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Yogtatva Upanishad – 7

Yogtatva Upanishad – 7

PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 19 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 7

Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

योगतत्त्व उपनिषद् में ‌भगवान विष्णु, ब्रह्मा जी को आष्टांग योग का ज्ञान दे रहे हैं। यह ज्ञान प्रजापति स्तर पर दी जा रही हैं। अतः शब्दावली को समझने व इन्हें अनुभव में लाने में सर्वसाधारण को कठिनाई होती है। संभव है – ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते’।
गायत्री महाविज्ञान का तृतीय खण्ड गायत्री मंजरी का practical है। गायत्री मंजरी में वंदनीय पार्वती जी की जिज्ञासा पर महादेव कहते हैं – गायत्री वेदमाता हैं, पृथ्वी पर वह आद्यशक्ति कहलाती हैं और वह संसार की माता हैं। मैं उसी की उपासना करता हूं। दस भुजाओं वाली अत्यंत रहस्यमयी यह गायत्री संसार में 5 मुखों को धारण करती हुई अत्यंत शोभित होती हैं। जीव पंच आवरणों को धारण करते हैं वे ही ‘कोश’ कहलाते हैं। उन्हीं को गायत्री के 5 मुख समझो। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय ये ‘पंचकोश’ कहलाते हैं।
सत्संकल्प – हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे। हम ईश्वरत्व को सर्वत्र नहीं देख अथवा अनुभव नहीं कर पा रहे हैं अर्थात् हमारा दृष्टिकोण विकृत है। परिष्कृत दृष्टिकोण हेतु ‘प्रज्ञा’ (विवेक) का जागरण आवश्यक है। विशुद्ध चित्त की स्थिति को ऋतंभरा प्रज्ञा का जागरण समझ सकते हैं। विशुद्ध चित्त को ‘आत्मा’ कहते हैं।
गायत्री विद्या प्राण विद्या है। गायत्री साधक आत्मसाधक हैं। गायत्री परा विद्या है अतः उसके फल की प्राप्ति के लिए साधक को ऐसा गुरू करना चाहिए जो गायत्री तत्त्व का ज्ञाता हो।

मनुष्यो वापि यक्षो वा स्वेच्छयापीक्षणद्भवेत्। सिंहो व्याघ्रो गजो वाश्वः स्वेच्छया बहुतामियात्॥११०॥
योगी स्वेच्छा से मनुष्य अथवा यक्ष का रूप भी क्षणभर में धारण कर सकता है। वह सिंह, हाथी, घोड़ा आदि अनेक रूपों को स्वेच्छापूर्वक धारण कर सकने में समर्थ होता है॥
रूप बदलने की कला (पदार्थ पर आत्मनियंत्रण) एक विज्ञान (science) है जिसकी सिखलाई वर्तमान युग में प्रचलन में नहीं है अतः यह हमें अतिश्योक्ति जान पड़ती है।

यथेष्टमेव वर्तेत यद्वा योगी महेश्वरः। अभ्यासभेदतो भेदः फलं तु सममेव हि॥१११॥
महेश्वर पद के प्राप्त हो जाने पर योगी इच्छानुकूल व्यवहार कर सकता है। यह भेद तो मात्र अभ्यास का ही है, फल की दृष्टि से तो दोनों समान ही हैं॥
योगसाधक अवधूत स्तरीय हो जाते हैं।

पार्ष्णिं वामस्य पादस्य योनिस्थाने नियोजयेत्। प्रसार्य दक्षिणं पादं हस्ताभ्यां धारयेद्दृढम्॥११२॥
साधक को चाहिए कि बाँयें पैर की एड़ी के द्वारा योनि स्थान को दबाये तथा दायें पैर को फैलाकर के उस पैर के अँगूठे को मजबूती से पकड़ ले॥
महाबन्ध‘ की तकनीक बतायी जा रही है। योनि अर्थात् ‘सीवन’ (मलद्वार तथा मूत्रद्वार के बीच वाली जगह)।

चुबुकं हृदि विन्यस्य पूरयेद्वायुना पुनः । कुम्भकेन यथाशक्ति धारयित्वा तु रेचयेत्॥११३॥
इसके बाद ठोड़ी को छाती से लगा लेना चाहिए। तदनन्तर वायु को धीरे-धीरे अन्दर धारण करे और शक्ति के अनुसार कुम्भक करे, फिर रेचक के द्वारा वायु को बाहर निकाल देना चाहिए॥
जालंधर बंध (ठोड़ी को छाती से लगाकर) संग पुरक (inhaling), कुंभक (holding) व रेचक (exhaling) तीनों की क्रिया की जा रही हैं।

वामाङ्गेन समभ्यस्य दक्षाङ्गेन ततोऽभ्यसेत्। प्रसारितस्तु यः पादस्तमूरूपरि नामयेत्॥११४॥
इस क्रिया को निरन्तर अभ्यास पूर्वक बाँये अंग से करने के उपरान्त दाँये अंग से करे अर्थात् जो पैर फैलाया हुआ था, उसे योनि के स्थान पर लगाये और जो योनि के स्थान पर था, उसे फैलाकर अँगूठे को दृढ़तापूर्वक पकड़ लेना चाहिए॥

अयमेव महाबन्ध उभयत्रैवमभ्यसेत्। महाबन्धस्थितो योगी कृत्वा पूरकमेकधीः॥११५॥
वायुना गतिमावृत्य निभृतं कण्ठमुद्रया। पुटद्वयं समाक्रम्य वायुः स्फुरति सत्वरम्॥११६॥
यह ही ‘महाबन्ध’ कहलाता है। इस बन्ध का दोनों ही प्रकार से अभ्यास किया जाता है। महाबन्ध की क्रिया में सतत संलग्न रहने वाले योगी को एकाग्र होकर कण्ठ की मुद्रा द्वारा वायु की गति को आवृत करके दोनों नासिका-रन्ध्रों को संकुचित करने से तत्परतापूर्वक वायु भर जाती है॥११५-११६॥

अयमेव महावेधः सिद्धैरभ्यस्यतेऽनिशम्। अन्तः कपालकुहरे जिह्वां व्यावृत्य धारयेत्॥११७॥
भ्रूमध्यदृष्टिरप्येषा मुद्रा भवति खेचरी। कण्ठमाकुञ्च्य हृदये स्थापयेद्दृढया धिया॥११८॥
बन्धो जालन्धराख्योऽयं मृत्युमातङ्गकेसरी। बन्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तूड्डीयते यतः॥११९॥
उड्यानाख्यो हि बन्धोऽयं योगिभिः समुदाहृतः। पार्ष्णिभागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्दृढम्॥१२०॥
अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य योनिबन्धोऽयमुच्यते। प्राणापानौ नादबिन्दू मूलबन्धेन चैकताम्॥१२१॥
गत्वा योगस्य संसिद्धिं यच्छतो नात्र संशयः। करणी विपरीताख्या सर्वव्याधिविनाशिनी॥१२२॥
सिद्ध योगीजन इस (ऊपर वर्णित) महावेध का निरन्तर अभ्यास करते रहते हैं। जिह्वा को लौटाकर, अन्तः कपाल-कुहर में लगाकर दोनों भृकुटियों के मध्य में दृष्टि को स्थिर करना ‘खेचरी मुद्रा’ है। कण्ठ को संकुचित करके (ठोड़ी को) दृढ़तापूर्वक वक्ष पर स्थापित करना ही ‘जालन्धर बन्ध’ कहलाता है। जो मृत्यु रूपी हाथी के लिए सिंह के समान होता है। जिस बन्ध से प्राण सुषुम्ना में उठ जाता है। उसे योगी लोग ‘उडियान बन्ध’ कहते हैं। एड़ी से योनि स्थान को ठीक प्रकार से दबाकर अन्दर की तरफ खींचे, इस तरह अपान को ऊर्ध्व की ओर उठाये, यही ‘योनि बन्ध’ कहलाता है। इस क्रिया से प्राण, अपान, नाद और बिन्दु में मूलबन्ध के द्वारा एकता की प्राप्ति होती है तथा यह संशयरहित योग सिद्ध कराने वाला है। अब ‘विपरीतकरणी मुद्रा’ के सन्दर्भ में बतलाते हैं। इसे समस्त व्याधियों का विनाश करने वाली कहा गया है॥११७-१२२॥
महाबन्ध की परिपक्वता को ‘महावेध‘ की संज्ञा दी गई है। ग्रन्थि भेदन की साधना में सत्, रज व तम्  ग्रन्थि का वेधन किया जाता है। खेचरी मुद्रा के युगानुकुल अभ्यास में जीभ (tongue) को तालू (palate) में लगाकर भृकुटि मध्य (चिदाकाश) चेतनात्मक अभ्यास किया जाता है। जालन्धर बन्ध आत्मिकी में प्रवेश, आत्मबोधत्व दिलाता है। मृत्यु पर विजय अर्थात् आत्मा की अमरता का बोध – नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥ उड्डियान बंध का अभ्यास  अंतः व बाह्य दोनों कुंभक अवस्था में कहा जाता है। योनि बन्ध अर्थात् मूलबंध।

नित्यमभ्यासयुक्तस्य जाठराग्निविवर्धनी। आहारो बहुलस्तस्य सम्पाद्यः साधकस्य च॥१२३॥
इस विपरीतकरणी मुद्रा का नित्य अभ्यास करने से साधक की जठराग्नि बढ़ जाती है। इस कारण साधक अधिक आहार (भोजन) को पचा सकने में समर्थ हो जाता है॥
विपरीतकरणी मुद्रा की अभ्यास से अच्छी भूख लगती है। चर्बी गलती है। मोटापा को दूर  किया जा सकता है।

अल्पाहारो यदि भवेदग्निर्देहं हरेत्क्षणात्। अधःशिरश्चोर्ध्वपादः क्षणं स्यात्प्रथमे दिने॥१२४॥
यदि साधक कम भोजन ग्रहण करेगा, तो उसकी जठराग्नि उसके शरीर को ही नष्ट करने लगेगी। इस मुद्रा के लिए प्रथम दिन क्षणभर के लिए सिर नीचे की ओर करके तथा पैरों को ऊपर की ओर करे॥
Slim body वाले विपरीतकरणी मुद्रा के अभ्यास संग diet अच्छी रखें। विपरीतकरणी मुद्रा में posture शीर्षासन (सर नीचे पांव उपर एक सीध में) की जाती है।

क्षणाच्च किञ्चिदधिकमभ्यसेत्तु दिनेदिने। वली च पलितं चैव षण्मासार्धान्न दृश्यते॥१२५॥
इसके पश्चात् प्रत्येक दिन एक-एक क्षण भर निरन्तर अभ्यास बढ़ाता रहे, तो छ: मास में ही साधक के शरीर की झुर्रियाँ तथा बालों की सफेदी समाप्त हो जायेगी॥
Slow and steady wins the race. सहज सजग नियमित अभ्यास से सफलता सुनिश्चित होती है।

जिज्ञासा समाधान

हम सभी श्वसन करते हैं। प्राणायाम श्वसन मात्र की क्रिया नहीं है प्रत्युत प्राण को आयाम देने की यात्रा है। पंचकोशी क्रियायोग के अभ्यास का उद्देश्य जीव पंचकोशी आवरण को बेध कर – बोधत्व (अन्नो वै ब्रह्म। प्राणो वै ब्रह्म। मनो वै ब्रह्म। विज्ञानो वै ब्रह्म। आनन्दो वै ब्रह्म) प्राप्त करें। पंचकोश का विकृत होना ही आत्मविस्मृति का कारण है। परिष्कृत कर लें – आत्मा के प्रकाश में आत्मा का अनावरण होता है। अतः योग-साधना से प्रगति तीव्र हो जाती हैं।

प्राण‘ के उर्ध्वगमन से चक्रों व उपचक्रों की cleaning & healing उपरांत योगसाधक निष्काम कर्म करते हैं अर्थात् सांसारिक दायित्वों का disposal करते हैं, आसक्त नहीं होते हैं। त्रिगुणात्मक संतुलन से ‘समत्व’ की स्थिति आ जाती है – सर्वधीसाक्षीभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं

जीव भाव तक ईश्वरीय स्फुल्लिंग। जीवः शिवः, शिवो जीवः, स जीवः केवलः शिवः। व्यष्टि का समष्टि में तादात्म्य स्थापित होने के बाद योगसाधक अपनी आत्मा में सबको और सबमें अपनी आत्मा को देखता है।

तप‘ से cleaning होती है। ‘योग‘ से healing (विलय – विसर्जन/ तादात्म्य) होती है। गायत्री त्रिपदा हैं। ज्ञान, कर्म व भक्ति की त्रिवेणी संगम में डुबकी लगायें।

प्रज्ञा बुद्धि में दुरदर्शिता का समावेश होता है।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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