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Yogtatvopnishad – 2

Yogtatvopnishad – 2

योगतत्त्वोपनिषद् (मन्त्र 131-142)

(गुप्त नवरात्रि साधना) _ Aatmanusandhan –  Online Global Class – 07 July 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT:  योगतत्त्वोपनिषद् (मन्त्र 131-142)

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

आत्मा‘ के गुणों की जानकारी होने के साथ साथ ‘बोधत्व’ (feel) से बात बनती है ।

योगतत्त्वोपनिषद् में बोधत्व का मार्ग प्रशस्त किया गया है । बोधत्व क्रम में चक्र उपचक्र में फंसे कचड़े (toxins) बाधक होते हैं । उनके साफ सफाई व जागरण (cleaning and healing) हेतु यौगिक अभ्यास बताये गये हैं ।  

सांख्य दर्शन (24 तत्त्व):-
मूल प्रकृति (1)
मन, बुद्धि व अहंकार (3)
पंच तन्मात्राएं (5)
पंच महाभूत (5)
पंच ज्ञानेन्द्रिय (5)
पंच कर्मेंद्रियां (5)
पुरुष (आत्मा – परमात्मा)
तत्त्वों के गुण धर्म स्वभाव की जानकारी होने के उपरांत हमें उसे नियंत्रित करने में सुविधा होती है । अभ्यास करने (साधना) से इन्हें नियंत्रित करने की कला विकसित हो जाती हैं (तत्त्वबोध) । तदुपरांत ये तत्त्व, बोधत्व में बाधक नहीं प्रत्युत् सहयोगी बन जाते हैं ।
आसक्ति‘ (बंधन) से बात बिगड़ती है और ‘अनासक्ति‘ (मुक्ति) से बात बनती है ।

रिश्ते (पिता – पुत्र, माता – पत्नी आदि) स्थायी नहीं हैं । अलग अलग जन्म (शरीर धारण) में ये अलग अलग हो सकते हैं ; अतः हमें संबंधों के प्रति आसक्ति (मोह) का त्याग करना चाहिए । मोह का रूपांतरण (अनासक्त/ निःस्वार्थ) प्रेम में ।

तीन लोक, तीन वेद, तीन संध्याएं, तीन स्वर, तीन अग्नि, तीन गुण (सत्व, रज व तम) व तीन अक्षर (अ, उ, म) हैं ।

योग युक्त योगी परम मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है ।

जिज्ञासा समाधान

साधु पुत्र जनयः । तपस्वी दंपत्ति ही तेजस्वी संतानोत्पत्ति के माध्यम बनते हैं ।
आत्मा नर है ना नारी है ना तो इसकी कोई वर्ण है ना ही आश्रम है । अतः आत्मानुसंधान में साम्यता बनाते हुए भेदपरक दृष्टिकोण से परे अद्वैत पथ पर अग्रसर हुआ जाए ।

स्थूल क्रम में होने वाली घटनाएं सूक्ष्म में पुर्व में घटित हो जाती‌ हैं । सुक्ष्मातिसुक्ष्म में प्रवेश करने के बाद भविष्य दर्शन संभव बन पड़ता है (त्रिकालदर्शी) । ईश्वरीय व्यवस्था अन्तर्गत ईश्वरीय शक्ति सुपात्रों का स्वतः वरण कर लेती हैं (पाछे पाछे हरी फिरे ।)

सुक्ष्म शरीरधारी अशरीरी योनियां (invisible) हैं । हिमालय में ऐसे सुक्ष्म शरीरधारी श्रषि सत्ताएं तपस्यारत हैं । सात लोक (भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः तपः व सत्यं) हैं ।

सविता‘ सारे सूर्यों का प्रसव करती हैं । सविता सर्वभूतानां सर्व भावश्च सूयते ।  ईश्वर अंश जीव अविनाशी । जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः ।

आसक्ति (वासना, तृष्णा व अहंता) से योनियां प्राप्त होती है । अनासक्त हो मुक्ताकाश में गमन किया जा सकता है ।

आत्मविस्मृति (भुलक्कड़ी) का मूल कारण पंच महाभूत के सुक्ष्म इन्द्रियानुभूत गुण – पंच तन्मात्राएं (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) का आसक्ति युक्त सेवन है ।
पूर्व जन्म की विस्मृति ईश्वरीय व्यवस्था के अन्तर्गत है । बीति ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेई ।
योगी त्रिकालदर्शी (भूत, भविष्य व वर्तमान के ज्ञाता) होते हैं ।
जो बोओगे – सो काटोगे ।” (As you sow so you reap) @ गहणाकर्मणोगति: ।

आनंद‘ असीमित अपरीमित है । उसे किसी parameters or format में बांधा नहीं जा सकता है । वो सृष्टि के मूल में है अतः सार्वभौम है । हमें उसे अनुभव में लाने की कला (आस्तिकता) विकसित करनी होती है @ हर हाल मस्त (समर्पण – विलय – विसर्जन) ।

(गहणाकर्मणोगतिः – http://literature.awgp.org/book/the_absolute_law_of_karma/v4.1) कर्म के तीन प्रकार:-
1. क्रियमाण कर्म
2. प्रारब्ध कर्म
3. संचित कर्म 
योगी मुक्त जन इस कर्मगति से परे हो जाते हैं । जीव (शरीर) भाव तक कर्म की गति है ; शिव (आत्म) भाव में सब एक समान ।

ज्ञानयुक्त चेतना सृष्टि के कण कण में है । परिवर्तनशील संसार में एक अपरिवर्तनशील चैतन्य सत्ता विद्यमान है जिससे हम tuning बिठा लेवें (सायुज्यता) तो बात बन जाए ।

ईश्वरीय अवतरण व्यवस्था – यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥॥

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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