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Yogtatva Upanishad – 6

Yogtatva Upanishad – 6

PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 18 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 6

Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

घटावस्था‘ में प्राणमय व मनोमयकोश की परिपक्वता है। गुरूदेव ध्यान धारणा से पहले की स्थिति – स्थिर शरीर… मन शांत… वासना शांत… तृष्णा शांत… अहंता शांत … अर्थात् मन का शांत होना अनिवार्य है। शांत मन व शांत चित्त संग ध्यान धारणा का अभ्यास किया जाता है।
चित्त‘ में हम क्या बसा कर चल रहे हैं जो धारण किये हैं वही हमारा ‘व्यक्तित्व’ बन जाता है। हम अपना मूल्य समझें और यकीन करें हम अद्भुत अनुपम अद्वितीय हैं।
विचारों के सायुज्यता से ही ‘मन’ एक होते हैं friendship होती फलतः आत्मीयता का विस्तार होता है।

ततो जलाद्भयं नास्ति जले मृत्युर्न विद्यते। आपायोर्हृदयान्तं च वह्निस्थानं प्रकीर्तितम्॥९१॥
इसके पश्चात् उस योगी को जल से किसी भी तरह का डर नहीं रहता और न ही जल से उसकी मृत्यु हो सकती है। जलतत्त्व (गुदा भाग) से हृदय क्षेत्र तक अग्नि का स्थान बताया गया है॥९१॥
पदार्थ से चेतनात्मक बातचीत अर्थात् जल तत्त्व से मित्रता कर ली जाये वो मित्रवत व्यवहार करने लगते हैं। ऊषापान से लेकर स्नान तक, सफाई से लेकर सूर्य देवता को अर्घ्य देने तक, gardening से लेकर farming तक, खेल खेल swimming, rowing etc तक ‘जल’ से मित्रता की जा सकती है @ जल ही जीवन है। @ रसो वै सः।

वह्निस्त्रिकोणं रक्तं च रेफाक्षरसमुद्भवम्। वह्नौ चानिलमारोप्य रेफाक्षरसमुज्ज्वलम्॥९२॥
तीन कोणों से युक्त अग्रि, लाल रंग वाला एवं ‘र’ कार से संयुक्त होता है। अग्नि में वायु को आरोपित करके उस समुज्ज्वल ‘र’ कार को समन्वित करना चाहिए॥
नाभि चक्र अग्नि तत्त्व प्रधान। Triangle होना अग्नि के उर्ध्वगामी होने का प्रतीक है। अग्नि तत्त्व से ज्ञानेन्द्रियां बनी हैं।

त्रियक्षं वरदं रुद्रं तरुणादित्यसंनिभम्। भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं सुप्रसन्नमनुस्मरन्॥९३॥
त्रियक्ष (तीन नेत्रों) से युक्त वर प्रदान करने वाले, तरुण आदित्य के सदृश प्रकाशमान तथा समस्त अङ्गों में भस्म धारण किये हुए भगवान् रुद्र को प्रसन्न मन से सदा ध्यान करना चाहिए॥
स्वस्थ मन के दो लक्षण/ parameters – १. शांत व २. प्रसाद (प्रसन्नता)।

धारयेत्पञ्चघटिका वह्निनासौ न दाह्यते। न दह्यते शरीरं च प्रविष्टस्याग्निमण्डले॥९४॥
पाँच घटी (२ घंटे) तक इस तरह से चिन्तन करने से वह (योगी) अग्नि से नहीं जलाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रखर जलती हुई अग्नि में भी संयोगवश प्रविष्ट कराया जाए, तो भी वह नहीं जलता॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।।

आहृदयाद्भ्रुवोर्मध्यं वायुस्थानं प्रकीर्तितम्। वायुः षट्कोणकं कृष्णं यकाराक्षरभासुरम्॥९५॥
हृदय क्षेत्र से भृकुटियों तक का स्थान वायु का क्षेत्र कहा गया है, यह षट्कोण के आकार वाला, कृष्ण वर्ण से युक्त भास्वर ‘य’ अक्षर वाला होता है॥
अनाहत चक्र – वायु तत्त्व प्रधान। Air – hexagonal.

मारुतं मरुतां स्थाने यकाराक्षरभासुरम्। धारयेत्तत्र सर्वज्ञमीश्वरं विश्वतोमुखम्॥९६॥
मरुत्स्थान पर यकार होता है। यहाँ ‘य’ अक्षर केसहित विश्वतोमुख सर्वज्ञ ईश्वर का सतत चिन्तन करना चाहिए॥
lungs, heart, pacemaker सबको healthy बना रहा है। हृदय – center of emotions भाव संवेदना का विस्तार।

धारयेत्पञ्चघटिका वायुवद्व्योमगो भवेत्। मरणं न तु वायोश्च भयं भवति योगिनः॥९७॥
इस तरह पाँच घटी अर्थात् दो घंटे तक उन विश्वतोमुख भगवान् का ध्यान करने से योगी वायु के सदृश आकाश में गमन करने वाला हो जाता है। उस महान् योगी को वायु से किसी भी तरह का भय नहीं व्याप्त होता तथा वह वायु से मृत्यु को भी नहीं प्राप्त होता॥
जब तक हृदय क्षेत्र में प्राणवायु का आवागमन जारी है ‘मृत्यु’ नहीं होती। अवरोध (blockage), वायु तत्त्व से मित्रता अर्थात् आवागमन में बाधक होते हैं।

आभ्रूमध्यात्तु मूर्धान्तमाकाशस्थानमुच्यते। व्योम वृत्तं च धूम्रं च हकाराक्षरभासुरम्॥९८॥
भृकुटी के मध्य भाग से लेकर मूर्धा के अन्त तक का आकाश तत्त्व का क्षेत्र कहा गया है। यह व्योमवृत्त के आकार वाला, धूम्र वर्ण से युक्त तथा ‘ह’ कार (अक्षर) से प्रकाशित है॥

आकाशे वायुमारोप्य हकारोपरि शङ्करम्। बिन्दुरूपं महादेवं व्योमाकारं सदाशिवम्॥९९॥
इस आकाश तत्त्व में वायु का आरोपण करके ‘ह’ कार के ऊपर भगवान् शंकर (का ध्यान करे), जो बिन्दु रूप महादेव हैं। वही व्योमाकार में सदाशिव रूप हैं॥

शुद्धस्फटिकसङ्काशं धृतबालेन्दुमौलिनम्। पञ्चवक्त्रयुतं सौम्यं दशबाहुं त्रिलोचनम्॥१००॥
वे भगवान् शिव परम पवित्र स्फटिक के सदृश निर्मल हैं, बालरूप चन्द्रमा को मस्तक में धारण किये हुए हैं, पाँच मुखों से युक्त, सौम्य, दश भुजा एवं तीन नेत्रों से युक्त हैं॥

सर्वायुधैर्धृताकारं सर्वभूषणभूषितम्। उमार्धदेहं वरदं सर्वकारणकारणम्॥१०१॥
वे भगवान् शिव सभी प्रकार के शस्त्रास्त्रों को धारण किये हुए, विभिन्न प्रकार के आभूषणों से विभूषित, पार्वती जी से सुशोभित अर्धाङ्ग वाले, वर प्रदान करने वाले तथा सभी कारणों के भी कारण रूप हैं॥

आकाशधारणात्तस्य खेचरत्वं भवेद्ध्रुवम्। यत्रकुत्र स्थितो वापि सुखमत्यन्तमश्नुते॥१०२॥
उन भगवान् शिव का ध्यान आकाश तत्त्व में करने से निश्चित ही आकाश मार्ग में गमन की शक्ति मिल जाती है। इस ध्यान से साधक कहीं भी रहे, वह अत्यन्त सुख की प्राप्ति करता है॥

एवं च धारणाः पञ्च कुर्याद्योगी विचक्षणः। ततो दृढशरीरः स्यान्मृत्युस्तस्य न विद्यते॥१०३॥
इस प्रकार विशेष लक्षणों से संयुक्त योगी को पाँच तरह की धारणा करनी चाहिए। इस धारणा से उस योगी का शरीर अत्यन्त दृढ़ हो जाता है तथा उसे मृत्यु का भय भी व्याप्त नहीं होता॥

ब्रह्मणः प्रलयेनापि न सीदति महामतिः। समभ्यसेत्तथा ध्यानं घटिकाषष्टिमेव च। वायुं निरुध्य चाकाशे देवतामिष्टदामिति॥१०४॥
सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्। निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत् ॥१०५॥
ब्रह्म-प्रलय अर्थात् चराचर में जल ही जल की स्थिति होने पर भी वह महामति दुःख को प्राप्त नहीं होता। छः घटी अर्थात् दो घंटे चौबीस मिनट तक वायु को रोककर आकाश तत्त्व में इष्ट सिद्धिदाता-देवों को निरन्तर ध्यान करते रहना चाहिए। सगुण ध्यान करने से अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं तथा निर्गुण रूप में चिन्तन करने से समाधि की स्थिति प्राप्त होती है॥१०४-१०५
महाप्रलय भी आ जाये तो वह मार्कण्डेय ऋषि की तरह survive कर लेगा। योगसाधक सुख ही नहीं प्रत्युत् दुख को भी enjoy करते हैं क्योंकि वो सुख-दुखात्मक (राग-द्वेषात्मक) स्थिति से उपर उठ (परे) हो जाते हैं।

दिनद्वादशकेनैव समाधिं समवाप्नुयात्। वायुं निरुध्य मेधावी जीवन्मुक्तो भवत्ययम्॥१०६॥
योग में निष्णात साधक मात्र बारह दिन में ही समाधि की सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है। वह योगी वायु (प्राण) को स्थिर करके (समाधि को सिद्ध करके) अपने जीवन में मुक्ति प्राप्त कर लेता है॥

समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः। यदि स्वदेहमुत्स्रष्टुमिच्छा चेदुत्सृजेत्स्वयम्॥१०७॥
समाधि में जीवात्मा एवं परमात्मा की समान अवस्था हो जाती है। उसमें यदि अपना शरीर छोड़ने की इच्छा हो, तो उसका परित्याग भी किया जा सकता है॥

परब्रह्मणि लीयेत न तस्योत्क्रान्तिरिष्यते। अथ नो चेत्समुत्स्रष्टुं स्वशरीरं प्रियं यदि॥१०८॥
सर्वलोकेषु विहरन्नणिमादिगुणान्वितः। कदाचित्स्वेच्छया देवो भूत्वा स्वर्गे महीयते॥१०९॥
इस प्रकार से योगी अपने आपको परब्रह्म में विलीन कर लेता है, उसे पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता; किन्तु यदि उसको शरीर प्रिय लगता है, तो वह स्वयं ही अपने शरीर में स्थित होकर अणिमा आदि समस्त सिद्धियों से युक्त हो सभी लोकों में गमन कर सकता है तथा यदि चाहे तो कभी भी देवता होकर स्वर्ग में निवास कर सकता है॥१०८-१०९
योगसाधक अवतरण प्रक्रिया में अर्थात् सोद्देश्य आवागमन करते है।

ध्यानम् नित्यानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्। एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि।।
योगसाधक को विशुद्धि चक्र से नीचे नहीं रहनी चाहिए। उपास्य प्राण उर्ध्वगामी हैं। नकारात्मकता का कहीं कोई स्थान नहीं रहता है। उर्ध्वगामी प्राण (चेतना) तत्सवितुर्वरेण्यं कर लेगी।

जिज्ञासा समाधान

स्थितप्रज्ञ योगसाधक ‘सुषुम्ना’ में स्थित अर्थात् शांत मन से क्रिया (action) करते हैं। शांत मन से किये गये कर्म, बंधन नहीं होते @ निष्काम कर्म। सा विद्या या विमुक्तये @ विद्या/ज्ञान वह है जो मुक्ति दे/ निर्लिप्त रखें।
ध्यान में ‘प्रकाश’ व उनकी किरणों से ध्यान धारणा को क्रमशः आयाम दिया जा सकता है @ हरि व्यापक सर्वत्र समाना। 

योगसाधक – प्रसवन व प्रतिप्रसवन की क्रिया में निष्णात होते हैं। विद्यां च अविद्यां च @ संभूति च असंभूति च – तेन त्यक्तेन भुंजीथा।

यदि अनुभव (experiences) – मन को शांत व प्रसन्न, बुद्धि को संशय रहित, चित्त को शिव संकल्प युक्त व अहंकार को अहं जगद्वा सकलं शुन्यं व्योमं समं  रखें – तो दिशा धारा सही है। ये अनुभव personal, social & spritual life में प्रगति का माध्यम बनते हैं। प्रज्ञोपनिषद् में वर्णित धर्म के १० लक्षणों में अभिवृद्धि होती है।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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