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Yuganukul Tapscharya

Yuganukul Tapscharya

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 05 Dec 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: युगानुकुल तपश्चर्या

Broadcasting. आ॰ अमन जी

आ॰ गायत्री हिरास्कर जी (पुणे, महाराष्ट्र).

तप की जीवन‌ में आवश्यकता क्यों?
तप की अग्नि/गर्मी/उष्मा से सभी कुसंस्कार, पापादि कर्म गल कर भस्म हो जाते हैं। जीवन में सुसंस्कारिता, सात्त्विकता व तेजस्विता का समावेश होता है। रूपांतरण/परिवर्तन हेतु तप अनिवार्य है। सोना भी तप कर कुंदन बनता है।

आ॰ पद्मा हिरास्कर जी (पुणे, महाराष्ट्र)

1. अस्वाद तप. स्वाद की लोलुपता इन्द्रियों को अनियंत्रित कर देती है। आहार (diet) में में स्वाद वाले घटक जैसे नमक, चीनी, मसाले आदि का संयम अस्वाद तप के अंतर्गत आता है। संयमित होकर स्वादिष्ट भोजन करना। सहजता पूर्ण अभ्यास को जीवन क्रम में लायें। लाभ: स्वस्थ तन व संयमित मन।
2. तितिक्षा तप. प्राकृतिक जीवनशैली। सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि का सहजता से आनंद लेना। लाभ: जीवनी शक्ति व रोग प्रतिरोधक क्षमता में अभिवृद्धि।
3. कर्षण तप. स्वावलम्बी बनने का अभ्यास। जीवन में सर्वांगीण अनुशासन का समावेश। अपने छोटे बड़े काम जहां तक संभव बन पड़े स्वयं करना। लाभ: आत्मनिर्भरता व आत्म सम्मान में अभिवृद्धि।
4. उपवास. भोजन को शुद्ध व सात्विक बनाने का क्रम। सात्विक बनाने का क्रम। ‘ऋतभोक्, हितभोक् व मितभोक्’ सुत्र का सहज अभ्यास क्रम। लाभ: निरोग जीवन व संयमित मन।
5. गव्य कल्प. गौ उत्पादों (cow milk products) को दैनिक जीवन (Daily में प्रयोग। ‘पंच गव्य’ (दूध, दही, घी, गोबर व गौमूत्र) का प्रयोग। लाभ: सात्विकता अभिवृद्धि।
6. ब्रह्मचर्य तप. ‘शारीरिक’ (वीर्य रक्षण) सह ‘मानसिक’ – ब्रह्मचर्य का अभ्यास। इन्द्रिय संयम साधने हेतु ‘योगाभ्यास’ व विचार संयम हेतु ‘स्वाध्याय’ को दैनंदिन जीवन में शामिल करें। भगवान ‘शिव’ व ‘पार्वती’ जी चरित्र आदर्श हैं। गृहस्थाश्रम/ परिवार – ब्रह्मचर्य में बाधक नहीं वरन् हमारे षड्-विकार/ऊर्मि (काम, क्रोध, मद, लोभ, दंभ, दुर्भाव व द्वेष) ‘ब्रह्मचर्य’ में बाधक हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म में विचरण करना लाभ: काम बीज का ज्ञान बीज में रूपांतरण।

आ॰ उमा सिंह जी (बैंगलोर, कर्नाटक)

जीवन में गतिशीलता/ उर्ध्व-गमन हेतु ‘तप‘ अनिवार्य है। जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसके मैल को दूर किया जाता है, उसी प्रकार सद्गुणों व उत्तम आचरणों से अपने बहिरंग सुव्यवस्थित व अंतरंग के मैल को दूर किया जाना ही ‘तप’ है। ‘जप के साथ तप’ जोड़ देवें तो साधना में प्राण आ जायें।
‘गीता’ में वर्णित तप के तीन प्रकार हैं – ‘शारीरिक’ – शरीर से होने वाले तप जैसे तितीक्षा, कर्षण, ब्रह्मचर्य, सेवा, अहिंसा आदि। ‘वाचिक’ – सत्य, प्रिय और हितकारक वाणी का प्रयोग, स्वाध्याय‌ आदि व ‘मानसिक’, – मन से होने वाले तप जैसे खुश रहना, शांत-सौम्य जीवन, मौन, आत्मसंयम व चित्त शुद्धि आदि।
‘ब्रह्म’ की शक्ति का आधार ‘तप’ है। वो भी तपोरत् हैं।
7. प्रदातव्य तप. परमार्थ @ सत्पात्रों को दान, समय दान, अपने प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ व धन का स्वयं हेतु यथोचित प्रयोग व अधिक से अधिक जनहित में लगाना। लाभ: आत्मसंतोष।
8. निष्कासन तप. आत्म समीक्षा – आत्म सुधार – आत्मनिर्माण। हमें सर्वप्रथम स्वयं के अंदर की बुराइयों व कमियों को ढुंढना, उन्हें खुले दिल से स्वीकार करना होता है। जिससे मन ग्रंथि रहित होता है तथा आत्म-परिष्कार, आत्मोन्नति के मार्ग खुल जाते हैं। Christian में इसे ‘Confession’ तथा इस्लाम में ‘तौबा’ करना कहते हैं। हम अपनी बुराई/कमी/गलतियों को गुरु, परिवारजन अथवा विश्वस्त मित्र के सामने प्रकट कर तथा भविष्य में न दोहराने का संकल्प ले सकते है। आत्म-साधक दैनंदिन जीवन में ‘आत्मबोध व तत्त्वबोध’ साधना के सहज अभ्यास क्रम से इसे साध सकते हैं। लाभ: आत्मपरिष्कार व आत्मोन्नति।
9. साधना तप. जप, अनुष्ठान, स्वाध्याय @ पंचकोश साधना आदि। लाभ: साध्य सायुज्यता।
१०. चांद्रायण तप. पूर्ण या अर्द्ध सुविधानुसार।
११. मौन तप. वाणी संयमित हो। भाषा शालीन हो। लाभ: प्राण का क्षरण रुकता है व वृत्तियाँ अंतमुर्खी होती हैं।
१२. अर्जन तप. Skills development. हमें सदैव सीखने के क्रम को बनाए रखना चाहिए। Students knowledge upgradation हेतु जो कष्ट सहते हैं या संयम बरतते हैं, वह सभी इस तप के हिस्सा हैं। इससे अपनी ability/skills तो develop होती ही है व साथ में हम multitasking होने की वजह से सर्वोपयोगी बन सकते हैं।
‘गायत्री सम्यक दर्शन‌’ का जीवन में अवतरण (उपासना, साधना व अराधना) तप है।

प्रश्नोत्तरी with श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

मौन‘ तप में बाह्य मौन के साथ अंतः मौन भी। ‘आत्मबोध’ व ‘तत्वबोध’ की दैनिक साधना से बहिरंग सुव्यवस्थित व अंतरंग परिष्कृत होता है। आत्मपूजोपनिषद् में मौन की सर्वांगीण परिभाषा ‘परमेश्वरस्तुतिर्मौनम्’। संसार के शोरगुल/ कोलाहल के बीच भी वो ‘अशब्दं अथाह शांत सकल शुन्यं‌ @ साक्षी चैतन्य’ विद्यमान हैं उससे सायुज्यता से सर्वांगीण मौन @ साक्षी भाव @ सुषुम्ना में जीना सधता है। ‘मौन’ का अर्थ केवल चुप्पी के रूप में ना लें वरन् साक्षी चैतन्य जीवन जीना है।

सम्यक‘ दर्शन अर्थात् सर्वांगीण/ सुषुम्ना, सबको साथ लेकर चलना @ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते …

Life में शाश्वत सत्य की अनुभूति विक्षोभ/ उद्विगनता को सर्वथा शांत करती हैं। शाश्वत सत्य/ यथार्थ ज्ञान की अनुभूति हेतु ‘वासना, तृष्णा व अहंता’ को शांत अर्थात् रूपांतरण करना होता है।

आरामतलबी/ आलस्य/ प्रमाद से निजात पाने हेतु जीवन में creativity का समावेश करें। पंचकोशी क्रियायोगों के सहज अभ्यास व तदनुसार आचरण से सुविधाओं का good use होता है और misuse – आरामतलबी से बचा जा सकता है। रागों के बीच रहते हुए वीतरागी बनने की कला पंचकोश साधना सिखाती है।

आत्मसाक्षात्कार‘ हेतु सरल सहज सर्वथा सर्वोपयोगी युगानुकुल युग ऋषि प्रणीत गायत्री पंचकोशी साधना है। आत्मा के उपर चढ़े five layers पंचकोश के उज्ज्वल बनने से हम आत्मा के प्रकाश‌ तक पहुंच बना सकते हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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