्यास के द्वारा ही मिल सकती है, केवल बातों से कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता॥
गायत्री पंचकोशी साधना के श्रद्धापूर्वक, सहज, सजग व सुरूचिपूर्ण नियमित अभ्यास से लक्ष्य का वरण किया जा सकता है। Nothing is gained by talking only, so one should practice also. यज्ञ पिता – गायत्री माता। सद्ज्ञान – सत्कर्म।
ततः परिचयावस्था जायतेऽभ्यासयोगतः। वायुः परिचितो यत्नादग्निना सह कुण्डलीम्॥८१॥
भावयित्वा सुषुम्नायां प्रविशेदनिरोधतः। वायुना सह चित्तं च प्रविशेच्च महापथम्॥८२॥
भावार्थ: अत: योगी को निरन्तर प्रयत्नपूर्वक योग का अभ्यास करते रहना चाहिए। तदनन्तर अभ्यास योग से ‘परिचय अवस्था’ का शुभारम्भ होता है। उस (अवस्था) के लिए प्रयत्नपूर्वक वायु से प्रदीप्त अग्नि सहित कुण्डलिनी को साधना के द्वारा जाग्रत् करके भावनापूर्वक सुषुम्ना में अवरोध रहित प्रवेश कराना चाहिए॥८१-८२॥
गुरूदेव ने हमेशा चेतनात्मक (भावपूर्ण) अभ्यास को प्राथमिकता दी है। आरंभावस्था, घटावस्था के बाद परिचयावस्था में कुण्डलिनी जागरण साधक पर कोई side affects नहीं डालते।
यस्य चित्तं स्वपवनं सुषुम्नां प्रविशेदिह। भूमिरापोऽनलो वायुराकाशश्चेति पञ्चकः॥८३॥
येषु पञ्चसु देवानां धारणा पञ्चधोद्यते। पादादिजानुपर्यन्तं पृथिवीस्थानमुच्यते॥८४॥
भावार्थ: तत्पश्चात् वायु के सहित चित्त को महापथ में अग्रसर करना चाहिए। जिस योगी का चित्त वायु के सहित ‘सुषुम्ना नाड़ी में प्रविष्ट हो जाता है, उसे पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश इन 5 महाभूत रूपी देवों की 5 प्रकार की ‘धारणा’ हो जाती है॥८३-८४॥
महापथ अर्थात् सुषुम्ना नाड़ी। ईड़ा व पिंगला मध्य सुषुम्ना। ‘धारणा’ की साधना को योग की तीसरी परिचयावस्था में शामिल किया गया है।
पृथिवी चतुरस्रं च पीतवर्णं लवर्णकम्। पार्थिवे वायुमारोप्य लकारेण समन्वितम्॥८५॥
ध्यायंश्चतुर्भुजाकारं चतुर्वक्त्रं हिरण्मयम्। धारयेत्पञ्चघटिकाः पृथिवीजयमाप्नुयात्॥८६॥
पैरों से जानु (घुटनों) तक पृथ्वी तत्त्व का स्थान बतलाया गया है। चार कोनों से युक्त यह पृथ्वी, पीत वर्ण, ‘ल’ कार से युक्त कही गयी है। पृथ्वी तत्त्व में वायु को आरोपित करते हुए ‘ल’ कार को उसमें संयुक्त करके उस स्थान में स्वर्ण के समान रंग से युक्त चार भुजाओं एवं चतुर्मुख ब्रह्मा जी का ध्यान करना चाहिए॥८५-८६॥
पृथिवीयोगतो मृत्युर्न भवेदस्य योगिनः। आजानोः पायुपर्यन्तमपां स्थानं प्रकीर्तितम्॥८७॥
इस तरह से पाँच घटी (२ घंटे) तक ध्यान करने से योगी पृथ्वी तत्त्व को जीत लेता है। ऐसे योगी की पृथ्वी के संयोग (विकार या आघात) से मृत्यु नहीं होती॥
आपोऽर्धचन्द्रं शुक्लं च वंबीजं परिकीर्तितम्। वारुणे वायुमारोप्य वकारेण समन्वितम्॥८८॥
स्मरन्नारायणं देवं चतुर्बाहुं किरीटिनम्। शुद्धस्फटिकसङ्काशं पीतवाससमच्युतम्॥८९॥
धारयेत्पञ्चघटिकाः सर्वपापैः प्रमुच्यते। ततो जलाद्भयं नास्ति जले मृत्युर्न विद्यते॥९०॥
भावार्थ: घुटनों से गुदास्थान तक जल-तत्त्व का क्षेत्र बतलाया गया है। यह जल-तत्त्व अर्द्ध चन्द्र के रूप में ‘वं’ बीज वाला होता है। इस जल-तत्त्व में वायु को आरोपित करते हुए ‘वं’ बीज को समन्वित करके चतुर्भुज, मुकुट धारण किये हुए, पवित्र स्फटिक के सदृश, पीत वस्त्रों से आच्छादित अच्युतदेव श्री नारायण का पाँच घटी (२ घंटे) तक ध्यान करना चाहिए। इससे सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है॥८८-९०॥
वाङ्मय संख्या 15 “सावित्री कुण्डलिनी तंत्र” का स्वाध्याय किया जा सकता है तदनुसार सर्वथा लाभप्रद हानिरहित युगानुकुल अभ्यास किया जा सकता है।
जिज्ञासा समाधान
भावनायें कमजोरी का नहीं प्रत्युत् सशक्तिकरण का माध्यम बनें। असफलता केवल यह प्रदर्शित करती हैं की सफलता का प्रयास पूर्ण मनोयोग से नहीं किया गया। जिसके ४ आधारभूत तत्त्व हैं – १. श्रद्धा, २. प्रज्ञा, ३. श्रमशीलता व ४. निष्ठा। ‘प्रज्ञा’ को विकसित करने हेतु गुरू के मार्गदर्शन में श्रद्धापूर्वक एकनिष्ठ होकर नियमित श्रम (अभ्यास) करना होता है। श्रद्धावान लभते ज्ञानं। श्रद्धया सत्यमाप्यते।
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा।। वैदिक दृष्टिकोण में सृष्टि उत्पत्ति के सिद्धांतों के स्वाध्याय से पंच तत्त्वों से विनिर्मित शरीर के अंदर पंचतत्वों का ध्यान फिर उसका समष्टि में तादात्म्य अनुभव स्थापित किया जा सकता है @ यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे।
नित्य ऊषापान, १ घंटे उपनिषद् स्वाध्याय, joint movements, warm-up, प्रज्ञा-योगासन, ४ प्रभावी व महाप्रभावी आसन, प्राणायाम, तन्मात्रा साधना (निष्काम कर्म), ग्रन्थि भेदन (त्रिगुणात्मक संतुलन – अद्वैत) आत्मीयतापूर्ण व्यवहार से आत्मसात किया जा सकता है।
‘ध्यान‘ (meditation) की आरंभावस्था acceptance से होती है। मान लें की पंचकोश में ओजस् (तेजस् व वर्चस की अभिवृद्धि हो रही है।
मंत्र संख्या ७९ में ‘योगी’ अर्थात् योगसाधक। सभी तरह के क्रियाकलापों को छोड़ने का अर्थ है ‘साधना’ हेतु पर्याप्त समय अनिवार्य रूप से निकाला जाए @ time management.
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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