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श्रीलालबिहारी सिंह “बाबूजी”

आदरणीय श्रीलालबिहारी सिंह “बाबूजी” – संस्थापक Institute of Consciousness for Divine Excellence in Society (ICDES)

स्थान – प्रज्ञाकुञ्ज आरण्यक, सासाराम, बिहार, भारत 

ध्येय मन्त्र – आत्मा वाऽरे द्रष्टव्य:

आदरणीय श्री लालबिहारी सिंह ‘बाबूजी’, परम पूज्य महाप्राज्ञ युगद्रष्टा युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पँ. श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ जी के प्रत्यक्ष सान्निध्य प्राप्त उत्कृष्ट शिष्यों में से एक हैं जिन्होंने पञ्चकोश साधना विज्ञान के गहन क्षेत्र में परम पूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष व परोक्ष मार्गदर्शन में अति गहन गति प्राप्त की व शोध कार्य किया।

पूज्य श्री लालबिहारी सिंह ‘बाबूजी’ जैसा कि परिजन उन्हें संबोधित करते हैं स्वयम में एक रहस्य है। बाबूजी अपने गुरुदेव के संरक्षण में मानवीय चेतना की उच्चतर स्थिति को अनुभूत करने के पश्चात परम पूज्य गुरुदेव के आदेशानुसार अतिप्राचीन परन्तु लुप्तप्राय हो चुकी पञ्चकोश महाविद्या को पुनश्च जनसुलभ बनाया है। पञ्चकोश महाविद्या के प्रथम आचार्य स्वयम आदि गुरु महाकाल भगवान शिवशंकर है और प्रथम शिष्य आदिमाता जगज्जननी माता पार्वती हैं।

बाबूजी से मिलने के बाद इस विशुद्ध पञ्चकोश साधना योग विज्ञान के अनेकानेक रहस्य खुलते जाते हैं जो जाति, लिंग, भाषा, सम्प्रदाय, देश की समस्त सीमित मान्यताओं के स्तर से ऊपर उठकर मानवीय चेतना की गहराइयों में उतर कर कार्य करते हैं। मनुष्यमात्र जीवमात्र के प्रति ईश्वरीय प्रेम से ओतप्रोत बाबूजी स्वयम को किसी का गुरु या संत नही प्रत्युत सच्चा मित्र व हितैषी बताते हैं और इसे सबंधो के साथ अपने अनुभवों को बताना पसन्द करते हैं।

ग्राम बरमाडीह, सासाराम बिहार में माता श्रीमती बालकेश्वरी देवी जी व पिताश्री रामसुभग जी के घर मे सन् 1952 के आश्विन माह कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र के पुण्यमय ब्रह्माण्डीय योग में पुत्र रत्न का जन्म हुआ। आपके पितामह परम् वैष्णव भक्त थे और उन्हीने अपने इष्ट आराध्य श्रीबाँकेबिहारी (श्रीकृष्ण) के नाम पर बालक का नाम बिहारीलाल रखा जो कालान्तर में विद्यालय प्रवेश के समय लालबिहारी हो गया। आज उन्ही दैवी आत्मा को हम सब श्री लालबिहारी सिंह ‘बाबूजी’ के नाम से जानते हैं।

पुत्रजन्म के पश्चात किसी अकस्मात योगी ने इनके घर पर पदार्पण किया और शिशु को देखने के पश्चात योगी ने कहा, “माई तेरा पुत्र तो योगिराज है और किसी महान आत्मा ने अपने कार्य करवाने के लिए ही इसे धरती पर बुलाया है”। कालान्तर में जब बाबूजी परम् पूज्य गुरुदेव से मिले तो उन्होंने कहा “बेटे हम तुम्हारी रक्षा बचपन से कर रहे हैं और इसी जन्म में तुम्हे पूर्णता तक ले चलेंगे, पर याद रखना तुम्हे आगे चलकर हमारे बहुत से कार्य करने हैं।”

बालक लालबिहारी बालपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे और पूर्वजन्म के सत्वपूरित संस्कारों के कारण मन सत्यालोक के अनुसंधान हेतु तड़पने लगा जिसकी पूर्णता पूज्य गुरुदेव से मिलने के बाद हुई। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तक “अध्यात्म और विज्ञान” गुरुदेव से बाबूजी के मिलन में सहायक सिद्ध हुई। पूज्य गुरुदेव तत्कालीन समय मे वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के प्रतिपादन में और सनातन संस्कृति के उन्नयन में अपने प्राण फूंक रहे थे। बाबूजी जब उनसे मिले थे तो पूज्य गुरुदेव ने उनसे कहा था कि ” बेटे जितना परिश्रम तुमने भौतिक जगत के शोध पर लगाया है उसका 10% भी यदि वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के शोध में लगाते तो आज तुम संसार के महामानवों में से एक होते।

ऐसे आध्यात्मिक शिक्षक के लौकिक परिचय से अधिक महत्व का उनका आध्यात्मिक व आत्मिकी के प्रगति का परिचय रहता है जो उनके प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में पञ्चकोश साधना विज्ञान के पथ पर चलने वाले साधकों व विद्यार्थियों के लिए अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हो सकता है।

आदरणीय श्री लालबिहारी ‘बाबूजी’ की आध्यात्मिक यात्रा का शुभारंभ सन् 1979 के वर्ष में हुआ।जैसा कि पैङ्गल ऋषि के प्रश्नों के उत्तर में वैदिक युग के महानतम व आत्मा के दिव्यद्रष्टा कवि ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा था कि:

सत्कर्म परिपाकतो बहूनां जन्म नामन्ते नृणां मोक्षेच्छा जायते। तदा सद्गुरु माश्रित्य चिर काल सेवया बन्धं मोक्षं कश्चित् प्रयाति ।।

सत्कर्मों के परिपक्व हो जाने पर जब अनेक जन्मों के पश्चात् मनुष्य की मोक्ष प्राप्त करने की बलवती इच्छा उत्पन्न होती है, तब वह किसी सद्गुरु का अवलम्बन लेकर, लंबे समय तक उनकी सेवा करके (ज्ञान प्राप्ति के पश्चात्) बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

– पैङ्गल उपनिषद, अध्याय 2, मंत्र 18

कुछ इसी प्रकार की स्थिति पूज्य बाबूजी के समक्ष 1979 में रही और पूर्व जन्मों के संस्कारवश आत्मानुसंधान के लिए अंत:करण में चक्रवात उठना आरम्भ हुआ और आत्मज्ञान के विषयों पर शोधकार्य आरम्भ किया गया।

वर्ष 1980 में जीवन के एकमात्र मार्गदर्शक सद्गुरु युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पँ. श्रीराम शर्मा आचार्य जी से मिलन हुआ, महान गुरु से हृदय से जुड़ाव हुआ और शिष्यत्व का अंतर्संबंध स्थापित हुआ। वर्ष 1981 में पूज्य गुरुदेव द्वारा जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कारों का दहन किया गया और परम पूज्य गुरुदेव के संरक्षण में आत्मानुसंधान हेतु गायत्री महाविद्या की पञ्चकोशी साधना के क्रियायोग का अभ्यास उत्साहपूर्वक शुरू किया।

इसी क्रम में पूज्य श्री लालबिहारी बाबूजी गहन स्वाध्याय (उपनिषदों में विशेष रुचि), मनन-चिंतन, स्वयं पर आत्मिकी प्रयोग और समर्पित भाव से आहर्निश परम् पूज्य गुरुदेव कार्य में संलग्न हो गए। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा शक्तिपात से आत्मिकी के अनुसंधान में गहराई बढ़ती चली गई। पञ्चकोश के अनावरण में प्रायोगिक अभ्यास में इनकी रुचि बढ़ती गई और साधना क्रम अधिक तेज होता चला गया।

आदरणीय बाबूजी ने वर्ष 1982 से परम् पूज्य गुरुदेव के संदेशवाहक बनकर देश भर में निष्ठा पूर्वक कार्यक्रम देते रहे। साधना का क्रम अनवरत चलता रहा। उस समय 10 वर्षीय अस्वाद तप व ब्रह्मचर्य तप सहित अन्य पञ्चकोशी क्रियायोग के द्वारा ऊर्जा का रुपांतरण और ऊर्ध्वगमन पर विशेष ध्यान रहा।

उन्नीसों क्रियायोग को एक-एक कर गहराई से इन्होंने समझा। इन सभी के गहन प्रयोग से सरलीकरण के सूत्र मिले। आदरणीय बाबूजी ने अनेकों नवरात्रि केवल जलाहार पर संपन्न हुए। आसन/उपवास/तत्व शुद्धि/तपस्या के प्रयोग से रुग्ण शरीर में कायाकल्प जैसा लाभ प्राप्त किया। आसन, प्राणायाम, मुद्रा व बंध (APMB) के समन्वित प्रयोग से प्राण बल में वृद्धि हुई। साधना विज्ञान के नये सूत्र भी मिले।

पञ्चकोश की तन्मात्रा साधना के विशेष प्रयोगों से मनोमय कोश को पार कर विज्ञानमय कोश में प्रवेश किया। आत्मानुभूति योग व ग्रंथिभेदन के विशेष प्रयोग से विज्ञानमय कोश को पार कर आनंदमय कोशमें प्रवेश आसान हुआ। समष्टि चेतना के प्रति समर्पण व अनासक्त प्रेम सेवा से आनंदमय कोश का जागरण सबके लिए सरल साध्य है ऐसा आदरणीय बाबूजी ने अपने प्रयोगों के निष्कर्ष में पाया।

साधना विज्ञान की गहन यात्रा में अनेक उपलब्धियां मिलते रहने से श्रद्धा बलवती होती गई। गुरु ऋण चुकाने हेतु आदरणीय बाबूजी के अंतःकरण में छटपटाहट बढ़ती गई और परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सौंपे हुए कार्य को पूरा करने में प्राणप्रण से लगे रहना स्वभाव में घुल मिल सा गया।

वर्ष 1987 में “108 कुंडीय गायत्री महायज्ञ एवं राष्ट्रीय एकता सम्मेलन ” कार्यक्रम के प्रवास दौरान कोडरमा घाटी में आदरणीय बाबूजी भीषण दुर्घटनाग्रस्त हो गए। शरीर पर भारी सामान सहित पूरी गाड़ी का वजन गिर गया था। इस विस्फोटक टकराव के समय ब्रह्म के प्रकाश ने प्रकट होकर तत्काल मृत्यु (Spot Death) से उनका रक्षण किया ‌।

इसी समय आदरणीय बाबूजी की आत्म-सत्ता ने साक्षात्कार किया।

इस भंयकर दुर्घटना से आदरणीय बाबूजी की सीने (Chest) की सभी पसलियां टूट (Crack) गईं थीं। दाहिना पैर का Tibia टूट गयाथा । एड़ी हड्डियां भी टूट चुकी। अनन्तर चिकित्सा हुई धीरे धीरे सुधार हुआ। वैसी स्थिति में भी आदरणीय बाबूजी आनंदमय और मस्त थे। प्लास्टर में भी जगह जगह पर कार्यक्रम देते रहे। गुरु कार्य में कोई आराम नही, राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम की शैली में निरन्तर गुरु कार्य मे संलग्न रहे।

कार्यक्रम के बाद बाबूजी पूज्य गुरुदेव से मिले और पूज्य गुरुदेव ने उन्हें कहा कि ‘बचाये गये हो, मर जाना था।’ बाबूजी ने गुरूदेव से पूछा कि ‘क्यों बचाये, हम तो भूत प्रेत बनकर आपका काम करना चाहते हैं।’ परम पूज्य गुरुदेव मुस्कुराये और कहा ‘इतनी आसानी से नहीं मरने देंगे। अभी तुमसे बड़ा-बड़ा काम लेना है। जब जरूरत पड़ेगी, बुला लेंगे।’ उसके बाद बाबूजी मौन हो गये।

कुछ दिनों बाद परम पूज्य गुरुदेव ने एक दिन अपने कक्ष में बाबूजी को बुलाया, काफी गंभीर दीखे, पर आशान्वित भी थे। गुरुदेव ने कहा “हमारी हार्दिक इच्छा थी, यहां से शिक्षक निकलें। पर केवल प्रचारक पैदा हो रहे हैं। तुम शिक्षक पैदा करना।”।

गुरुदेव के हृदय की पीड़ा, आंखों में भरोसे की चमक, चेहरे का भाव, उंगलियों के संकेत बाबूजी के हृदय में गहराई तक घुस गये औरआज भी उतने ही ताजे हैं। बाबूजी में सोचा कि शिक्षक से तात्पर्य क्या हो सकता है गुरुदेव का। उन्हें अंत:करण से ही प्रकाश मिला, संभवतः गुरुदेव का संकेत वैसे शिक्षक से है जो वाणी से नहीं, आचरण से शिक्षा प्रस्तुत करता है। आचरण सिद्ध शिक्षक बनाना आसान काम नहीं है।

संस्कारों को बदलने में समय लगता है। लेकिन परम पूज्य गुरुदेव की सिखायी गयी पञ्चकोशी साधना के क्रिया योग में यदि साधक की रुचि हो जाये तो एक बालक भी दस वर्ष में आत्म साक्षात्कार कर सकता है। तब से लगातार आज तक परम पूज्य गुरुदेव के उसी आदेश के अनुपालन में आदरणीय श्री लालबिहारी बाबूजी अहर्निश लगे रहे हैं।

वर्ष 1988 आश्विन मास में पूज्य गुरुदेव के आदेश पर बाबूजी ने 15 दिन केवल जलाहार पर रहकर सवा लाख (1.25 Lakh) गायत्री मंत्र के जप का अनुष्ठान किया। इस अनुष्ठान के साथ में ही बाबूजी का उपनिषदों का स्वाध्याय /आसन/प्राणायाम /महामुद्रा, महाबंध, महाबेध आदि का प्रयोग/ब्रह्मवर्चस की ध्यान धारणा का प्रयोग भी चलता रहा। इस जीवन शैली के फलस्वरूप बाबूजी का लौकिक स्थूल शरीर तो कमजोर हो गया, पर सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर मजबूत हुआ। समष्टि चेतना के प्रति समर्पण शक्ति में वृद्धि हुई। एक अलौकिक मस्ती बढ़ती गई।

गुरुसत्ता को शत-शत नमन। गुरु प्रदत्त उस आत्मशक्ति को बांटने हेतु सहस्र वेदीय दीपयज्ञों की श्रृंखला में कार्यक्रम देने देश भर के प्रवास में आदरणीय बाबूजी पुनः निकल पड़े।

निष्काम भाव से आत्मधन बांटने से अनंत गुना बढ़ता जाता है, पूज्य गुरुदेव ने बाबूजी को कहा क्षेत्रों में इसको बांटो। जब खाली हो जाय तभी आना। फिर क्या था हर रोज खाली करने पर भी वो हर रोज सवाई भर देते चले गए। हमेशा के लिए पिंड छुड़ा लिए। तब से बिना बुलाए गुरुदेव से मिलने नहीं गए। क्षेत्र में ही जो पूज्य गुरुदेव का आदेश मिलता रहा उसका अनुपालन सम्पूर्ण निष्ठा से बाबूजी करते रहे।

1990 में गायत्री जयंती को महाप्रयाण के समय भी बाबूजी परम पूज्य गुरुदेव द्वारा निदेशित क्षेत्र में कार्यक्रम सम्पन्न कराये थे। वर्ष 1992 में परम पूज्य गुरुदेव के सूक्ष्म संरक्षण एवं वंदनीया माता जी के प्रत्यक्ष आशीर्वाद से सासाराम, बिहार गृह जिला में पञ्चकोश साधना तपस्थली, प्रज्ञाकुंज आरण्यक का निर्माण कार्य बाबूजी ने आरम्भ किया। पञ्चकोश साधना के इसी आरण्यक से से बसंत पञ्चमी 1993 से पञ्चकोशी साधना से चेतनात्मक उत्कर्ष का शोध कार्य सतत गतिमान है। नि:शुल्क पञ्चकोश साधना शिविर नवरात्रि काल में तथा विशिष्ट साधना सत्र भी आवश्यकता अनुसार आदरणीय बाबूजी के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में चलते रहते हैं।

वर्ष 1994 पटना, बिहार अश्वमेध यज्ञ में परम वंदनीया माता जी का आगमन हुआ। बाबूजी की भूमिका कलश यात्रा में सांस्कृतिक झांकी निकालने से लेकर बुद्ध भोजनालय की टीम व्यवस्था में रही। परम वंदनिया माता जी के महाप्रयाण के बाद वर्ष 1995 में आंवलखेड़ा श्रद्धांजलि समारोह में भी सेवा कार्य का सौभाग्य बाबूजी को मिला।

वर्ष 1998 में बाबूजी का पुनः तत्काल-मृत्यु परक भीषण सड़क दुर्घटना में मल्टिपल फ्रैक्चर (Multiple Fracture) हो गया। इस बार बाबूजी के शरीर पर ट्रैक्टर का चक्का दो बार अप-डाउन गुजर गया। बाबूजी इस दुर्घटना में विचलित नही हुए और उनके शब्दो के ही कहें तो उनका कहना है कि “मजा आ गया, शरीर लुगदी हो गया, परन्तु कोई कष्ट अनुभूत नहीं हुआ। इसके विपरीत पुरस्कार में दुबारा ईश्वर दर्शन के साथ आत्मसाक्षात्कार का अद्भुत लाभ भी हुआ ‌। धन्य है ईश्वर की शिक्षण और पुरस्कार वितरण शैली। आज भी शरीर में 27 नट-बोल्ट विद्यमान है, गुरु कार्य में और गतिशीलता आ गई। मस्ती ही मस्ती है।”

आदरणीय बाबूजी ने सरकारी सेवा में रहते हुए यथासामर्थ्य सन् 1980 से 2000 तक 20 वर्षों के लिए आवश्यकता अनुसार कुछ माह प्रतिवर्ष शांतिकुंज हरिद्वार के केन्द्रीय कार्यक्रमों के प्रतिनिधित्व के निमित्त नियमित समयदान का संकल्पित क्रम बनाये रहा। परम पूज्य गुरुदेव से यही अनुबंध था।

वर्ष 2000 के बाद स्वतंत्र रूप से आजीवन परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सौंपे गए कार्य पञ्चकोश योग विज्ञान के अनुभवी शिक्षक उत्पादन में ही प्रज्ञाकुंज पञ्चकोश शोध तपस्थली से चलाते रहने में लगा हुआ है। वर्ष 2000 के बाद से अब तक बीस वर्षों में जहां कहीं से भी पञ्चकोशी साधना पर कक्षाएं लेने का आग्रह आता रहा, गुरु कार्य समझकर गुरु ऋण चुकाने में बाबूजी ने अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य का सदुपयोग निष्काम भाव से किया है।

आदरणीय श्री लालबिहारी बाबूजी ने आने साधना क्रम में चार बार हिमालय प्रवास भी किया:

  1. वर्ष 1985 – गुरुसत्ता की स्वीकृति एवं सूक्ष्म संरक्षण में बाबूजी ने केदार-बद्री हिमालय क्षेत्र में प्रवास किया जिसका उद्देश्य उस क्षेत्र में प्राचीन ऋषियों की तपस्थली में विद्यमान उनके शोध विषय से सम्बन्धित चैतन्य ऊर्जा तरंगों को अनुभव करना रहा और गुरुकृपा से यह कार्य सफल रहा।
  2. वर्ष 2005 – यमुनोत्री-गंगोत्री-गोमुख के हिमालय क्षेत्र में प्रवास हुआ। परम पूज्य गुरुदेव व परम वंदनीया माता जी के महाप्रयाण के बाद उनके सूक्ष्म संरक्षण में यह प्रवास हुआ। बाबूजी के दुर्घटनोपरांत 27 नट-बोल्ट लगे हैंडीकैप की स्थिति में भी हिमालय प्रवास सफल रहा और उनका उद्देश्य पूरा हुआ।
  3. वर्ष 2009- गंगोत्री – यमुनोत्री – केदार – बद्री क्षेत्र की समेकित यात्रा प्रवास सम्पन्न हुआ। इस प्रवास का उद्देश्य साधक मंडली का प्रशिक्षण था और वो भी सफल रहा।
  4. वर्ष 2019 – तपोवन हिमालय क्षेत्र में गुरु सत्ता के सूक्ष्म संरक्षण में प्रवास हुआ और निर्धारित शोध कार्य सफल रहा।

पूज्य गुरुदेव के आदेशों को शिरोधार्य करते हुए बाबूजी ने “करिष्ये वचनम् तव” के महासूत्र को अपने जीवन की कार्यशैली का एक केंद्रीय सूत्र बनाया। “योगस्थ कुरु कर्माणि” के तर्ज पर पूज्य गुरुदेव के कार्य मे प्राणपन से संलग्न हो गए। परम वंदनीया माताजी के आशीर्वाद स्वरूप आने गृहनगर में प्रज्ञाकुञ्ज आरण्यक की स्थापना की जिसमे पञ्चकोश योग विज्ञान के प्रशिक्षण का अनवरत क्रम बाबूजी के मार्गदर्शन में चल रहा है।

आज जहां दिखावे और सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अनेकानेक आडम्बरी बाजीगरों व अध्यात्म के व्यवसायीकरण से भारतीय समाज भर गया है वहीं आदरणीय बाबूजी ने परम पूज्य गुरुदेव के सिद्धांतों पर चलते हुए निःस्वार्थ लोकसेवी की तरह प्राचीन ऋषियों द्वारा अनुसंधानित पञ्चकोशी महाविद्या को जन जन तक पहुंचाने के भगीरथ प्रयास में जूटे हुए हैं।

बह्याडम्बरों व स्वार्थपरित प्रसिद्धियो से कहीं दूर बाबूजी भारतवर्ष के कोने कोने में तथा पाश्चात्य व कुछ पौर्वात्य देशो तक मे पञ्चकोश का अलख जगाने में सफल रहे हैं।

मानवीय सत्ता के पांच कलेवरों (पञ्चकोश) को पूज्य गुरुदेव युगऋषि वेदमूर्ति पँ. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने पांच अद्भुत खजाना कहा है। आदरणीय बाबूजी इस महाविद्या के वैश्विक स्तर निष्णात आचार्य व वैज्ञानिक बनाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं।

गुरु संरक्षण में वर्ष 2016 से पंचकोश रीसर्च केन्द्र सासाराम बिहार में ICDES ( INSTITUTE OF CONSCIOUSNESS FOR DIVINE EXCELLENCE IN SOCIETY ) का पंजीकरण किया गया है। यहां से Panchkosh Yogic Science की नि:शुल्क वैश्विक ऑनलाइन साप्ताहिक कक्षाएं चलती रहती हैं।

विधिवत् ऑनलाइन पंजीकरण प्रपत्र (Registration Form) भरकर पंचवर्षीय पञ्चकोश शोध में कोई भी व्यक्ति अपने घर पर रहते हुए शोध कार्य कर सकते हैं ‌।

आज के समय मे पांच सौ से अधिक शोध साधक अनुसंधानरत है। जिसमें अधिकांशतः युवा वैज्ञानिक हैं। इसमे कोई बंधन नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी पांचों शरीरों की दक्षता बढ़ाकर अपने आप के लिए, अपने परिवार, सर्विस, संस्था, सेवा क्षेत्र के लिए महत्तम उपयोगी बन सकते हैं। साथ ही साथ आत्मसाक्षात्कार का जीवन लक्ष्य भी पूर्ण किया जा सकता है।

वर्ष 2016 से अबतक भारत से अन्य पाश्चात्य व पौर्वात्य देशों में भी पञ्चकोश योग साधना सत्र बाबूजी द्वारा सफलता पूर्वक संपन्न किये गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के करीब 12 प्रांतों में युवा वैज्ञानिकों द्वारा नि:शुल्क पंचकोश योग प्रशिक्षण का लाभ लिया जा चुका है। जिससे वे अपने जीवन को धन्य करने के साथ राष्ट्र का नाम ऊंचा कर सकेंगे।