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Yuganukul 12 Tapashcharyan

Yuganukul 12 Tapashcharyan

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 22 May 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: युगानुकुल 12 तपश्चर्याएं

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ गायत्री हिरास्कर दीदी व आ॰ पद्मा हिरास्कर दीदी (पुणे महाराष्ट्र)

‘तप’ – गलाई की अर्थात् अवांछनीयता/ दोष – दुर्गुणों के removal का process है।

मौन तप – परमेश्वरस्तुतिर्मौनं। ‘मौन’ से ‘प्राण’ का क्षरण रूकता है। ‘संयम’ (self-control) में अभिवृद्धि होती है। ‘एकाग्रता’ (concentration) सधती है। ‘मौन’ बाह्य ही नहीं प्रत्युत् अंत: भी होनी चाहिए अन्यथा अंदर का शोर/ कोलाहल ‘विक्षोभ’ का कारण बन सकता है। ‘मौन’ का अर्थ ‘चुप्पी’ अथवा ‘निष्क्रियता’ नहीं प्रत्युत् कब, कहां, कितना और कैसे बोलना है – सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात्; सक्रियता अर्थात् धर्मों रक्षति रक्षितः।

आस्वाद तप – ‘जीभ’ अर्थात् स्वाद के प्रति लिप्सा/ चिपकाव को संयमित करने हेतु हम ‘आस्वाद तप’ करते हैं। ‘रसो वै सः’ – रस तो लें किंतु वह अभिवृद्धि का माध्यम बनें, हानि का नहीं। ऋतभोक्, मितभोक् व हितभोक्।

तितीक्षा तप – स्वावलंबन व प्राकृतिक जीवन-शैली।

कर्षण तप – आलस्य/ प्रमाद, भोग – विलास से निवृत्ति।

उपवास तप – रोगों को भूखा रख कर मार डालना अर्थात् प्रभावहीन करना। ईश्वरीय सद्गुणों का चिंतन-मनन व स्वयं में धारण करने का अभ्यास। पंचकोश में प्रत्येक कोश में ‘प्राण’ अपने स्वरूप को बदल लेता है अतः हर एक कोश के अपने आहार व विहार हैं उनके अपने अपने उपवास हैं।

गव्यकल्प तप – गौ उत्पादों का सेवन और दैनंदिन जीवन में समाविष्ट करना।

निष्कासन तप – ‘आत्मसुधार’ संसार की सबसे बड़ी सेवा है। ‘ध्यान’ में जब स्वयं की कमियां दिखने लगी तब समझें ‘ध्यान’ सधने लगा है। हमें सर्वप्रथम accept करना होता है … बस बहुत हुआ … अब छोड़ते हैं।

प्रदातव्य तप – औरों के हित जो जीता है औरों के हित जो मरता है। उसके हर आंसू रामायण व प्रत्येक कर्म ही गीता है।

साधना तप – उपासना – साधना व अराधना। ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन अनासक्त कर्मयोग।

ब्रह्मचर्य तप – काम बीज का ज्ञान बीज में रूपांतरण। ब्रह्म को चरना अर्थात् “अहं ब्रह्मस्मि। तत्त्वमसि। सोऽहम। सर्व खल्विदं ब्रह्म।” यौन समागम का उद्देश्य तेजस्वी संतानोत्पत्ति एवं दांपत्य जीवन में प्रेमोल्लास, सद्भावना व सहृदयता का विकास करना है ना की उच्छृंखलता की पराकाष्ठा में जीवनी शक्ति का ह्रास कर छूंछ ठूंठ बन जाना है। अतः ब्रह्मचर्य की साधना में सर्वप्रथम ‘वीर्य’ (प्राण/ शक्ति) के अनावश्यक क्षरण को रोकना होता है और यह संभव बन पड़ता है रूपांतरण से। जिसमें पंचकोशी क्रियायोग अद्भूत अप्रतिम साधन साबित हुए हैं।

अर्जन तप – शिक्षा, कला – कौशल द्वारा अपनी योग्यता, शक्ति, सदुपयोगिता, क्रियाशीलता में अभिवृद्धि ‘अर्जन तप’ है। ‘स्वावलंबन’ अध्यात्म है।

चान्द्रायण तप – यह व्रत 15 दिन का होता है। प्रारंभ में अर्द्ध चांद्रायण कर सकते हैं। पूर्णमासी से प्रारंभ किया जाता है। योग्य मार्गदर्शन में इस तप का अभ्यास करें।

‘सदुपयोग’ (good use) से बात बनती है तो ‘दुरूपयोग’ (misuse) से बिगड़ती है। शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक रूप से सुदृढ़ बनें। ‘स्थूल, सुक्ष्म व कारण’ तीनों शरीरों को संभालने व साधने का क्रम तप/ साधना है। ‘तप’ – ‘गलाई’ @ क्रिया के संग ‘योग’ – ‘ढलाई’ दोनों process साथ साथ चलते हैं। तप – आत्मसमीक्षा व आत्मसुधार के संग योग – आत्मविकास व आत्मनिर्माण चलते हैं अर्थात् प्रारंभिक ‘तप’ ही उत्तरार्ध में ‘योग’ में परिणत हो जाते हैं।

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

‘पद्मा दीदी’ व गायत्री दीदी को बहुत बहुत आभार। पद्मा दीदी एक सधी हुई तपस्विनी साधक, गृहस्थ योग में प्रवीण व संघर्षों में तपी व निखरी आत्मसाधिका हैं। ‘गायत्री दीदी’ की प्रखरता (प्रज्ञा बुद्धि) व श्रद्धा (सजल) सभी के लिए आदर्श हैं।

‘आत्मा’ पंचकोश युक्त होने के बाद ‘जीवात्मा’ कही जाती हैं। ‘पंचकोश’ विकृत होने के कारण ‘आत्मा’ का प्रकाश ‘जीव’ तक नहीं पहुंच पाता है। इन पंचकोश को उज्जवल बनाने के लिए ‘आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण व आत्मविकास’ @ पंचकोशी क्रियायोग की आवश्यकता पड़ती है। ‘आत्मा’ मुक्त है; ‘जीवात्मा’ को जीव भाव से परे जाने हेतु ‘उपासना, साधना व अराधना’ @ ‘आत्मसाधना’ की आवश्यकता पड़ती है।

‘जीव’ शरीर की अपनी अपनी क्षमता होती है जो पंचतत्वों से प्रभावित होती है। अपनी क्षमता अर्थात् सहजता का ध्यान रखते हुए सजगता पूर्वक (प्रज्ञा बुद्धि) श्रद्धापूर्ण अभ्यास (निष्ठापूर्ण श्रम) ‘आत्म-साधना’ जारी रखें।

आज के दंपत्ति व युवाओं को युगऋषि रचित ‘अध्यात्मिक काम विज्ञान’ का स्वाध्याय करना चाहिए। ‘काम’ के ‘सदुपयोग’ की कला ‘रूपांतरण’ की विधा को आत्मसात् की युगानुकुल विधा को समक्ष रखा गया है।

‘गुरू’ – प्रेरणाओं का प्रसार करते हैं। ‘शिष्य’ को उन प्रेरणाओं को धारण करने हेतु ‘पुरूषार्थ’ करना होता है।

‘कामसूत्र’ की रचना का उद्देश्य ‘यौन उच्छृंखलता’ को बढ़ाना नहीं प्रत्युत् ‘काम’ के ‘सदुपयोग’ की कला को विकसित करना है। अध्यात्मिक काम विज्ञान को कामसूत्र के द्वारा जन जन तक सुलभ बनाया जा सकता है। इस पर विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।


Writer: Vishnu Anand

 

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