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Yogtatva Upanishad – 8

Yogtatva Upanishad – 8

PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 20 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 8

Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

अनन्ता वे वेदा – वेद अनंत है। उपनिषद् के मंत्रों के अर्थ अनंत हैं @ नेति नेति।

याममात्रं तु यो नित्यमभ्यसेत्स तु कालजित्। वज्रोलीमभ्यसेद्यस्तु स योगी सिद्धिभाजनम्॥१२६॥
लभ्यते यदि तस्यैव योगसिद्धिः करे स्थिता। अतीतानागतं वेत्ति खेचरी च भवेद्ध्रुवम्॥१२७॥
जो प्रतिदिन एक प्रहर (तीन घंटे) तक (इस विपरीतकरणी मुद्रा का) अभ्यास करता है, वह योगी काल को अपने वश में कर लेता है। जो योगी वज्रोली मुद्रा का नित्य अभ्यास करता है, वह जल्दी ही सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है। जो उस मुद्रा का अभ्यास कर लेता है, तो योग की सिद्धि उसके हाथ में ही जानना चाहिए। वह भूत, भविष्यत् का ज्ञाता हो जाता है तथा वह अवश्य ही आकाश मार्ग से गमन करने में समर्थ हो जाता है॥१२६-१२७॥
जो तीन घण्टे विपरीतकरणी मुद्रा (शीर्षासन) करते हैं। उच्चस्तरीय योगसाधक अभी एक बार में 45 मिनट तक शीर्षासन कर लेते हैं। चार संध्या (morning, afternoon, evening and midnight) में 4 times (45 X 4) 3 घंटे पूर्ण कर सकते हैं। युगानुकुल वज्रोली मुद्रा के अभ्यास में मुत्र नाड़ी के संकोचन-प्रकु़ंचन (contract – release) से पूर्ण लाभ लिया जा सकता है। ‘क्रिया’ संग उत्कृष्ट चिन्तन होना अनिवार्य है। उत्कृष्ट चिन्तन हेतु – अहरह स्वाध्याय।

अमरीं यः पिबेन्नित्यं नस्यं कुर्वन्दिने दिने। वज्रोलीमभ्यसेन्नित्यममरोलीति कथ्यते॥१२८॥
जो (योगी) ‘अमरी’ (मूत्र) को प्रतिदिन पीता है एवं घ्राणेन्द्रिय के द्वारा उसका नस्य करता (सूँघता) है तथा ‘वज्रोली’ का अभ्यास करता है, तो उसे ‘अमरोली’ का साधक कहा जाता है॥
जब तक इसमें toxins, खारापन हो तब तक इसे ‘मूत्र’ की संज्ञा दी जा सकती है। जब ‘मूत्र’ विशुद्ध हों जाए तो उसे ‘अमरी’ की संज्ञा दी जा सकती है। अमरोली के अभ्यास से सतो-ग्रंथि का वेधन हो जाता है। पंडित मोरारजी देसाई स्व मुत्र का सेवन करते थे। शोधार्थी अभ्यास कर सकते हैं।

ततो भवेद्राजयोगो नान्तरा भवति ध्रुवम्। यदा तु राजयोगेन निष्पन्ना योगिभिः क्रिया॥१२९॥
इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। राजयोग के सिद्ध हो जाने से योगी को हठयोग की शरीर सम्बन्धी क्रियाओं की जरूरत नहीं पड़ती॥
साधक‘ जब  ‘साध्य‘ से ‘योग’ (सायुज्यता/ तादात्म्य) अर्थात् राजयोग सिद्ध कर लेते हैं तब ‘साधन‘ (हठयोग) की आवश्यकता नहीं होती है।

तदा विवेकवैराग्यं जायते योगिनो ध्रुवम्। विष्णुर्नाम महायोगी महाभूतो महातपाः॥१३०॥
इसके पश्चात् वह राजयोग सिद्ध करने में समर्थ हो जाता है,  उसे निश्चय ही ‘वैराग्य’ एवं ‘विवेक’ की प्राप्ति सहजतया हो जाती है। भगवान् विष्णु ही महायोगी, महाभूत स्वरूप तथा महान् तपस्वी हैं॥

तत्त्वमार्गे यथा दीपो दृश्यते पुरुषोत्तमः। यः स्तनः पूर्वपीतस्तं निष्पीड्य मुदमश्नुते॥१३१॥
तत्त्वमार्ग पर गमन करने वाले को वे पुरुषोत्तम दीपक की भाँति दृष्टिगोचर होते हैं। (यह जीवन विभिन्न योनियों में घूमता हुआ मानव योनि में आता है,) तब वह जिस स्तन को पीता है, दूसरी अवस्था में वैसे ही स्तन को दबाकर आनन्दानुभूति करता है॥
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।। परंतु हे महाबाहो ! गुणकर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला, “सभी गुण ही गुणोंमें बरतते है” ऐसा समझकर आसक्त नहीं होता । 

यस्माज्जातो भगात्पूर्वं तस्मिन्नेव भगे रमन्। या माता सा पुनर्भार्या या भार्या मातरेव हि॥१३२॥
(जीव ने) जिस योनि में जन्म लिया था, वैसी ही योनि में पुनः-पुनः रमण किया करता है। एक जन्म में जो माँ होती है, वही दूसरे जन्म में पत्नी भी हो जाती है तथा जो पत्नी होती है, वह माता बन जाती है॥

यः पिता स पुनः पुत्रो यः पुत्रः स पुनः पिता। एवं संसारचक्रं कूपचक्रेण घटा इव॥१३३॥
भ्रमन्तो योनिजन्मानि श्रुत्वा लोकान्समश्नुते। त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्तिस्रः सन्ध्यास्त्रयः स्वराः॥१३४॥
त्रयोऽग्नयश्च त्रिगुणाः स्थिताः सर्वे त्रयाक्षरे। त्रयाणामक्षराणां च योऽधीतेऽप्यर्धमक्षरम्॥१३५॥
जो पिता होता है, वह पुत्र बन जाता है तथा जो पुत्र होता है, वह पिता के रूप में जन्म ले लेता है। इस तरह से यह संसार चक्र, कूप-चक्र (पानी खींचने की रहट) के सदृश है, जिसमें प्राणी नाना प्रकार की योनियों में सतत गमनागमन करता रहता है। तीन ही लोक हैं, तीन ही वेद कहे गये हैं, तीन संध्यायें हैं, तीन स्वर हैं, तीन अग्नि हैं, तीन गुण (सत्, रज, तम) बतलाये गये हैं। तथा तीन अक्षरों में सभी कुछ विद्यमान है। अतः इन तीन अक्षरों तथा अक्षर का भी योगी को अध्ययन करना चाहिए॥१३३-१३५॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव। त्वमेव सर्व मम देवदेव।। ईश्वर omnipresent/ universal common factor हैं।

तेन सर्वमिदं प्रोतं तत्सत्यं तत्परं पदम्। पुष्पमध्ये यथा गन्धः पयोमध्ये यथा घृतम्॥१३६॥
तिलमध्ये यथा तैलं पाषाणेष्विव काञ्चनम्। हृदि स्थाने स्थितं पद्मं तस्य वक्त्रमधोमुखम्॥१३७॥
ऊर्ध्वनालमधोबिन्दुस्तस्य मध्ये स्थितं मनः। अकारे रेचितं पद्ममुकारेणैव भिद्यते॥१३८॥
मकारे लभते नादमर्धमात्रा तु निश्चला। शुद्धस्फटिकसङ्काशं निष्कलं पापनाशनम्॥१३९॥
सभी कुछ उसी (तीन अक्षरों) में पिरोया हुआ है, वही सत्यस्वरूप है, वही शाश्वत परमपद है। जैसे पुष्प में सुगन्ध होती है, दुग्ध में घृत सन्निहित है, तिलों में तेल उत्पन्न होता है और प्रस्तर खण्ड में स्वर्ण निहित है, वैसे ही वह भी सभी में व्याप्त है। हृदय-संस्थान में जो कमल-पुष्प स्थित है, उसका मुख नीचे की ओर है। एवं उसकी नाल (दण्डी) ऊर्ध्व की ओर है। नीचे बिन्दु है, उसी के मध्य में मन प्रतिष्ठित है।’अ’ कार में रेचित किया हुआ हृदय कमल का ‘उ’ कार से भेदन किया जाता है एवं ‘म’ कार में नाद (ध्वनि) को प्राप्त होता है। अर्द्ध मात्रा निश्चल, शुद्ध स्फटिक के समान निष्कल एवं पापनाशक है॥१३६-१३९॥
ॐ = अ + उ + म। नाद-योग साधना। ओमित्येव सुनामध्येयमनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः।सर्वेष्वेव हितस्य नामसु वसोरेतत्प्रधानं मतम्। यं वेदा निगदन्ति न्याय निरतं श्रीसच्चिदानन्दकम्। लोकेशं समदर्शिनं नियमिनं चाकार हिनं प्रभुम्॥

लभते योगयुक्तात्मा पुरुषस्तत्परं पदम्। कूर्मः स्वपाणिपादादिशिरश्चात्मनि धारयेत्॥१४०॥
एवं द्वारेषु सर्वेषु वायुपूरितरेचितः। निषिद्धं तु नवद्वारे ऊर्ध्वं प्राङ्निश्वसंस्तथा॥१४१॥
इस प्रकार योग से संयुक्त हुआ योगी पुरुष मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है। जिस तरह से कच्छप अपने हाथ, पैर एवं सिर को अपने अन्दर प्रतिष्ठित कर लेता है, उसी तरह से सभी द्वारों से भर करके दबाया हुआ वायु,नौ द्वारों के बन्द होने से ऊर्ध्व की ओर गमन कर जाता है॥१४०-१४१॥

घटमध्ये यथा दीपो निवातं कुम्भकं विदुः। निषिद्धैर्नवभिर्द्वारैर्निर्जने निरुपद्रवे॥ निश्चितं त्वात्ममात्रेणावशिष्टं योगसेवयेत्युपनिषत्॥१४२॥
जिस तरह वायुरहित घड़े के मध्य में (स्थिर लौ वाला) दीपक रखा होता है, उसी तरह से कुम्भक को जानना चाहिए। इस योग-साधना में नौ द्वारों के अवरुद्ध कि ये जाने पर सुनसान एवं निरुपद्रव स्थान में आत्मतत्त्व ही मात्र शेष रहता है। ऐसा ही यह योगतत्त्व उपनिषद् है॥
रंग-महल के दस दरवाजे, कौन सी खिड़की खुली थी सैंया निकस गए , मैं ना लड़ी थी!’ – शरीर रंगमहल हैं और इसके दस दरवाजे हैं इसके अवरूद्ध पर आत्म तत्त्व शेष रह जाता है @ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः

जिज्ञासा समाधान

प्राण ‘अधोगामी’ (downward) हो तो मूंह नीचे की ओर रहता है, जब ‘उर्ध्वगामी’ (upward) हो तो मूंह उपर की ओर उत्तरमुखी रहता है। शिवलिंग का जल उत्तर दिशा में प्रवाहित होती है।

उत्कृष्ट चिन्तन भी जप है। ऊषापान संग स्वाध्याय किया जा सकता है। उपासना मंत्रादि जप बाह्यभ्यान्तरः शुचि के पश्चात करते हैं। सहजता, सजगता व रूचि का ध्यान रखें। आत्म-निर्माण के दो सुत्र – सद्ज्ञान (उत्कृष्ट चिन्तन) व सत्कर्म (आदर्श कर्तृत्व/ अनासक्त कर्म)। आत्मिक प्रगति के four steps – आत्म-समीक्षा, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण व आत्मविकास।

राजयोग‘ की सिद्धि/ परिपक्वता ‘सहजोली मुद्रा’ है @ साधो सहज समाधि भली। इसमें क्रिया (साधन) की आवश्यकता नहीं होती प्रत्युत् सहज योग (तादात्म्य) होता है @ साधक-सविता एक। भक्त-भगवान एक। समाधि … भाव समाधि।

यौगिक मुद्रा में प्रगति हस्तमुद्रा की अपेक्षा तीव्र होती है। आप अपनी सहजता को ध्यान में रखकर अभ्यास को प्राथमिकता दें सकते हैं।

दैनंदिन जीवन में योगसिद्धि को यूं समझ सकते हैं ~ योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2.48।।

कल रामनवमी है। रामचरितमानस की कक्षा उपनिषद् शैली में ली जायेंगी।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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